दुनियाभर के मुसलमान ईद की तैयारी में जुटे हैं. मगर एक मुल्क ऐसा भी है, जहां मुसलमानों के ऊपर मुसलमान ही बम गिरा रहे हैं. जिस लड़ाई में हजारों मरे और लाखों बेघर हुए, वो सऊदी और ईरान की 'मैं बड़ा तो मैं बड़ा' बनने की होड़ का ही एक हिस्सा है. लेकिन क्या दशकों से चल रही इस होड़ में अब ईरान पिछड़ने लगा है? क्या वो सऊदी के सामने उन्नीस साबित हो रहा है. जानने के लिए पूरी स्टोरी पढ़िए-
13 जून, 2018.
सुबह तड़के का वक्त. समंदर के किनारे बसा हुदैदा शहर. आसमान में सूरज की रोशनी हो रही थी. और तभी एकाएक आसमान में जैसे बादल के टुकड़े लहराने लगे. ये बादल नहीं, लड़ाकू विमान थे. जो नीचे बम गिरा रहे थे. ऊपर सूरत तपता है, नीचे धरती जलती है. ऐसे ही जब ये फाइटर प्लेन नीचे बमबारी करने में लगे थे, तब नीचे जमीन पर अलग लड़ाई छिड़ी थी. वहां यमन के सरकारी सैनिक विद्रोहियों को निशाना बना रहे थे. उनका मकसद था हुदैदा बंदरगाह को अपने कब्जे में लेना. ये जिक्र यमन का है. यमन, जहां 2015 से जंग लड़ी जा रही है. ये नया मोर्चा इस जंग का अब तक का सबसे बड़ा मोर्चा है. और सऊदी जैसे लड़ रहा है, वो अमेरिकी स्टाइल की कॉपी है.
अमेरिका जब विदेशी जमीन पर लड़ता है, तो आसमान में तैनात रहता है. नीचे जमीन पर लड़ने का भार उनके कंधों पर होता है, जिनकी गरज के बहाने अमेरिका वो लड़ाई लड़ रहा होता है. इस अरेंजमेंट में फायदा ये है कि आसमान में लड़ने वाले सैनिकों की जान को कम खतरा रहता है. सऊदी ने अमेरिका का स्टाइल इंपोर्ट किया है. ताकि कम से कम जोखिम में उसका मंसूबा पूरा हो जाए. बाकी हुदैदा की अहमियत ये है कि हूती विद्रोहियों के कब्जे में ये इकलौता बंदरगाह है. न केवल मूवमेंट के लिहाज से, बल्कि जेब भरने के लिए भी उन्हें इस बंदरगाह की जरूरत है. हथियारों की, राशन की सप्लाई के लिए भी वो इस बंदरगाह पर काफी निर्भर करते हैं. इसके अलावा भुखमरी से मर रहे इस देश के लाखों लोगों के पास खाना पहुंचाने के लिए भी ये बंदरगाह अहम है. यमन की करीब दो-तिहाई आबादी के मुंह में निवाला जाए, ये जिम्मेदारी इसी बंदरगाह की है.

दिसंबर 2017 में यमन के पूर्व तानाशाह अली अब्दुल्लाह सलेह मारे गए. उसका जश्न मनाने को हूती विद्रोहियों ने ये रैली निकाली. जवानी में वो यमन को कट्टर राजशाही से आधुनिक लोकतंत्र बनाने की राह पर चले. 90 के दशक में उनका ओरियेंटेशन बदला. वो अमेरिका और सऊदी के करीब आ गए. उनके इशारों पर चलने लगे. अरब स्प्रिंग में उनके खिलाफ लहर चली और वो सत्ता से बेदखल हो गए. फिर सत्ता में लौटने के लिए विरोधियों का सहारा लेने की कोशिश की. फिर सऊदी की तरफ होने की कोशिश में विद्रोहियों के हाथों मारे गए (फोटो: AP)
यमन में कौन किससे लड़ रहा है? यमन की सुन्नी सरकार शिया विद्रोही हूती से लड़ रही है. मगर ये दोनों इस लड़ाई का फोकस नहीं हैं. ये मेन खिलाड़ी होते, तो खेल कब का खत्म हो गया होता. इनके बहाने लड़ रहे हैं सऊदी और ईरान. एक-दूसरे से. सुन्नी सऊदी सुन्नी यमन सरकार के साथ है. शिया ईरान शिया हूती विद्रोहियों के पीछे है. इन दोनों के बीच की इस लड़ाई में अमेरिका भी है. लेकिन वो सऊदी के साथ है. अमेरिका के होने की दो वजहें हैं. एक, ईरान से लड़ना. दूसरा, सऊदी को हथियार बेचकर पैसा कमाना.

ये 6 जून की तस्वीर है. राजधानी सना में सऊदी और UAE की हवाई बमबारी में इस आदमी का घर तबाह हो गया. वो बाहर बैठा अपना बर्बाद घर देख रहा है (फोटो: रॉयटर्स)
यमन में क्या लड़ाई है? 2011 में अरब स्प्रिंग शुरू हुआ. मौजूदा सिस्टम का विरोध. सरोकार रखने वाली जिम्मेदार सरकार की मांग. लोकतांत्रिक अधिकार. इन सब मांगों के साथ मिडिल ईस्ट में सशस्त्र क्रांतियां शुरू हुईं. ट्यूनीशिया, मिस्र, सीरिया. इन सब मुल्कों में. इसका असर यमन में भी आया. तब राष्ट्रपति थे अली अब्दुल्लाह सालेह. लंबे समय से सत्ता उनके ही पास थी. तानाशाही थी. विद्रोह के बाद सालेह को सत्ता अपने सहयोगी अब्द्राबुह मंसूर हादी को सत्ता सौंपनी पड़ी. लेकिन ये पावर ट्रांसफर ठीक से हो नहीं पाया. कई तरह की दिक्कतें थीं. अल-कायदा. अलगाववाद. गरीबी-भुखमरी वगैरह-वगैरह. फिर यहां शुरू हुआ शिया-सुन्नी. शिया अल्पसंख्यक हूती विद्रोहियों ने बगावत कर दी. संघर्ष शुरू हुआ. ऐसा नहीं कि बस शिया ही सपोर्ट कर रहे थे हूतियों को. यमन के अंदर कई सुन्नी भी उनके साथ थे.

ऐसा नहीं कि सऊदी इस होदैदा बंदरगाह पर हमले नहीं कर रहा था. हमले पहले भी हो रहे थे. 2017 के पतझड़ से ही हमले तेज हो गए थे. अब ये और तेज हो गए हैं. जमीन और आसमान, दोनों मोर्चों पर काफी बड़े स्तर की लड़ाई छेड़ दी गई है. ये हदौदा बंदरगाह के मेंटेनेंस हब की फोटो है. ये जहाज हवाई बमबारी में तबाह होकर किनारे खड़े हैं. तस्वीर अप्रैल, 2018 की है (फोटो: रॉयटर्स)
सऊदी की एंट्री कैसे हुई? विद्रोहियों ने 2015 में राजधानी सना पर कब्जा कर लिया. सऊदी को यकीन था कि इतना कुछ करना अकेले हूती विद्रोहियों के बस की बात नहीं है. कि उसकी मदद ईरान कर रहा है. ठीक उसी तरह, जैसे वो लेबनन में हिज्बुल्लाह की मदद करता है. ये भांपने के बाद सऊदी ने हादी को सपोर्ट करना शुरू किया. सऊदी और उसके सहयोगियों ने यमन पर हवाई बमबारी शुरू कर दी. इनकी मदद की अमेरिका, ब्रिटेन और फ्रांस ने. नवंबर 2017 में हूती विद्रोहियों ने सऊदी पर मिसाइल दाग दिया. इसके बाद लड़ाई और उग्र हो गई.

2015 में हूती विद्रोहियों ने यमन की राजधानी सना पर कब्जा कर लिया. इसके बाद जंग शुरू हुई. सऊदी कहता है कि ईरान उसकी मदद कर रहा है. ईरान और हूती, दोनों इससे इनकार कर रहे हैं (फोटो: रॉयटर्स)
सऊदी खूब हथियार खरीदता है अमेरिका से यमन की लड़ाई शुरू होने के बाद सऊदी ने अमेरिका से खूब हथियार खरीदे हैं. अभी भी खरीद चालू है. लड़ाकू विमान. ऐंटी-मिसाइल सिस्टम्स. इस लड़ाई की वजह से हथियारों की खरीद बढ़ी है. अभी फिर सऊदी ने अमेरिका से 8 खरब रुपयों की एक डील की है. इस रकम के बदले अमेरिका सऊदी को लड़ाकू विमान और मिसाइल देगा. हम पढ़ते आए हैं कि हथियार सौदों से रिश्ते बनते-बिगड़ते हैं. कि हथियारों की खरीद विदेश नीति भी तय कर देती है. ऐसी घटनाएं सबूत हैं कि हथियारों की खरीद-फरोख्त से अंतरराष्ट्रीय घटनाक्रम तय होते हैं. ट्रंप खुश हैं कि हथियारों की बिक्री से अमेरिका में पैसा आ रहा है. ट्र्रंप जब से राष्ट्रपति बने हैं, तब से अमेरिका और सऊदी की दोस्ती बढ़ी है. इसकी सबसे बड़ी वजह ईरान है. ईरान को न तो ट्रंप पसंद करते हैं और न सऊदी. पसंद-नापसंद से ऊपर ईरान से इनकी दुश्मनी है. पुरानी कहावत है कि दुश्मन का दुश्मन दोस्त होता है. दुश्मनी और फायदे के आगे स्वघोषित 'मानवाधिकार दूत' अमेरिका सारे ह्यूमन राइट्स भूल जाता है.

अमेरिका स्वघोषित मसीहा है. वो खुद को मानवाधिकार का रक्षक कहता है. फिर भी वो सऊदी को हथियार बेचता है. उन हथियारों से आबादी पर हमले होते हैं. दूसरी तरफ नॉर्वे जैसे देश हैं. जनवरी 2018 में नॉर्वे ने ऐलान किया कि वो अब UAE को हथियार नहीं बेचेगा. क्योंकि UAE यमन की लड़ाई में शामिल है और इसकी वजह से यमन में मानवीय संकट पैदा हो गया है. नॉर्वे ने देर से फैसला लिया. लेकिन लिया तो. ऐसे कितने देश हैं दुनिया में, जो अपना नुकसान सहकर इंसानियत की बात करें (फोटो: AP)
यमन की लड़ाई का मतलब? दुनिया के मानचित्र पर यमन जहां है, वो बहुत अहम है. बाब अल-मंडाब जलसंधि. ये एक पतला रास्ता है, जो कि रेड सी को अदन की खाड़ी से जोड़ता है. ये स्वेज नहर और हिंद महासागर के बीच का लिंक है. दुनिया में समंदर के रास्ते कच्चे तेल का जो कारोबार होता है, उसका एक बड़ा हिस्सा इसी रास्ते से होकर आता-जाता है. हूती विद्रोहियों ने कई बार इस पर हमला किया. इस रास्ते को कोई नुकसान हुआ या ये बंद हुआ, तो सबके ऊपर असर पड़ेगा. ये तो आर्थिक पहलू है. इससे ज्यादा बड़ा है राजनैतिक और मानवीय पहलू. मिडिल-ईस्ट में पिछले लंबे समय से लगातार हिंसा जारी है. मिस्र, लीबिया, लेबनन, सीरिया, इराक, यमन सब डिस्टर्ब हैं. कहीं आतंकवाद, कहीं गृह युद्ध, कहीं युद्ध. सबका अपना-अपना रोना है. इस सब में सबसे ज्यादा पिस रहे हैं आम लोग. यमन से कई सारी तस्वीरें आती हैं. सूखे-सूखे कुपोषित बच्चे. ऐसी हालत में कि पोषण न मिला, तो मर जाएंगे. 80 लाख से ज्यादा लोग यहां भूखे मरने की नौबत में हैं. जंग बढ़ी है, तो इनकी संख्या भी बढ़ेगी. जंग शुरू होने के बाद से ही यमन से लगातार खबरें आती रही हैं. कि पैसे के लिए लोग बच्चे बेच रहे हैं. संयुक्त राष्ट्र ने इसे सबसे बड़ी मानवीय आपदाओं में से एक बताया था.

यमन इस्लामिक आबादी का देश है. रमजान के महीने में लोग रोजा रखते हैं. रोजा खोलने के लिए इफ्तार किया जाता है. इफ्तार के लिए खाना चाहिए. खाने की भयंकर कमी है यहां. लोग भूखों मर रहे हैं. ये लोग इफ्तार का खाना लेने के लिए लाइन लगाकर खड़े हैं. यहां कोई खैरात में खाना बांट रहा है. सऊदी और ईरान, दोनों खुद को मुसलमानों का नुमाइंदा कहते हैं. उन्हें खुद से सवाल पूछना चाहिए. कि यहां के लोगों को इतनी बदहाली में लाकर छोड़ने के पीछे क्या सबसे बड़ी वजह उनकी आपसी लड़ाई नहीं है (फोटो: रॉयटर्स)
ईरान कमजोर पड़ रहा है? ईरान दुनिया में इस्लामिक क्रांति (शिया) फैलाना चाहता है. इसका निर्यात करना चाहता है. उधर सऊदी वहाबी तौर-तरीके फैलाना चाहता है. दोनों के बीच का संघर्ष सांप्रदायिक और राजनैतिक दोनों है. इनकी आपसी लड़ाई का ग्राउंड लगातार फैलता जा रहा है. लेबनन. कतर. सीरिया. यमन. ईरान इस लड़ाई में कमजोर हो रहा है. क्योंकि सऊदी के साथ न केवल अमेरिका है, बल्कि इजरायल भी उसके साथ आ गया है. सीरिया में बशर अल-असद के साथ लड़ते हुए ईरान के साथ रूस था. अब सीरिया की जंग खत्म हो चुकी है. इजरायल और सऊदी, दोनों नहीं चाहते थे कि ईरान सीरिया में मौजूद रहे. सीरिया की जंग खत्म होने के बाद इजरायल की कोशिशें कामयाब होती दिख रही हैं. रूस और इजरायल करीब आ गए हैं. रूस और ईरान दूर होते दिख रहे हैं. आप मिडिल-ईस्ट का नक्शा देखिए. सीरिया के पश्चिम में लेबनन है. नीचे की तरफ का हिस्सा (थोड़ा पश्चिमी और थोड़ा दक्षिणी) इजरायल को छूता है. पूरब में इराक है. और इराक की सीमा सटी है ईरान से.

ये बाहरी नहीं हैं. यमन के ही हैं. युद्ध ने इनको इस हालत में ला छोड़ा है. घर-बार, रोजी-रोटी सब गंवाकर कैंप में नरक की जिंदगी जी रहे हैं (फोटो: रॉयटर्स)
यमन में लोग मरते हैं तो मरें, किसको फर्क पड़ता है! लेबनन वाले मोर्चे को मजबूत रखने के लिए ईरान को सीरिया चाहिए. यमन तक पहुंचने के लिए ईरान के पास समंदर है. फारस की खाड़ी होते हुए गल्फ ऑफ ओमान और फिर अदन की खाड़ी वाले रूट से. इसके लिए जरूरी है कि यमन के हूती विद्रोहियों के पास बंदरगाह चाहिए. हूतियों के पास बस हुदैदा बंदरगाह है. ये हाथ से निकलने पर हूती और ईरान, दोनों कमजोर होंगे. उधर इजरायल ईरान को अपनी सीमा से धकेलना चाहता है. इसके लिए उसने रूस को राजी भी कर लिया है. क्योंकि रूस ने कहा है. कि वो चाहता है कि ईरान की फौज सीरिया में बस गोलन हाइट्स के पास रहे. इजरायल के उत्तर से सटी सीमा के पास मौजूद न हो. इन बदले रिश्तों के बीच अब यमन के अंदर तेज हुई है. ये ईरान के लिए अच्छी खबर तो कतई नहीं है.
ऐसा लग रहा है कि ईरान के सारे दुश्मन उसके खिलाफ एकजुट हो गए हैं. दोस्त बहुत ज्यादा हैं नहीं ईरान के. वैसे ये उम्मीद तो नहीं है कि पुतिन पूरी तरह से ईरान से किनारा करें. क्योंकि अफगानिस्तान में रूस फिर से सक्रिय हुआ है. वो तालिबान के साथ संपर्क में है. अफगानिस्तान के लिए रूस को ईरान की जरूरत है. समीकरण तो बनते रहेंगे. फिलहाल सबसे बुरी स्थिति है ये यमन के लोगों के लिए. जो या तो मर रहे हैं, या भुगत रहे हैं. किसी को उनकी नहीं पड़ी है जैसे. मर रहे हैं, तो मरें. भाव यही है दुनिया का.

ये नवंबर 2017 की फोटो है. एक भयंकर तरीके से कुपोषित बच्चा बिस्तर पर पड़ा है. संयुक्त राष्ट्र का कहना है कि यमन में करीब 80 लाख लोगों के ऊपर भुखमरी का खतरा मंडरा रहा है. युद्ध तेज हुआ, तो प्रभावित लोगों की तादाद और बढ़ेगी. सबसे ज्यादा चपेटे में आएंगे छोटे बच्चे. और औरतें (फोटो: रॉयटर्स)

ये जून, 2018 की तस्वीर है. जो दिख रहा है तस्वीर में, वो सना का एक हिस्सा है. ये हवाई हमले के बाद हुआ है. लोग आस-पास से गुजर रहे हैं. जंग उनकी रोजमर्रा की जिंदगी का हिस्सा है अब. जंग से भी ज्यादा उनकी आदतों में शुमार है भूख और बीमारी (फोटो: रॉयटर्स)

ये होदैदा बंदरगाह है. हूती विद्रोहियों के कब्जे का इकलौता पोर्ट. यमन की करीब दो-तिहाई आबादी अपने खाने और बाकी बुनियादी चीजों की सप्लाई के लिए इसी बंदरगाह पर निर्भर करती है. सऊदी के कब्जे में आने के बाद क्या वो इसका इस्तेमाल विद्रोहियों पर दबाव बनाने के लिए नहीं करेगा? रसद की सप्लाई रोककर? सऊदी वैसे भी आम आबादी और रिहायशी इलाकों को निशाना बनाता आया है यहां (फोटो: रॉयटर्स)
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