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कोर्ट ने हिंदू-मुस्लिम जोड़ों को सुरक्षा देने से इनकार किया, वजह क्या बताई?

हाई कोर्ट के सामने जो आठ मामले थे, उनमें पांच मुस्लिम पुरुषों ने हिंदू महिलाओं से और तीन हिंदू पुरुषों ने मुस्लिम महिलाओं से शादी की थी.

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इलाहाबाद हाई कोर्ट की सांकेतिक तस्वीर (PTI)

आठ अंतर-धार्मिक जोड़ों ने इलाहाबाद हाई कोर्ट से सुरक्षा की मांग की थी. याचिका दायर की थी, कि उन्हें अपनी सुरक्षा के लिए राज्य का सहयोग मिले और परिवारों को ये निर्देश दिए जाएं कि वो उनके शादीशुदा जीवन में दख़ल न डालें, उन्हें परेशान न करें. हाईकोर्ट ने आठों याचिकाएं ख़ारिज कर दीं. 10 से 16 जनवरी के बीच पारित हुए अलग-अलग आदेशों में जस्टिस सरल श्रीवास्तव की बेंच ने फ़ैसला सुनाया कि शादी क़ानून के मुताबिक़ नहीं हुई थी, क्योंकि उत्तर प्रदेश ग़ैर-क़ानूनी धर्म परिवर्तन निषेध अधिनियम का पालन नहीं किया गया.

बार ऐंड बेंच की रिपोर्ट के मुताबिक़, कोर्ट ने ये भी कहा है कि अगर याचिकाकर्ता क़ानून की उचित प्रक्रिया का पालन करते हुए शादी करते हैं, तो वो अदालत में नई याचिका दायर कर सकते हैं.

उत्तर प्रदेश में बल, प्रभाव, ज़बरदस्ती, प्रलोभन या किसी भी कपटी तरीक़े से विवाह के लिए धर्म परिवर्तन पर रोक लगाने वाला क़ानून है, ग़ैर-क़ानूनी धर्म परिवर्तन प्रतिषेध अधिनियम (2021). इसके तहत, ग़ैर-क़ानूनी तरीक़े से किया गया धर्मांतरण ग़ैर-ज़मानती है. 10 साल तक की जेल हो सकती है. अंतर-धार्मिक शादियों के लिए इस क़ानून का पालन करना पड़ता है. ज़िलाधिकारी से अप्रूव करवाना होता है कि शादी के लिए धर्म बदलने में कोई ज़ोर-ज़बरदस्ती नहीं की गई थी.

इलाहाबाद हाई कोर्ट के सामने जो आठ मामले थे, उनमें पांच मुस्लिम पुरुषों ने हिंदू महिलाओं से और तीन हिंदू पुरुषों ने मुस्लिम महिलाओं से शादी की थी.

कुछ लोगों का तर्क है कि ये क़ानून देश की सांस्कृतिक और सामाजिक एकता की रक्षा के लिए ज़रूरी हैं. वहीं कुछ कहते हैं कि इसका इस्तेमाल अल्पसंख्यकों को दबाने और धार्मिक स्वतंत्रता को सीमित करने के लिए किया जाता है. उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, गुजरात, उत्तराखंड और हिमाचल प्रदेश जैसे राज्यों में धर्मांतरण विरोधी क़ानून हैं. सुप्रीम कोर्ट में इन क़ानूनों की संवैधानिक वैधता को चुनौती देने वाली याचिकाएं दायर की गई हैं.