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कॉन्गो की बर्बादी की पूरी कहानी

खनिज संपदा में दुनिया के सबसे अमीर देश कॉन्गो में हिंसक ख़ून-ख़राबे क्यों हैं?

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DRC के बच्चों और औरतें को बंधुआ मज़दूरों की तरह ख़तरनाक खदानों में खटाया जाता है. (तस्वीर: एएफपी)
शुरुआत मिर्ज़ा ग़ालिब के एक शेर से. जनाब लिख गए हैं-
हुई मुद्दत कि 'ग़ालिब' मर गया पर याद आता है वो हर इक बात पर कहना कि यूं होता तो क्या होता....
यूं होता, तो क्या होता. आज जिस देश का क़िस्सा बता रही, वहां यही सवाल सबसे मौजूं है.
एक ब्रीफ प्रोफाइल समझिए. मैं ये लेख एक लैपटॉप पर लिख रहा हूं. आप इसे किस उपकरण पर देख रहे हैं? स्मार्टफ़ोन? लैपटॉप?
इन सभी उपकरणों में लिथियम-अयॉन रिचार्जेबल बैटरी इस्तेमाल होती है. इस धरती पर इस श्रेणी की जितनी बैटरियां हैं, उन सबमें एक चीज कॉमन है- कोबाल्ट. ये एक ट्रांज़िशन मेटल है, जो धरती के भीतर एक रासायनिक अवस्था में पाया जाता है. ये कोबाल्ट न हो, तो शायद मैं न विडियो शूट कर सकूंगा. न शायद आप ये विडियो देख सकेंगे.
बहुत मुमकिन है कि हमारे इन उपकरणों में इस्तेमाल हुए कोबाल्ट का सोर्स, उसका कंट्री कोड एक ही हो- प्लस 243. ये कंट्री कोड वहां का है, जहां दुनिया का 60 पर्सेंट से ज़्यादा कोबाल्ट पाया जाता है. जो प्राकृतिक संसाधनों में इस ग्रह का सबसे अमीर मुल्क है. वहां 1,738 लाख करोड़ से ज़्यादा क़ीमत के खनिज संसाधन ज़मीन में अनछुए दबे हैं. ये इतनी बड़ी रकम है कि इसमें रिलायंस जितनी करीब 144 कंपनियां आ जाएंगी. ऐसा बमुश्किल ही कोई मिनरल हो, जो इस देश में न मिलता हो. तांबा, गोल्ड, कोल्टान, ज़िंक, टिन, टंगस्टन, डायमंड. सबका भंडार है यहां.
होने को ये मुल्क सबसे अमीर देशों में एक हो सकता था. मगर, ऐसा हुआ नहीं. उसकी संपदा उसका अभिशाप बन गई. इसी संपदा के चलते वो ग़ुलाम बना. उसकी आबादी ग़ुलामों की तरह ख़रीदी-बेची गई. आज़ादी मिली, तो तानाशाही आ गई. सिविल वॉर छिड़ गया. ढेर सारे हिंसक संगठन बन गए. दिन-रात बस मारकाट. 60 लाख से ज़्यादा लोग मारे गए. लाखों बेघर, बेवतन हुए. इन सबसे लोग उबरे भी नहीं थे कि इस्लामिक आतंकवादियों ने यहां घर बना लिया. और आज की तारीख़ में इस देश की पहचान है-
दूसरे विश्व युद्ध के बाद सबसे रक्तरंजित संघर्ष वाला देश. युद्ध और घरेलू संघर्ष में सबसे ज़्यादा मृतकों वाला देश. वो देश, जहां एक भी पक्की सड़क नहीं है. वो देश, जहां सबसे ज़्यादा बलात्कार होते हैं. वो देश, जहां आठ-नौ बरस के बच्चे भी हथियारबंद हत्यारे बना दिए जाते हैं.
बीते रोज़ यहीं से एक हमले की ख़बर आई. इसमें इटली के राजदूत समेत तीन लोग मारे गए. ये पूरा मामला क्या है, विस्तार से बताते हैं.
United Nations Missions In Congo
कॉन्गो में हुए हमले में इटली के राजदूत सहित 3 लोग मारे गए हैं. (तस्वीर: एपी)


ये कहानी है कॉन्गो की
पूरा नाम- डेमोक्रैटिक रिपब्लिक ऑफ़ दी कॉन्गो. शॉर्ट में, DRC. सेंट्रल अफ्रीका में बसे DRC को आप दुनिया का एक फेफड़ा भी कह सकते हैं. वजह, यहां के रेनफॉरेस्ट. दुनिया में जितने उष्णकटिबंधीय जंगल बचे हैं, उनका साढ़े 12 पर्सेंट इलाका DRC में पड़ता है.
आप सोचेंगे, DRC कहने से तो अच्छा कॉन्गो कहा जाए. नहीं, इस देश को केवल कॉन्गो नहीं कहा जा सकता. क्योंकि दुनिया में एक नहीं, दो कॉन्गो हैं. एक है ये DRC. दूसरा उसका पड़ोसी, रिपब्लिक ऑफ़ दी कॉन्गो. इन दोनों देशों को एक प्राकृतिक सरहद बांटती है. इसका नाम है- कॉन्गो रिवर. मध्य और पश्चिमी अफ्रीका में बहने वाली कॉन्गो रिवर दुनिया की सबसे गहरी नदी है. प्रचलित मान्यता के मुताबिक, इस नदी को अपना नाम मिला है 'बाकोन्गो' नाम के एक स्थानीय कबीले से. बाकोन्गो भाषा में एक शब्द है- एनकोन्गो. इसका मतलब होता है, जांबाज शिकारी. माना जाता है कि इसी शब्द पर पहले नदी का नामकरण हुआ. और नदी की पहचान के साथ गुंथे होने के चलते दोनों कॉन्गो देशों ने अपना नाम पाया.
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लाल घेरे में DRC, दुनिया का करीब साढ़े 12 फीसद उष्णकटिबंधीय जंगल DRC में है. (तस्वीर: गूगल मैप्स)


इस ब्रीफ नक्शेबाज़ी के बाद अब अपने मुख्य प्लॉट DRC का मुकम्मल नक्शा देखते हैं. इसके उत्तरपूर्व में है, साउथ सूडान. पूरब में हैं- युगांडा, रवांडा, बुरुंडी और तंजानिया. दक्षिण में ज़ाम्बिया. दक्षिण-पश्चिम में अंगोला. और, पश्चिम में हमनाम- रिपब्लिक ऑफ़ दी कॉन्गो.
DRC का आधुनिक राजनैतिक इतिहास शुरू हुआ 13वीं सदी में. तब यहां एक साम्राज्य शुरू हुआ. नाम था- कोन्गो. ये किंगडम ऑफ कोन्गो मौजूदा अंगोला से लेकर DRC तक फैला था. इसके राजा कहलाते थे- मनिकोन्गो. ख़ूब ताकतवर होते थे. अपनी आबादी पर पूरी पकड़ होती थी इनकी. इन्होंने अपने साम्राज्य को छोटे-छोटे इलाकों में बांटा हुआ था. इन इलाकों के सरदार मनिकोन्गो को लगान देते थे.
फिर आई 15वीं सदी
साम्राज्यवाद का दौर. सभी कोलोनियल ताकतें कच्चे माल और ग़ुलामों की तलाश में नए-नए इलाके खोज रही थीं. इन खोजों के लिए ये देश अपने ज़हाज़ियों को सुदूर समुद्री यात्रा पर भेजा करते थे. ऐसा ही एक कोलोनियल पावर था, पुर्तगाल. उसके एक जहाज़ी थे, डियोगो काओ. 1482 में तकरीबन 8,000 किलोमीटर की यात्रा के बाद वो पहुंचे वहां, जहां कॉन्गो नदी का मुंह है. भूगोल की भाषा में रिवर माउथ वो इलाका होता है, जहां नदी समंदर में मिलती है. कॉन्गो रिवर का माउथ पड़ता है DRC में. यहीं पर ये नदी अटलांटिक ओशन में जाकर मिल जाती है. डियोगो यहां पहुंचने वाले पहले यूरोपियन थे. ज़ाहिर है, उन्होंने बस नदी नहीं खोजी. इसके किनारे बसे देशों को भी खोजा. ये जगह खनिज संसाधनों से अटी है, ये भी पता लगाया.
यहां कारोबार करने के लिए राजा को भरोसे में लेना ज़रूरी था. क्योंकि राजा की अथॉरिटी थी जनता पर. इसीलिए पुर्तगालियों ने राजा से नज़दीकी बढ़ाई. इसका पहला बड़ा औज़ार बना- धर्म. पुर्तगालियों ने राजा और उसके बेटे को ईसाई बना दिया. आबादी का भी ईसाईकरण होने लगा. पुर्तगाल के राजा ख़ुद मनिकोन्गो को क़ीमती तोहफ़े भिजवाते. राजा ख़ुश होकर पुर्तगालियों को व्यापार की खुली छूट देता. कारोबार बस तांबे जैसे धातुओं तक सीमित नहीं रहा. बड़ी संख्या में यहां के कबीलाई भी ग़ुलाम बनाकर बेचे जाने लगे.
ये व्यवस्था करीब डेढ़ सौ सालों तक चली. इसके बाद 17वीं सदी में कई और यूरोपियन्स पावर्स भी यहां आने लगे. इनमें प्रमुख थे- अंग्रेज़, डच और फ्रेंच. सबको संसाधनों में हिस्सेदारी चाहिए थी. इसके चलते लूटख़सोट होने लगी. पुर्तगालियों के संसाधन सिकुड़ने लगे. 1665 में उन्होंने कोन्गो एंपायर पर हमला कर दिया. कल तक जिस राजा को पुर्तगाली क्राउन तोहफ़े भिजवाता था, उसी राजा का सिर काटकर चर्च में लटका दिया गया. इसके साथ ही कोन्गो एंपायर का भी ख़ात्मा हो गया.
अब DRC की स्थिति हो गई- केक कटेगा, सबमें बंटेगा
ये सिस्टम कमोबेश 19वीं सदी के एक लंबे हिस्से तक चला. यूरोपियन देश DRC समेत समूचे कॉन्गो बेसिन पर कब्ज़ा करना चाहते थे. 1880 के दशक में आकर इसमें बढ़त मिली बेल्ज़ियम को. उसके राजा ने बाकी यूरोपियन पावर्स से कहा कि हमको DRC का कंट्रोल लेने दो. हम उसकी आबादी का उद्धार करना चाहते हैं. वहां परोपकार और मानवीय उत्थान के कार्य करना चाहते हैं. इस कंट्रोल के बदले बाकी यूरोपियन पावर्स को DRC में बिना टैक्स कारोबार की छूट दी गई. इसी व्यवस्था के तहत 1885 में गठित हुआ- कॉन्गो फ्री स्टेट. इसको समझिए, एक प्राइवेट कंपनी. जिसके मालिक थे, बेल्ज़ियम के किंग लियोपोल्ड द्वितीय.
कॉन्गो फ्री स्टेट के बस नाम में ही फ्री था. हालत उसकी ग़ुलामों से बदतर थी. कागज़ी तौर पर इसके गठन का मकसद था, ग़ुलामी प्रथा का ख़ात्मा. मगर असलियत में इसकी मंशा थी- रबड़ और हाथी दांत चुराना. 19वीं सदी के आख़िरी दशक में साइकिल और ऑटोमोबिल इंडस्ट्री में बूम आया. इसके पहियों के लिए रबड़ चाहिए था. बेल्ज़ियम राजशाही ने कॉन्गो को रबड़ उगाने में झोंक दिया. कैसे?
Rubber Terror Congo
द्रव्यनुमा रबड़ को कॉन्गो के शरीर पर चपोड़ दिया जाता.


ये रबड़ मिलता था, DRC के जंगलों में. यहां लोगों से पेड़ की छाल उतरवाई जाती. उससे निकले द्रव्यनुमा रबड़ को उनके शरीर पर चपोड़ दिया जाता. वो द्रव्य सूखता, तो उसे पपड़ी की तरह शरीर से नोच लिया जाता. सोचिए, कितनी निर्मम प्रक्रिया थी. मगर अमानवीयता इतनी ही नहीं थी. हर गांव और कबीले के लिए रबड़ सप्लाई का एक कोटा तय था. लोग भूखे-प्यासे जंगलों में रबड़ निकालते रहते. कोटा पूरा नहीं कर पाते, तो राजा के मातहत लोगों के हाथ और कान काट देते. मारते नहीं, क्योंकि मारने में गोलियां ख़र्च होतीं. और उन गोलियों को समंदर के रास्ते DRC लाने में लागत आती.
'कॉन्गो फ्री स्टेट' का ये सिस्टम 1908 में भंग हुआ. अब बेल्ज़ियम की पार्लियामेंट ने कॉन्गो का प्रभार अपने पास ले लिया. अब DRC बेल्ज़ियम की आधिकारिक कॉलोनी थी. इस ग़ुलामी से DRC को आज़ादी मिली, ठीक 52 साल बाद 1960 में. ये आज़ादी अपने साथ अलग क़िस्म की दुर्दशा लाई. तुरंत ही DRC में सिविल वॉर छिड़ गया. इसकी एक बड़ी वजह थी, DRC का मिलिशिया कल्चर. कोलोनियल पीरियड से ही यहां कई कबीलाई मिलिशिया ग्रुप्स थे. बेल्ज़ियम ने तो इन्हें पैरामिलिटरी फोर्स जैसी शक्ल भी दे दी थी. इसके लड़ाके बेल्ज़ियम के लिए लोकल वसूली एजेंट और हत्यारों का काम करते थे.
आज़ाद होने के बाद भी मिलिशिया ग्रुप्स का ये कल्चर गया नहीं
ये ऑपरेट करते रहे. इन्हीं के एक बड़े हिस्से को एकजुट करके अपनी सेना बनाई, मोबुतु सेसे सेको ने. कौन था ये आदमी? ये DRC की आज़ादी के बाद गठित पहली कैबिनेट में सेक्रेटरी ऑफ़ स्टेट था. उसे देश का आर्मी चीफ़ ऑफ स्टाफ भी बनाया गया. इसी मोबुतु सेसे ने नवंबर 1965 में अपनी प्राइवेट आर्मी के बूते DRC में तख़्तापलट करके सत्ता हथिया ली. उसकी तानाशाही 32 साल चली. इस दौर में मोबुतु ने देश का नाम बदलकर रख दिया- ज़ाइर.
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मोबुतु सेसे सेको. (तस्वीर: एपी)


कैसी थी मोबुतु की सत्ता?
इस पूरे दौर में भी DRC के मिलिशिया लगातार हिंसा करते रहे. मोबुतु ख़ुद भी बेहद क्रूर और भ्रष्ट था. उसने देश के प्राकृतिक संसाधन को अपने फ़ायदों के लिए लूटा. टॉर्चर और हत्याओं के दम पर उसने डर का साम्राज्य बनाया. चूंकि मोबुतु ऐंटी-कम्युनिस्ट था, सो अमेरिका जैसे वर्ल्ड पावर्स ने भी उसकी क्रूरताओं पर भवें नहीं सिकोड़ीं.
मोबुतु की तानाशाही ख़त्म हुई 1997 में. डिक्टेटरशिप के ख़ात्मे के फ़ौरन बाद यहां सिविल वॉर शुरू हो गया. इसमें DRC के दर्जनों मिलिशिया ग्रुप्स के अलावा आठ बाहरी देश भी शामिल थे. चूंकि DRC में हीरा, सोना और बाकी धातुओं की खदानें थीं, सो मिलिशिया ग्रुप्स को पैसों की भी कमी नहीं थी. वो ब्लैक मार्केट में खनिज बेचते. सफ़ेदपोश कारोबारी ब्लैक मार्केटिंग से आए मिनरल्स को वर्ल्ड मार्केट में सफ़ेद बना देते.
DRC का ये सिविल वॉर दूसरे विश्व युद्ध के बाद दुनिया में हुआ सबसे हिंसक संघर्ष था. छह साल तक चले गृह युद्ध में कितनी लाशें गिरीं, किसी ने नहीं गिनीं. मोटा-माटी अनुमान है कि इस दौरान 60 लाख से ज़्यादा लोग मारे गए. और तकरीबन 50 लाख लोग बेघर हो गए.
वर्ल्ड पावर्स की दखलंदाज़ी से 2003 में सिविल वॉर ख़त्म हुआ. 2006 में निष्पक्ष चुनाव करवाए गए. इसमें जीतकर राष्ट्रपति बने जोसफ़ काबीला. उनके पिता लॉरेंट काबीला सिविल वॉर के समय देश के राष्ट्रपति थे. 2001 में उनकी हत्या के बाद से ही जोसफ़ इस पद पर थे. 2006 के चुनाव में बस इतना हुआ कि उनकी सत्ता को निर्वाचित होने की मुहर मिल गई.
Joseph Kabila
जोसफ़ काबीला. (तस्वीर: एपी)


क्या इसके बाद DRC की हालत सुधरी?
नहीं. काबीला की सत्ता भी अपने पूर्ववर्तियों की तरह थी. ऐसी सत्ता, जो अपनी ही जनता को चबाकर, लूट-खसोटकर खा जाती है. क़ानून-व्यवस्था का नामो-निशान नहीं. पब्लिक सर्विस नदारद. पूरे देश में मिलिशिया का आतंक. संसाधनों की नोच-खसोट. कोई ठीक से काम करने की कोशिश करता, तो मारा जाता. मसलन एक दफ़ा एक जज ने एक पॉलिटिकल लीडर के खिलाफ़ फ़ैसला सुनाया. लीडर के गुंडों ने गुस्से में जज के घर में घुसकर उनकी पत्नी और बेटी से गैंगरेप किया. किसी को कोई सज़ा नहीं हुई.
जोसफ़ काबीला असंवैधानिक तरीके से 2018 तक राष्ट्रपति बने रहे. दिसंबर 2018 में बड़ी जद्दोजहद के बाद यहां राष्ट्रपति चुनाव हुआ. हालांकि ये इलेक्शन भी गड़बड़ ही था. इसमें जीतकर नए राष्ट्रपति बने फीलिक्स चीशेकेदी. उन्हें सरकार बनाने के लिए पूर्व प्रेज़िडेंट जोसफ़ काबीला से गठबंधन करना पड़ा. इस गठबंधन में फिलहाल खींचातनी चल रही है. देश के हालात में भी फिलहाल कोई सुधार नहीं है. नीम पर करेला ये है कि अब इस्लामिक स्टेट जैसे आतंकवादी संगठनों ने भी यहां पैठ बना ली है. वो भी नोच-खसोट और हिंसा में बड़े भागीदार बन गए हैं.
Felix Tshisekedi
2018 में कॉन्गो के नए राष्ट्रपति बने फीलिक्स चीशेकेदी. (तस्वीर: एपी)


आज ये इतिहास क्यों बता रहे हैं?
इसकी वजह है बीते रोज़ DRC से आई एक हमले की ख़बर. ये वारदात नॉर्थ कीवू प्रांत स्थित गोमा शहर के नज़दीक हुई. 22 फरवरी को WFP, यानी 'वर्ल्ड फूड प्रोग्राम' की दो गाड़ियां यहां से गुज़र रही थीं. WFP, यूनाइटेड नेशन्स की एक ब्रांच है. इसका मकसद है, संघर्ष प्रभावित इलाकों में गरीबों और वंचितों को भोजन मुहैया कराना. इसी प्रोग्राम के तहत ये काफ़िला एक स्कूल जा रहा था.
रास्ते में छह हथियारबंद हमलावरों ने इन्हें घेर लिया. इन्होंने काफ़िले को रोकने के लिए कुछ वॉर्निंग शॉट्स दागे. फिर इन्होंने दोनों गाड़ियों में बैठे लोगों को नीचे उतारा. उन्हें किडनैप करके नज़दीकी विरुंगा नैशनल पार्क ले जाने लगे. इसी वक़्त नैशनल पार्क में गश्त कर रहे रेंजर्स ने इन्हें देखा. उन्होंने हमलावरों को रोकने की कोशिश की. भागने के क्रम में अटैकर्स ने काफ़िले पर अंधाधुंध फ़ायरिंग की. इसमें तीन लोग मारे गए. इनमें DRC में पोस्टेड इटैलियन राजदूत लुका अटैनसियो भी शामिल थे. लुका के अलावा उनके बॉडीगार्ड और ड्राइवर की भी मौत हो गई. 1993 में फ्रेंच राजदूत फिलिपे बरनार्ड की हत्या के बाद ये पहली वारदात है, जब DRC में किसी ऐम्बेसडर की हत्या हुई हो.
Luca Attanasio
कॉन्गो में इटली के राजदूत लुका अटैनसियो की हत्या कर दी गई है. (तस्वीर: एपी)


किसने की ये हत्या?
फिलहाल इसकी जिम्मेदारी किसी ने नहीं ली है. मगर आंतरिक मंत्रालय ने इसके पीछे 'डेमोक्रैटिक फोर्सेज़ फॉर द लिबरेशन ऑफ़ रवांडा' का हाथ बताया है. ये हुतु समुदाय से जुड़ा एक विद्रोही गुट है. UN पीसकीपिंग मिशन के तहत हमारी भारतीय फोर्सेज़ ने भी इस संगठन से लंबी लड़ाई लड़ी है.
Democratic Forces For The Liberation Of Rwanda
डेमोक्रैटिक फोर्सेज़ फॉर द लिबरेशन ऑफ़ रवांडा के लड़ाके. (तस्वीर: एएफपी)


लुका अटैनसियो वारदात के समय दक्षिणी DRC में सफ़र कर रहे थे. ये देश का सबसे असुरक्षित इलाका है. यहां बस DRC के मिलिशिया ग्रुप्स ऐक्टिव नहीं हैं. रवांडा, बुरुंडी, सेंट्रल अफ्रीकन रिपब्लिक और युगांडा जैसे पड़ोसी देशों के भी दर्जनों मिलिशिया ग्रुप्स का डेरा है यहां. ऐसे में ऐम्बेसडर अटैनसियो के साथ कड़ी सुरक्षा का न होना, बड़ी सुरक्षा चूक है.
DRC में UN और बाकी मानवाधिकार एजेंसियों को जान पर खेलकर काम करना पड़ता है. हमलावर दवाई और खाना लेकर जा रहे उनके काफ़िलों को भी नहीं बख़्शते. UN पर हुए हमले का सबसे कुख़्यात एपिसोड 18 सितंबर, 1961 का है. इस रोज़ UN के तत्कालीन सेक्रेटरी जनरल डैग हारमासोल्ड एक शांति वार्ता के लिए DRC जा रहे थे. आधी रात के करीब उनका प्लेन क्रैश हो गया. हारमासोल्ड समेत विमान पर सवार 15 लोग तत्काल मारे गए. ये प्लेन क्रैश कैसे हुआ, ये आज भी मिस्ट्री है.
Dag Hammarskjold
1961 में UN के तत्कालीन सेक्रेटरी जनरल डैग हारमासोल्ड. (तस्वीर: एएफपी)


शुरुआत में कहा गया कि DRC के मिलिशिया फोर्स ने विमान गिराया. फिर इसमें पश्चिमी ख़ुफिया एजेंसियों की मिलीभगत की भनक मिली. हारमासोल्ड कोलोनियल पावर्स को अफ्रीकी देशों से निकालने के पक्षधर थे. कहते हैं, शायद इसीलिए उनकी हत्या कराई गई. 2019 में UN ने अपनी एक रिपोर्ट में भी इसका ज़िक्र किया. इसमें कहा गया कि ब्रिटेन, रूस, दक्षिण अफ्रीका और अमेरिका, इन चारों देशों के पास इस विमान हादसे की अहम जानकारी है. मगर ये इस जानकारी को दबाए बैठे हैं.
वापस लौटते हैं, DRC पर
दुनिया में उसके जैसी मिसाल बहुत कम है. वो सदियों से लगातार तबाह होता आया है. ख़ून-ख़राबा, शोषण, भुखमरी, उससे नत्थी हो गए हैं. सबसे वीभत्स ये है कि उसको बर्बाद करने वाले हत्यारे उसी के संसाधनों से अपनी फंडिंग करते हैं.
इस बर्बादी के सप्लाई चेन में हमारी भी भागीदारी है. रिपोर्ट्स के मुताबिक, हमारे गैजट्स में लगने वाला कोबाल्ट और बाकी धातु DRC की जिन खदानों से आता है, उसका एक बड़ा हिस्सा ब्लैक मार्केट से ऑपरेट होता है. इस मार्केट में मिलिशिया ग्रुप्स की भी हिस्सेदारी है. ये संगठन मिनरल्स निकलवाते हैं किससे? DRC के बच्चों और औरतें से. जिन्हें रेप और टॉर्चर के सहारे बंधुआ मज़दूरों की तरह ख़तरनाक खदानों में खटाया जाता है. वो नंगे हाथों से टॉक्सिक मटीरियल निकालते हैं. कभी इससे होने वाली बीमारियों से मरते हैं. तो कभी खदान में दबकर मर जाते हैं.
Cobalt Mine Workers
कॉन्गो के लोग नंगे हाथों से टॉक्सिक मटीरियल निकालते हैं और इनसे होने वाली बीमारियों से मरते हैं. (तस्वीर: एपी)


माइनिंग कंपनियां भी इस शोषण में शामिल हैं. इनमें सबसे आगे हैं चीनी कंपनियां. इनके पास DRC के माइन्स का बड़ा ठेका है. इंटरनैशनल मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक, ये कंपनियां भी पांच-छह साल के बच्चों से मज़दूरी करवाकर सस्ते में खनिज हासिल करती हैं. और उसे बड़ी-बड़ी इलेक्ट्रॉनिक कंपनियों को मोटे मुनाफ़े पर बेच देती हैं. मतलब बाहरी से लेकर भीतरी तक, हर कोई DRC को बर्बाद करने में लगा है.