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किसी गे लड़के की सुबह से शाम कैसे होती है, कभी सोचा है?

कैसा होता है अपने आप में जलते रहना.

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यह लेख डेली ओ
 
से लिया गया है, जिसे पप्स रॉय ने लिखा है.  
दी लल्लनटॉप के लिए हिंदी में यहां प्रस्तुत कर रही हैं शिप्रा किरण.



मिंटू एक 'खूबसूरत' लड़का था. पहली बार जब हमारे नए स्पोर्ट्स टीचर ने उसे देखा, हम उसी समय ये समझ गए थे कि वो उन्हें पसंद आ गया है. ये 1990 की बात है जब हम आठवीं कक्षा में थे. उन्हीं दिनों जूही चावला की एक फिल्म रीलीज हुई थी और हमारी पूरी क्लास मिंटू को 'जूही' कहकर ही पुकारने लगी थी.

वो बहुत कम बोलता था.

तीसरी लाइन में बैठा करता खिड़की के पास वाली सीट पर. वो अपने सिलेबस की किताबों में फिल्मी किताबें छुपा कर पढ़ा करता. बीच-बीच में टीचर्स की तरफ भी देख लिया करता ताकि टीचर ये न समझें कि उसका ध्यान पढ़ाई में नहीं है. मुझे लगता था कि वो बहुत अकेला है. उसके दोस्त भी नहीं थे. बीच-बीच में वो होठों पर लिप बाम लगा लिया करता, अपने बाल ठीक करता और फिर पढ़ने में व्यस्त हो जाता. इस तरह के लोगों की अपनी ही दुनिया होती है शायद, जो एक अजीब किस्म की बेखबरी में बसती है. शायद यही अकेला होना होता है.

मिंटू बहुत खूबसूरत था, लड़कियों की तरह खूबसूरत. मैंने उससे बहुत बार बात करने की कोशिश की. लेकिन वो अपने अकेलेपन में किसी को दाखिल नहीं होने देता था. जवाब में वो सिर्फ मुस्कुरा देता. अपनी तरफ से उसने कभी दोस्ती करने की कोशिश नहीं की. कुछ दिन बाद मैंने भी कोशिशें बंद कर दीं. एक बार मैंने उसे लाइब्रेरी में रोते हुए देखा लेकिन उससे जाकर बात करने की हिम्मत नहीं जुटा पाया. क्योंकि मुझे लगता था वो मुझसे बात नहीं करेगा.

वो जूही चावला को खास पसंद नहीं करता था लेकिन सब उसे जूही ही कहते थे. क्योंकि 'जूही' को उल्टा करने पर 'हिजु' बन जाता है. लड़कों को उसका मज़ाक उड़ाने का एक अच्छा तरीका मिल गया था. मिंटू गर्मी की छुट्टियों में घर गया और फिर कभी वापस नहीं लौटा. बाद में सुनने में आया कि उसने आत्महत्या कर ली थी. लेकिन उसकी जान छत से कूदने ने नहीं ली थी. वो अकेलेपन की वजह से मर गया. हमने सुना कि उसके पिता तक उसे 'हिजरा' या 'हिजु' जैसे नामों से ही पुकारा करते थे. उसकी मां सबकुछ देखकर भी चुप रहती और बस रोया करती. उसे अपने घर से किसी भी तरह का कोई सहारा नहीं मिला था. न प्यार और न ही किसी तरह की कोई सुरक्षा ही. 15 साल की उम्र में अकेलेपन से किसी का मर जाना कितना भयावह है.


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सामान्य जीवन जीना हर किसी का अधिकार है. एलजीबीटीक्यू समुदाय का भी.

स्कूल से सिर्फ दो लोग उसके अंतिम संस्कार में पहुंचे थे. मैं उनमें से एक था. हमारे स्कूल में कई लोग 'क्वीयर' थे. माने वो जिनकी पसंद ना पसंद 'सामान्य' नहीं होती. वो जो अलग होते हैं. मैं भी अलग था. और दूसरे क्वीयर लोगों की तरह ही खुद में सिमटा हुआ. हम अक्सर स्कूल के पुराने बास्केटबॉल मैदान की तरफ घूमने जाया करते. तब हम अपनी आंखों पर थोड़ी सी वैसलीन लगा लिया करते जिससे हमारी पलकों पर थोड़ी चमक आ जाती. हम इस उम्मीद में रहते कि इस तरह की कोशिशें शायद हमें कुछ आज़ाद कर पाएं. हमारी ज़िंदगी में शायद कुछ रंग आ जाए.

वो हमारा अड्डा हुआ करता. जब भी हम खुद को अकेला महसूस करते हम भाग कर वहीं पहुंच जाते. बास्केटबॉल का वो कोर्ट भी हमारी ही तरह उपेक्षित था. वहां हमारे अलावा और कोई भी नहीं खेलता था इसलिए मुझे हमेशा ऐसा लगा जैसे वो भी बड़ी खुशी से हमारा स्वागत किया करता है. हमारे कुछ सिनियर भी कभी-कभार हमारे साथ बातचीत का हिस्सा बन जाते. हमारे स्कूल में जितने भी समलैंगिक (गे) थे सब भीतर से बहुत अकेले थे. इसी वजह से जब भी खाली समय मिलता वो कोर्ट की तरफ आ जाया करते ताकि उन्हें वहां कोई तो उनके जैसा मिल जाए जिससे वो बात कर सकें. हम वहां बैठकर बातें करते, खूब हंसते और मिठाई की दुकान से चुराई हुई चीजें खाया करते. फिर वापस अपनी-अपनी क्लास में लौट जाते.


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समलैंगिकों ने अपने अधिकारों की लंबी लड़ाई लड़ी है. लेकिन समाज ने उन्हें उनका हक कभी नहीं दिया.

हम महीनों मिंटू के बारे में महीनों बातें करते रहे. कोई नहीं जान पाया कि उसके साथ क्या हुआ. सही जान पाना मुश्किल भी था. हम जब हमारे टीचर, मां-बाप या किसी और से बात किया करते तो हम वो नहीं होते थे जो हम असल में थे. उनसे बात करते हुए हम जैसे खुद से ही अजनबी हो जाते. हम हमेशा इस बात से डरे रहते कि कहीं हम अकेले न पड़ जाएं, हमें छोड़ न दिया जाए या लोग हमसे नाराज़ न हो जाएं.

लेकिन हमारे बारे में सब जानते थे. हमारे स्कूल के चौकीदार, स्कूल बस के ड्राइवर - सब हमसे ओरल सेक्स चाहते थे. मुझे हमेशा किसी ऐसे स्प्रे की तलाश रही जो कॉकरोच की तरह ही इंसानों को भी मुझसे दूर रख सके. गे होने के कारण इतना तो मैंने जान ही लिया कि हमारी लड़ाई बहुत लम्बी और कठिन है. और हमें इतनी आसानी से हार नहीं माननी होगी. वो हमारे अकेलेपन का फायदा उठाने लगेंगे. हममें से कुछ बच्चे थोड़े 'बोल्ड' थे. अपने अकेलेपन से बचने के लिए हम कई बार अपने पसंद के इंसान के साथ सेक्स भी कर लिया करते.

हम अपने देह की खोज कर रहे थे क्योंकि हमें पता ही नहीं था कि सेक्स का मतलब क्या होता है. हमें सेक्सुअली अब्यूस किया गया था. ये चाइल्ड अब्यूस नहीं था तो और क्या था? मुझे अब भी याद है वो दिवाली जब शराब पीकर एक अंकल ने मेरे गाल खींचे थे और जबरदस्ती मेरे होंठ चूमने चाहे थे. मैंने अपनी पूरी ताकत लगाकर उसे रोका था. लेकिन मैंने इसकी शिकायत दर्ज़ नहीं की. जबकि वो गलत था. मुझे किसी ने तब तक ये बताया तो नहीं था कि ये गलत चीजें हैं लेकिन मेरा दिल जानता था कि ये 'गंदी' बात है और मुझे इस बारे में किसी से कोई चर्चा नहीं करनी चाहिए. मैं कितना गलत था!


पश्चिम के कुछ देशों में गे लोग कानून की नज़र में बराबर हो गए हैं. लेकिन समाज में उन्हें 'अलग' मानने की प्रथा खत्म नहीं हुई है.
पश्चिम के कुछ देशों में गे लोग कानून की नज़र में बराबर हो गए हैं. लेकिन समाज में उन्हें 'अलग' मानने की प्रथा खत्म नहीं हुई है.

हम अपना अकेलापन अपने साथ लेकर बड़े हुए. अपनी बोरियत को दूर करने के लिए मैंने सिगरेट पीना शुरू कर दिया. खूब किताबें पढ़ीं, कई लोगों के साथ सेक्स भी किया. क्या अकेलेपन और बोरियत में कोई अंतर है? बोरियत क्षणिक होती है. मतलब थोड़ी देर के लिए होती है. लेकिन अकेलापन लंबा होता है. ये एक बीमारी की तरह है. ये जीवन के अंत तक भी रह सकता है. इसका कोई अंत नहीं होता. न ही कभी ये समाप्त हो सकता है. अपनी बोरियत को दूर करने के लिए मैंने कुछ ज्यादा ही पीना शुरू कर दिया. खूब पीता, पार्टियां करता और देर देर तक सोता ही रहता. हर पार्टी में एक नकली मुस्कान ओढ़े रहता. ये पार्टियां भी थोड़ी देर के लिए ही राहत दे पातीं. वापस मैं अपने उसी सुनसान अपार्टमेंट में लौट आता. और एक बार फिर अकेला हो जाता.

मां के मरने के बाद मैं और भी अकेला हो गया था. उस दर्द और खालीपन को मैं शायद शब्दों में बयान भी नहीं कर सकता. मुझे मां बेतरह याद आती. शायद मां मेरे बारे में जानती थी. और मुझे मालूम था कि वो मेरा दर्द समझती है. मैं उसी का तो बच्चा था. और यही हम दोनों के लिए सबसे ज़रूरी बात थी.

फिर मेरी मुलाक़ात राज से हुई. वो डिप्रेशन में था और इसी वजह से उसकी नौकरी चली गई थी और वो समाज से पूरी तरह कट गया था. उसका अपने बॉयफ्रेंड से ब्रेकअप भी हो गया था. वो मुझसे बहुत प्यार से मिला. उसकी मुस्कान इतनी उदासी भरी थी कि मेरा मन भर आया. हमने एक दूसरे को चूमा. लेकिन हमने इसका कोई मतलब नहीं निकाला. वो सचमुच अकेला था और उसे मदद की सख्त जरूरत थी. लेकिन उसका परिवार उससे किनारा कर चुका था. वह किसी मनोचिकित्सक से इलाज भी करा रहा था. वो अपने भविष्य को लेकर बहुत चिंतित था. अपनी ज़िन्दगी से हार गया था वो जैसे.


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मुख्यधारा से अलग कर दिया जाना हमें बिल्कुल अकेला कर देता है.

उसने कहा, ‘मेरे मरने पर तो मुश्किल से चार लोग होंगे.’ उसका दर्द उसके चेहरे पर साफ़-साफ़ दिखाई देता था. उसकी आंखों के नीचे काले गड्ढे हो गए थे. वो वोदका और डिप्रेशन की दवाओं में खुशी ढूंढता फिरता. यूं तो जितने अकेले मेरे गे दोस्त थे, उतने ही अकेले मेरे दूसरे सामान्य दोस्त भी थे. उनके अकेलेपन में कोई ख़ास अंतर नहीं था. मेरे स्ट्रेट दोस्तों में ज़्यादातर ऐसे सिंगल मर्द और औरत हैं जो उम्र के तीसरे और चौथे दशक में हैं और कामयाब हैं. लेकिन फिर भी अकेले हैं. कुछ के पास साथी हैं, तो कुछ यहां-वहां घूमकर अपना वक्त बिता देते हैं, ऐसी यात्राएं, जिनका कोई लक्ष्य नहीं होता. कुछ नशा करने लगे हैं तो कुछ ने काम को नशा बना लिया है.

सारी बातें उस खालीपन, उस अकेलेपन पर आकर ठहर जाती हैं जिसे सिर्फ और सिर्फ एक साथी भर सकता है. लेकिन वो साथी है कहां? काश कि साथी भी खाने की तरह फोन पर ऑडर किए जा सकते. एक अदद साथी ढूंढना इस दुनिया के सबसे मुश्किल कामों में से एक है. फिर मेरे दोस्त, जिन्होंने जबरदस्त कामयाबी हासिल की है, एक दूसरी तरह की परेशानी से दो-चार हैं. उन्होंने इतना ऊंचा बेंचमार्क तय कर लिया है कि किसी के भी साथ होना उनके लिए मुश्किल हो जाता है. उनकी कामयाबी उनकी मुसीबत बन गई है. इतनी तरह से फिल्टर करने के बाद जो इंसान ज़िंदगी में आता भी है, वो टिक नहीं पाता. फिर वो छूट जाता है, अकेलेपन का एक और दौर शुरू होता है और फिर से शुरू हो जाती है साथी की खोज. ये अनवरत चलता रहेगा. ऐसे में मैं या मेरे जैसे लोग अपना प्यार कैसे ढूंढें?

मैं सच में उन गे एक्टिविस्ट्स का शुक्रगुज़ार हूं जो समलैंगिकता को कानूनी दर्ज़ा दिलाना चाहते हैं. कम से कम इतनी उम्मीद तो है कि हमारे जीवन में इससे कुछ बदलाव आएंगे. हम सर उठाकर जी पाएंगे. ये हमारे लिए कितना जरूरी है ये हम ही जानते हैं. एक गे आदमी के अकेले पड़ जाने की सबसे बड़ी वजह यही है कि समाज उसे स्वीकार नहीं करना चाहता.

मुझे कभी अपनी सेक्शुएलिटी से लड़ना नहीं पड़ा. मेरी किस्मत थी कि मेरा परिवार खुले दिल से एक ऐसी चीज़ को अपनाता है जो समाज के लिए एक वर्जना है, टैबू है.

मैं अपनी शर्तों पर अपनी ज़िंदगी जीता हूं लेकिन मुझे नहीं पता कि मैं अपने अकेलेपन से लड़ पाऊंगा या नहीं. अगर ये समाज मुझे अपनाता, मुझे जगह देता, तो चीज़ें कितनी बेहतर होतीं. अकेलेपन का दर्द बयान नहीं हो सकता. और ये ज़िंदगीभर हमारे साथ रहता है.


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चाहे समलैंगिक अपने अस्तित्व का कितना भी उत्सव मना लें, उदासी और अकेलापन कहीं न कहीं उनमें डिप्रेशन पैदा कर ही देता है.

अकेलेपन की किसी बीमारी से तुलना करनी हो तो एड्स और डायबिटीज का नाम दिमाग में आता है. आप चाहें तो दवाएं ले सकते हैं लेकिन स्थाई इलाज नहीं है. हम इस बीमारी के साथ ही मरने को मजबूर हैं. काश कोई साइंटिस्ट अकेलेपन के लिए एक गोली बना देता !

थोड़ी बहुत दोस्ती और समाज से मिलने वाला अपनापन भी हमारे लिए बहुत होगा. लेकिन नेताओं को हममें कोई दिलचस्पी नहीं. क्योंकि हम वोट बैंक नहीं हैं. हम रोज़ अपनी पहचान की लड़ाई लड़ते हैं. रोज़ हम समाज के निर्धारित पहचान के खांचों में बंधने से खुद को बचाते हैं. और ये हमें थकाता जाता है. और ये हमारे वजूद की कीमत पर होता है.

मैं जब घर वापस आता हूं, अकेला होता हूं. लौटकर जब मैं अपने बिस्तर पर लेटता हूं मेरी देह ठंडी पड़ चुकी होती है. रात भर मेरे साथ कोई नहीं होता जो मुझे संभाल ले. अगली सुबह मैं उठता हूं तो दिन के 1 बज रहे होते हैं. कॉफी धीमे-धीमे सिप करते हुए रोज़ अपनी सुबह मैं यही सोचता हूं कि आज शाम फिर होने वाली पार्टी में क्या पहनना है. या फिर किसी को घर पर ही बुला लिया जाए.

हर सुब ठीक वैसी होती है जैसी उससे पहले की. कुछ नहीं बदलता. ज़िंदगी नहीं बदलती. रोज़ की लड़ाइयां भी खत्म नहीं होतीं. लेकिन हम धीरे धीरे ख़त्म होते रहते हैं. कतरा - कतरा करके. ठीक वैसे जैसे मेरे होंठों पर रखी सिगरेट है. वो अपने आप में जलती रहती है.

जैसे मैं जलता रहता हूं. जैसे हम जलते रहते हैं.




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