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53 साल पुराने केस पर कोर्ट का फ़ैसला आया, कहा- ये कब्रिस्तान नहीं, महाभारत का लाक्षागृह है

बागपत में लाक्षागृह और कब्रिस्तान को लेकर हिंदू पक्ष और मुस्लिम पक्ष के बीच साल 1970 से विवाद चल रहा है. अब कोर्ट का फैसला आया है. फ़ैसले के बाद मुस्लिम पक्ष ने हाईकोर्ट में अपील की बात कही है.

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फ़ैसले के बाद मुस्लिम पक्ष ने हाईकोर्ट में अपील की बात कही है. (फ़ोटो/आजतक)

बागपत के लाक्षागृह और कब्रिस्तान विवाद पर कोर्ट का फ़ेसला आया है. कोर्ट ने हिंदू पक्ष के समर्थन में फ़ैसला देते हुए कहा कि तकरीबन 108 बीघा ज़मीन पर कब्रिस्तान नहीं, लाक्षागृह था. फ़ैसला सिविल जज (जूनियर डिवीजन) बागपत कोर्ट ने सुनाया है. इस ज़मीन को लेकर हिंदू पक्ष और मुस्लिम पक्ष के बीच साल 1970 से विवाद चल रहा है. इस फ़ैसले के बाद मुस्लिम पक्ष ने हाईकोर्ट में अपील की बात कही है.

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क्या है लाक्षागृह-कब्रिस्तान मामला?

हिंदुस्तान टाइम्स की रिपोर्ट के मुताबिक़ बागपत ज़िले के बरनावा गांव में हिंडन और कृष्णा नदियों के संगम पर एक पुराने टीले की पहाड़ी है. इसी जगह पर विवाद चल रहा है. हिंदू पक्ष का कहना है कि वहां महाभारतकालीन का लाक्षागृह था, वहीं मुस्लिम पक्ष का कहना है कि उस ज़मीन पर बदरुद्दीन शाह की कब्र है. और एक कब्रिस्तान भी है. 

31 मार्च 1970 को कब्रिस्तान के तत्कालीन मुतवल्ली (देखभालकर्ता) मुकीम खान ने मेरठ कोर्ट में इसके स्वामित्व की मांग उठाई थी. उन्होंने अपनी याचिका में कहा कि हिंदुओं को ज़मीन पर अतिक्रमण करने, कब्रों को तोड़ने और वहां हवन करने से रोका जाए. उन्होंने याचिका में आगे बताया कि इस जगह पर बदरुद्दीन शाह की दरगाह थी. जो सुन्नी सेंट्रल वक्फ बोर्ड में भी रजिस्टर है.  

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उस समय हिंदूओं की तरफ़ से लाक्षागृह गुरुकुल के संस्थापक ब्रहचारी कृष्णदत्त को इस मामले का प्रतिवादी बनाया गया. हिंदू पक्ष ने दावा किया कि उस स्थान पर 'लाक्षागृह' है. लाक्षागृह लाख़ से बने महल को कहते हैं. उनका कहना था कि उस महल को दुर्योधन ने पांडवों को ज़िंदा जलवाने के लिए बनवाया गया था. लेकिन पांडव वहां से भाग गए थे.

समय के साथ यह बड़ा मुद्दा बन गया और मामला कोर्ट तक पहुंच गया. 1997 में मुकदमा बागपत ट्रांसफर हुआ. 7 अक्टूबर 2023 की सुनवाई में हिंदू पक्ष के वकील रणबीर सिंह ने कहा कि मुस्लिम पक्ष ने इस मामले में कई हिंदुओं को पक्षकार बनाया था. मामले की सुनवाई पिछले पांच दशक से चल रही है. इस बीच कई पक्षकारों की मृत्यु हो चुकी है. कोर्ट ने कहा कि मामले में कार्यवाही को आगे बढ़ाने के लिए पक्षकार बढ़ाए जाएंगें.

वकील रणबीर सिंह ने दावा किया कि विवादित ज़मीन के आसपास कोई मुस्लिम आबादी नहीं थी, जिससे पता चलता है कि मुस्लिम दावों की कोई प्रामाणिकता नहीं है. उन्होंने ये भी कहा कि दो साल पहले इस मुद्दे को सुलझाने की कोशिश की गई थी लेकिन मुसलमानों ने कोर्ट के बाहर इस मुद्दे को सुलझाने से इनकार कर दिया.

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ये भी पढ़ें: कोर्ट ने हिंदू-मुस्लिम जोड़ों को सुरक्षा देने से इनकार किया, वजह क्या बताई? 

अब कोर्ट में क्या हुआ? 

5 जनवरी को मुकदमे की सुनवाई पूरी हुई. हिंदू पक्ष के वकील रणबीर सिंह ने कहा, 

“मुस्लिम पक्ष ने दावा किया कि सूफी संत की कब्र 600 साल पुरानी थी और उनकी मृत्यु के बाद, एक कब्रिस्तान भी बनाया गया था. जिसे उस समय के 'शाह' ने वक्फ संपत्ति बना दिया था, लेकिन उसमें शासक का नाम नहीं दिया हुआ है. सरकारी रिकॉर्ड में कब्रिस्तान का कोई जिक्र नहीं है.”

सबूत के तौर पर हिंदू पक्ष ने कोर्ट में 12 दिसंबर, 1920 का ऑफिशियल गजेट दिखाया. जिसमें आर्कियोलॉजिकल सर्वे ऑफ़ इंडिया (ASI) ने कहा था, 

"शहर के दक्षिण में 'लाखा मंडप' नामक एक छोटा सा टीला माना जाता है. मेरठ से 19 मील (लगभग 30 किलोमीटर) दूर उत्तर पश्चिम सरधना तहसील में स्थित बरनावा में पांडवों को जलाने का प्रयास किया गया.''

कोर्ट ने आगे कहा कि मुस्लिम पक्ष यह स्थापित नहीं कर सका कि विवादित जगह वक्फ की प्रॉपर्टी थी या कब्रिस्तान.

टाइम्स ऑफ़ इंडिया की रिपोर्ट के मुताबिक़ मुस्लिम पक्ष के वकील शाहिद अली ने कहा कि वो लोग हार गए हैं. लेकिन वो अभी हाईकोर्ट में अपील करेंगे. 

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