AMU; पूरा नाम अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी. उत्तर प्रदेश के अलीगढ़ मे मौजूद ये यूनिवर्सिटी अक्सर विवादों में रही है. कभी मोहम्मद अली जिन्ना की तस्वीर लगाने को लेकर तो कभी इसके माईनॉरिटी स्टेटस को लेकर. AMU के माईनॉरिटी स्टेटस को लेकर ही सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई चल रही है. इसी बहाने आज आसान भाषा में आपको बताएंगे
अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी का क्या होगा? सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई में क्या पता चला?
AMU के अल्पसंख्यक दर्जे का मुद्दा कई दशकों से कानूनी पेंच में फंसा है. बात शुरू होती है 60 के दशक से. साल था 1967, जब सुप्रीम कोर्ट में एक केस चल रहा था 'अज़ीज़ बाशा बनाम भारत सरकार'. ये केस AMU के माइनॉरिटी स्टेटस की वैधानिकता से जुड़ा था.
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-AMU का इतिहास क्या है ?
-माइनॉरिटी institution किसे कहते हैं ?
-AMU के माइनॉरिटी स्टेटस को लेकर क्या विवाद है ?
-AMU पर सुप्रीम कोर्ट में चल रहा हालिया मामला क्या है, दो दिनों में सुप्रीम कोर्ट में क्या बहस हुई?
शुरुआत इतिहास से. भारत में एक जाने-माने मुस्लिम स्कालर हुए, नाम था सर सैयद अहमद खान. सर सैयद अहमद खान का जन्म दिल्ली 17 अक्टूबर 1817 को मुग़ल भारत में हुआ था. उनके परिवार का मुग़ल दरबार में दबदबा था. सर सैयद अहमद खान ने कुरान और साइंस दोनों की शिक्षा ली थी. उन्हें परंपरा और विज्ञान, दोनों को साथ लेकर चलने से कोई गुरेज नहीं था. उन्हें ये भी समझ आ रहा था कि अब मुग़ल सल्तनत की ताकत घाट रही है इसलिए उन्होंने ईस्ट इंडिया कंपनी में एक क्लर्क के तौर पर काम करना शुरू कर दिया. यहां काम करने के दौरान उन्हें भारतीयों और अंग्रेजों में एक बुनियादी फर्क देखा. उन्होंने देखा कि किस तरह अंग्रेजों ने अपने ईसाई धर्म को बरकरार रखते हुए आधुनिकता को भी अपनाया. उनका मानना था कि मुस्लिमों के पिछड़े होने का सबसे बड़ा कारण उनमें शिक्षा की कमी है.
यहीं से उन्हें भारत में एक ऐसा संस्थान खोलने का विचार आया जिसमें धर्म और विज्ञान, दोनों की शिक्षा दी जाए. और फिर मई 1875 में उन्होंने मुस्लिम-एंग्लो ओरिएंटल MAO, स्कूल की शुरुआत की. इसका मकसद स्टूडेंट्स को पश्चिमी शिक्षा के साथ-साथ विज्ञान की शिक्षा भी देना था. अंग्रेजों के साथ उनकी दोस्ती की वजह से सर सैयद अहमद खान ने अंग्रेजों द्वारा छोड़ी गईं कई खाली इमारतें MAO का विस्तार करने के लिए इस्तेमाल की. और स्कूल को कॉलेज में तब्दील कर दिया.कई साल कॉलेज चलने के बाद 1920 में सरकार ने एक एक्ट पास किया. AMU एक्ट.इसके तहत MAO को यूनिवर्सिटी का दर्जा मिला.और नाम हो गया अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी.
इसी समय भारत में खिलाफत आंदोलन जोर पकड़ रहा था. इस आंदोलन में AMU ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई. इस संस्थान से कई बड़े नाम निकले.मसलन, भारत के फ्रंटियर गांधी कहे जाने वाले अब्दुल गफ्फार खान, नेशनल कांफ्रेंस के नेता शेख अब्दुल्ला, पूर्व राष्ट्रपति डॉक्टर जाकिर हुसैन, पूर्व उपराष्ट्रपति हामिद अंसारी, कलाकार नसीरुद्दीन शाह, और जावेद अख्तर ने भी AMU से ही शिक्षा हासिल की. बाकायदा मालदीव के एक पूर्व राष्ट्रपति मोहम्मद अमीन दीदी भी AMU से पढ़े थे.

आपने इतिहास की बात सुनी.अब देखिए AMU को लेकर ताजा विवाद क्या है. AMU को लेकर सुप्रीम कोर्ट में एक केस चल रहा है. जिसमें ये तय होना है कि AMU के माइनॉरिटी स्टेटस का क्या होगा? पूरा मामला क्या है, इसके लिए पहले जानते हैं, माइनॉरिटी स्टेटस होता क्या है।
भारत के संविधान का आर्टिकल 30 कहता है, भारत में सभी अल्पसंख्यकों (धार्मिक और भाषाई) को अपनी पसंद के शैक्षिक संस्थानों को स्थापित और संचालित करने का अधिकार होगा. और सरकार इनके साथ किसी तरह का भेदभाव नहीं करेगी. चूंकि संस्थानों की बात हो रही है तो सवाल उठता है कि एक माइनॉरिटी इंस्टीटूशन होगा क्या?
इसकी डेफिनेशन हमें मिलती है, National Commission for Minority Education Institution Act से. जिसके अनुसार, माइनॉरिटी इंस्टीटूशन वो होगा, जिसकी स्थापना माइनॉरिटी कम्युनिटी के मेंबर ने की हो, या अल्पसंख्यक समूह का व्यक्ति उसे मेंटेन करता हो. इस मुद्दे पर केरल हाई कोर्ट का एक फैसला भी है. जिसमें कोर्ट ने साफ़ किया था कि किसी इंस्टीट्यूशन को अल्पसंख्यक शिक्षा संस्थान, Minority Educational Institute Status) का दर्जा तभी दिया जाएगा जब वह अल्पसंख्यक समुदाय द्वारा न सिर्फ प्रशासित (Administered) हो बल्कि उसकी स्थापना (Establishment) भी अल्पसंख्यक समुदाय द्वारा की गई हो.
AMU का विवाद क्या है.?
AMU के अल्पसंख्यक दर्जे का मुद्दा कई दशकों से कानूनी पेंच में फंसा है. बात शुरू होती है 60 के दशक से. साल था 1967, जब सुप्रीम कोर्ट में एक केस चल रहा था 'अज़ीज़ बाशा बनाम भारत सरकार'. ये केस AMU के माइनॉरिटी स्टेटस की वैधानिकता से जुड़ा था. इस मामले में बहस शुरू हुई 1920 के एक्ट से. जो तय करता था कि यूनिवर्सिटी का प्रशासन किस तरह चलेगा.आजादी से पहले AMU के मुखिया भारत के गवर्नर जनरल हुआ करते थे. फिर 1951 में हुए बदलाव में इसे चेंज करते हुए भारत के राष्ट्रपति जिसे 'विज़िटर' कहा गया , उसे यूनिवर्सिटी हेड का दर्जा दिया गया.
बाद में एक और प्रावधान लाया गया जिसमें ये कहा गया था कि केवल मुसलमान ही इस यूनिवर्सिटी के बोर्ड का हिस्सा होंगे, हालांकि इसे बाद में हटा दिया गया और गैर-मुस्लिम लोगों को भी जॉइन करने की छूट मिली. AMU की एक गवर्निंग बॉडी होती है. जिसे AMU कोर्ट कहते हैं. इसके अलावा गवर्निंग बॉडी में दो और काउंसिल होती हैं. एग्जीक्यूटिव काउंसिल और अकादमिक काउंसिल.लेकिन AMU एक्ट में वक्त वक्त पर हुए संसोधनों के चलते AMU कोर्ट की ताकत कम होती गई. वहीं एग्जीक्यूटिव काउंसिल ज्यादा ताकतवर होती चली गई. लिहाजा AMU एक्ट में बदलावों के विरोध में सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर कर दी गई.
याचिका में कहा गया कि इस यूनिवर्सिटी को मुस्लिमों ने इस्टैब्लिश किया है लिहाजा इसे चलाने का अधिकार मुस्लिमों के पास ही होना चाहिए. सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले में फैसला देते हुए कहा,
“AMU की स्थापना एक केंद्रीय अधिनियम के माध्यम से की गई थी ताकि सरकार द्वारा उसकी डिग्री की मान्यता सुनिश्चित की जा सके. सुप्रीम कोर्ट ने माना ने कि AMU कभी पूरी तरह से मुस्लिमों के कंट्रोल में नहीं रही. क्योंकि इसके प्रशासन के मुखिया गवर्नर जनरल और अन्य कुछ संस्थाएं थीं.लमसम कहें तो अज़ीज़ बाशा ने AMU को एक माइनॉरिटी इंस्टीट्यूशन मानने से इंकार कर दिया. फैसले का विरोध होना लाजमी था. सो हुआ भी.”
इसके बाद 1981 में सरकार डैमेज कंट्रोल मोड में आई. और सरकार ने AMU एक्ट में एक संशोधन पारित किया. जिसमें कहा गया कि AMU पहले से "भारत के मुसलमानों द्वारा स्थापित उनकी पसंद का एक शैक्षणिक संस्थान" था और "बाद में इसे AMU का रूप दिया गया". इसी संशोधन के तहत ये भी साफ़ कर दिया गया कि AMU माइनॉरिटी इंस्टीटयूट है.
1981 के बाद ये मामला पहुंचता है साल 2005 में. 2005 में AMU में मेडिकल पोस्ट ग्रेजुएशन में 50% सीटें मुस्लिमों के लिए आरक्षित करने का आदेश आया. आरक्षण के विरोध में मामला एक बार फिर कोर्ट पहुंचा.इस बार इलाहाबाद हाईकोर्ट ने अपने फैसले में न सिर्फ आरक्षण रद्द कर दिया.बल्कि 1981 के संसोधन को ही रद्द कर दिया.कोर्ट ने इस मामले में बाशा केस के फैसले का हवाला दिया. यानी एक बार फिर AMU का माइनॉरिटी स्टेटस खतरे में आ गया. मामला एक बार फिर सुप्रीम कोर्ट पहुंचा.हाई कोर्ट के फैसले के खिलाफ आठ याचिकाएं सुप्रीम कोर्ट में दाखिल की गई. जिनमें सरकार की तरफ से दाखिल की गई थी. सुप्रीम कोर्ट में ये मामला चल ही रहा था कि 2014 में सरकार बदल गई. 2016 में केंद्र की NDA सरकार ने याचिका वापिस ले ली. इसके बावजूद सात याचिकाकर्ता और थे. कोर्ट ने इन सब मामलों को मिलाते हुए साल 2019 में सुनवाई शुरू की. लेकिन फिर तीन जजों की बेंच जिसकी अगुवाई खुद चीफ जस्टिस रंजन गोगोई कर रहे थे, उन्होंने इस मामले को 7 जजों की बेंच को ट्रांसफर कर दिया.अब यहां से ये मामला पहुंचता है साल 2024 में.
9 जनवरी को सुप्रीम कोर्ट की सात जजों की बेंच ने इस मामले की सुनवाई शुरू कर दी है. इस बेंच में CJI डी वाई चंद्रचूड़ खुद भी मौजूद हैं. CJI के अलावा जस्टिस संजीव खन्ना, जस्टिस सूर्यकांत, जस्टिस जेबी पारदीवाला,जस्टिस मनोज मिश्र,जस्टिस दीपांकर दत्त, और जस्टिस सतीश चंद्र शर्मा इस मामले की सुनवाई कर रहे हैं. चलिए अब आपको बताते हैं, दो दिन, 9 और 10 जनवरी की सुनवाई में अब तक क्या हुआ?
पहले दिन यानी मंगलवार नौ जनवरी को बहस इस बात पर केंद्रित रही कि अल्पसंख्यक संस्थान की व्याख्या कैसे हो.
वादी की तरफ से पेश होने वाले वरिष्ठ वकील राजीव धवन ने इस मामले पर कोर्ट के सामने आर्टिकल 30 की बात रखी. धवन ने कहा ,
'यह महत्वपूर्ण है कि आप इस सवाल को पहले सुलझाए कि वह क्या है जो किसी को अल्पसंख्यक बनाता है.'
धवन ने दलील आगे बढ़ाते हुए कहा,
"मेरे मन में 3 प्रश्न हैं, पहला मूल का सवाल है कि माइनोरिटी है क्या, दूसरा अल्पसंख्यक संस्था कैसे स्टेट्स पाती है? और तीसरा आबादी का मुद्दा"
इस मुद्दे पर सीजेआई ने टिप्पणी करते हुए कहा,
"अनुच्छेद 30 का अर्थ है - आप संस्थान स्थापित करें और उसका प्रशासन करें."
सीजेआई ने बात साफ़ करते हुए कहा,
"अल्पसंख्यक संस्थानों का 100 % प्रशासन अल्पसंख्यक ही करें, ये एक भ्रामक मानक होगा. अनुच्छेद 30 को प्रभावी बनाने के लिए हमें यह मानने की ज़रूरत नहीं है कि अल्पसंख्यक द्वारा ही पूरा प्रशासन होना चाहिए"
इस पूरी बहस का कॉन्टेक्स्ट समझने के लिए एक बात जाननी जरूरी है. 1967 बासा मामले अदालत ने AMU को माइनॉरिटी स्टेटस का दर्ज़ा नहीं देने के पीछे यही तर्क दिया था कि AMU का प्रशासन कभी भी सिर्फ मुस्लिमों के हाथ में नहीं रहा.
बहरहाल अब दूसरे दिन की बहस देखिए.
आज 10 जनवरी को इस मामले में दूसरे दिन सीजेआई चंद्रचूड़ ने पूछा,
“एएमयु एक्ट 1920 का क़ानून कैसे सामने आया, हम इसका साफ़ विश्लेषण चाहते हैं. इसका मूल प्रावधान क्या था और इस पर संशोधनों का क्या प्रभाव पड़ा. उसके बाद हम यूजीसी के पास जा सकते हैं जो हमारे लिए बहुत महत्वपूर्ण है.”
सीजेआई के सवाल पर राजीव धवन ने एक्ट्स पढ़कर सुनाए. साथ ही धवन ने बहस करते हुए अपने तर्कों का एक खाका खींचा, उन्होंने कहा, कि 1967 का बाशा जजमेंट आंतरिक रूप से विरोधाभासी है. और बाद के फैसलों ने भी इस मामले का सन्दर्भ नहीं लिया है. तो हमारा स्पष्ट निवेदन यह होगा कि बाशा अब एक अच्छा कानून नहीं है. इस पर विचार हो.
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