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अनिल अंबानी, रफ़ाल कनेक्शन: जानिए, एक दशक में अरबों की संपत्ति डूबा देने के कुछ आसान तरीक़े

सोचिए, अनिल उस वक़्त को याद करके कैसा फ़ील करते होंगे, जब उनके पास मुकेश अंबानी से भी ज़्यादा दौलत थी.

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कई बार तस्वीरें कितना कुछ कह देती हैं न? (PTI)
रफ़ाल. एक विमान. एक सामरिक निर्णय. एक अंतरराष्ट्रीय डील. एक राजनैतिक मुद्दा. रफ़ाल से जुड़े लगभग सारे पॉइंट्स या तो हम दी लल्लनटॉप में कवर कर चुके हैं, या लगातार कर रहे हैं. आज की इस स्टोरी का हमारा सिंगल पॉइंट एजेंडा है, ये जानना कि अनिल अंबानी के लिए क्या ये डील डूबते को तिनके का सहारा साबित होगी? इसलिए चलिए इस स्टोरी को दो भागों में डिस्कस करते हैं. पहला भाग, अनिल के फ़ेलियर की महगाथा, दूसरा भाग रफ़ाल-अनिल रिश्ता.

भाग एक: नोज़डाइव

ये संयोग है कि जब कोई कंपनी बुरी तरह और तेज़ी से डूबती है तो उसे ‘नोज़डाइव’ की उपमा दी जाती है. मतलब किसी जहाज़ के नाक के बल क्रैश करने की.
तो, अनिल की कंपनी या कहें कंपनियों के समूह के नोज़डाइव की शुरुआत हुई, दोनों भाइयों के बीच हुए बंटवारे से काफ़ी पहले. उस किसी भी पल, जब धीरूभाई अंबानी के मन में, अपने दोनों लड़कों के बीच के प्रेम को देखकर, कोई भी विल या वसीयत नहीं बनाने का ख़्याल आया होगा. लेकिन 2002 में धीरूभाई की मृत्यु हो गई. तीन साल भी नहीं हुए कि दबे छुपे चल रही दो भाइयों के बीच की रार, सबके सामने आने लगी. दो भाई- बड़ा वाला मुकेश और छोटा वाला अनिल. बीच में आईं इन दोनों की मां कोकिलाबेन और हो गया दोनों भाईयों के बीच बंटवारा. मुकेश के पोर्टफ़ोलियो में सबसे बड़ा हिस्सा पेट्रोलियम का था. अनिल को जो कंपनियां मिलीं उनमें सबसे बड़ा नाम रिलायंस कम्यूनिकेशन का ही था.
कहा जाता है कि आर कॉम (रिलायंस कम्यूनिकेशन) भी मुकेश अंबानी का ड्रीम थी. और उसकी तामीर भी उन्होंने ही की थी. लेकिन इस बंटवारे के दौरान जो करार हुआ था, उसके अनुसार मुकेश अंबानी अगले 10 साल तक कोई टेलीकॉम कंपनी नहीं खोल सकते थे. तो अब आप अनुमान लगा सकते हैं कि रिलायंस जियो का सॉफ्ट लॉन्च, 2015 में और पब्लिक लॉन्च, 2016 में क्यों हुआ था.
सर्व-अंबानी- अनिल, मुकेश और धीरूभाई सर्व-अंबानी- अनिल, मुकेश और धीरूभाई


इसके अलावा अनिल के पोर्टफ़ोलियो में थीं, रिलायंस एनर्जी और रिलायंस कैपिटल जैसी कुछ और बड़ी कंपनियां. कुल मिलाकर दोनों भाइयों की संपत्तियां लगभग बराबर थीं. यूं मुकेश अंबानी दुनिया के पांचवे और अनिल दुनिया के छठे सबसे अमीर इंसान हो गए.
जहां मुकेश वेट एंड वॉच की रणनीति अपनाते हुए अपने वाले हिस्से को कंसोलिडेट करते रहे, वहीं अनिल ताबड़तोड़ एक्सपैंशन में लग गए. एडलैब्स ख़रीदा, देश-विदेश में बिग सिनेमा की बहुत बड़ी चेन खोली. हॉलीवुड की बड़ी कंपनी ‘ड्रीमवर्क्स’ से करोड़ों का करार किया. बंटवारे के ठीक एक साल बाद, 2006 में, एक समय ऐसा भी आया था जब अनिल की संपत्ति, मुकेश से ज़्यादा थी.
 तब अनिल भारत के तीसरे सबसे अमीर व्यक्ति बन गए थे. इसके बाद राज्यसभा के सदस्य भी बने. हालांकि बाद में फ़ैक्स के माध्यम से इस्तीफ़ा दे दिया. मुंबई में ही स्थित अपने घर और ऑफ़िस के बीच की दूरी हेलीकॉप्टर से नापने वाले अनिल बंटवारे से पहले भी रिलायंस का फ़ेस थे, और लग नहीं रहा था कि कभी उन्हें वो दिन भी देखने पड़ेंगे, जिनकी बात हम आगे करेंगे. ख़ैर, ये तो उनका टेंटेटिव घर था, नया घर तो बांद्रा में बन रहा था. बड़े भाई के एंटीला की तरह ही, आलीशान.
# रिलायंस पावर- 2008 में रिलायंस पावर के IPO 60 सेकेंड में पूरी तरह सब्सक्राइब हो गए थे. जो कि आज तक अपने-आप में एक रिकॉर्ड है. आसान भाषा में कहें तो 450 रुपये की चीज़ को लेने के लिए लोगों में ऐसी होड़ लगी कि 60 सेकंड में सब कुछ बिक गया. लेकिन इस IPO ने एक और रिकॉर्ड बनाया, वो ये कि जिस दिन ये IPO शेयर मार्केट में लिस्ट हुआ था, तब से लेकर आज तक, इसने अपना वो IPO वाला रेट नहीं छुआ.
आसान भाषा में कहें तो जिन्होंने भी ये IPO लिया था, उनमें से किसी को भी फ़ायदा नहीं हुआ, फिर चाहे वो लॉन्ग टर्म इंवेस्टर हो या शॉर्ट टर्म. बल्कि जो जितने समय तक रिलायंस पावर के शेयर्स होल्ड किए हुए था, उसे उतना ही ज़्यादा नुक़सान हुआ. 450 रुपये का ये IPO आज शेयर के रूप में 3 -3.50 रुपये पर ट्रेड कर रहा है. IPO शेयर का आसान गणित समझने के लिए ये पढ़ें.

रिलायंस पावर (स्क्रीनग्रैब: गूगल फ़ाइनेंस) रिलायंस पावर (स्क्रीनग्रैब: गूगल फ़ाइनेंस)


# रिलायंस मीडियावर्क्स- 2015 में बिग सिनेमाज़, कार्निवल सिनेमा को बेच दिया गया.
 बिग टीवी बिककर ‘इंडिपेंडेट टीवी’ हुआ और फिर बंद हो गया.
 बिग एफ़एम, जागरण के पास चला गया.
 इसके बाद पहले तो इन सबकी पेरेंट कंपनी 'रिलायंस मीडियावर्क्स' शेयर मार्केट से डीलिस्ट हुई
फिर एक दूसरी कंपनी 'प्राइम फ़ोकस' से मर्ज़ हो गई.
  डीलिस्ट मतलब, फिर इसके शेयर्स, मार्केट में ट्रेड होना बंद हो गए, या यूं कहें कि पब्लिक लिमिटेड से प्राइवेट लिमिटेड हो गई.
बिग सिनेमाज़, जो अब कार्निवल है. बिग सिनेमाज़, जो अब कार्निवल है.


# रिलायंस इंफ़्रास्ट्रक्चर- रिलायंस इंफ़्रा की सहायक कंपनी दिल्ली एयरपोर्ट मेट्रो एक्सप्रेस के बुरे हाल हुए तो 2013 के बाद से एयरपोर्ट एक्सप्रेस मेट्रो लाइन को DMRC हैंडल करने लगी
. वर्सोव-बांद्रा सी लिंक जैसे प्रोजेक्ट, जैसा कि विशेषज्ञ बताते हैं, सिर्फ़ शो ऑफ़ करने के लिए नुक़सान में पूरा करने को तैयार हो गया रिलायंस इंफ़्रा.

इससे पहले 5,000 करोड़ के वर्ली-हाजी सी लिंक से भी रिलायंस इंफ़्रा अलग हो गई थी. इसी के चलते MSRDC (महाराष्ट्र स्टेट रोड डेवलपमेंट कॉर्पोरेशन) को कहना पड़ा कि अगर रिलायंस इंफ़्रा, इस प्रोजेक्ट (को भी) पूरा नहीं करती, तो कठोर कारवाई की जाएगी.

रिलायंस इंफ़्रा के शेयर अपने पीक समय में आज से 100 गुना भाव के थे. (स्क्रीनग्रैब: गूगल फ़ाइनेंस) रिलायंस इंफ़्रा के शेयर अपने पीक समय में आज से 100 गुना भाव के थे. (स्क्रीनग्रैब: गूगल फ़ाइनेंस)


# रिलायंस कम्यूनिकेशन- आर कॉम की मुश्किलें तब से शुरू हो गईं थीं जब 2G घोटाले में इसका नाम आया. उसके बाद आर कॉम का CDMA तकनीक पर आधारित होना इसे ले डूबा. जो 2G, 3G तक तो ठीक थी, लेकिन 4G के लिए कॉन्पैटिबल नहीं साबित हो रही थी. हालांकि बाद में आर कॉम के GSM सिम भी आए लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी थी. और फिर 2017 में तो एयरटेल, वोडाफ़ोन जैसी कंपनीज़ थरथराने लगी थीं, फिर आर कॉम की क्या ही बिसात थी. कारण था- जियो नाम के फ़िनॉमिना का लॉन्च होना. लेटेस्ट स्टेटस ये है कि आर कॉम को बैंक्स ने NCLT में घसीटा है. वहीं चाइना के तीन लेंडर्स (इंडस्ट्रियल एंड कमर्शियल बैंक ऑफ चाइना, चाइना डेवलपमेंट बैंक और एग्जिम बैंक ऑफ चाइना) ने यूके की कोर्ट में आर कॉम के खिलाफ केस किया है. यूके कोर्ट में अनिल केस हार चुके हैं और अभी तक उन्होंने पैसों का भुगतान नहीं किया है, 21 दिन की मियाद ख़त्म हो चुकी है.
 आर कॉम के लिए चाइना के बैंक्स से ये लोन अनिल अंबानी ने अपनी पर्सनल गारंटी में लिया था. इसलिए उन्हें पर्सनली दिक्कत हो सकती है. इसलिए ही यूके कोर्ट के सामने अनिल का तर्क ये था कि उनके पास तो देने के लिए एक भी पैसा नहीं है.

जब रिलायंस कम्यूनिकेशन देश के चप्पे-चप्पे में छाया हुआ था. जब रिलायंस कम्यूनिकेशन देश के चप्पे-चप्पे में छाया हुआ था.


और रही बात NCLT की तो NCLT केवल ‘इंसल्ट’ नहीं करती. जब किसी कंपनी को NCLT में खींचा जाता है, या ख़ुद आती है तो इसे उस कंपनी के ‘दिवालिया’ होने के पहले कदम के रूप में देखा जाता है. NCLT एक प्रक्रिया के द्वारा कंपनी के निदेशकों को निलंबित कर कंपनी को नीलाम कर देती है, जिससे आए पैसों से कर्ज़ चुकाया जाता है. इससे पहले एरिक्सन वाला केस तो याद होगा ही? अरे वो, जब अनिल, एरिक्सन के पैसे न चुकाने के चलते जेल जाते-जाते बचे थे, क्यूंकि ठीक अंतिम समय में मुकेश अंबानी ने उनका पैसा चुकाया था. बात अप्रैल 2019 की है जब एरिक्सन के भुगतान के विवाद में सुप्रीम कोर्ट ने अनिल अंबानी से कहा था कि तय समय पर भुगतान नहीं किया तो अवमानना की कार्रवाई होगी और जेल जाना पड़ेगा
.
ये वही मुकेश थे, जिनके साथ अनिल का 2010 में KG बेसिन (RIL-RNRL) विवाद हुआ था. भारत के सबसे हाई प्रोफ़ाइल फ़ैमिली ड्रामे में से एक था RIL-RNRL विवाद. जिसने 2009-10 में मीडिया में ख़ूब जगह बनाई.
असल में मुकेश की कंपनी (RIL रिलायंस इंडिया लिमिटेड) और अनिल की कंपनी (RNRL रिलायंस नेचुरल रिसोर्स लिमिटेड) के बीच डील हुई थी. बंटवारे के वक्त. 2005 में. डील कि KG (कृष्णा गोदावरी) बेसिन से निकलने वाली गैस को अगले 17 सालों तक मुकेश $2.34 प्रति mmBtu (मेट्रिक मिलियन ब्रिटिश थर्मल यूनिट) के रेट से अनिल को बेचेंगे. मज़े की बात कि KG बेसिन से तेल निकलना तो 2008 में जाकर शुरू हुआ था लेकिन डील 2005 में ही हो गई.
कहा जाता है कि ये डील कभी भी सार्वजनिक नहीं की गई थी. तो फिर कब सार्वजनिक हुई? जब मुकेश की कंपनी बोली कि उसे तेल की क़ीमत बहुत कम मिल रही है. असल में अनिल की कंपनी (रिलायंस नैचुरल रिसोर्स लिमिटेड) के साथ ही नहीं बाक़ी ख़रीदारों के साथ भी यही एग्रीमेंट हुआ था. इसलिए मुकेश की कंपनी को केवल अनिल से नहीं बाक़ी सारे ख़रीदारों (जैसे NTPC) से भी दिक्कत थी. उसे रेट बढ़वाने थे, सरकार नहीं मानी. मुकेश ने प्रोडक्शन कम करना शुरू कर दिया. फिर PMO ने आदेश दे दिया कि मुकेश की कंपनी बाज़ार के हिसाब से अपने रेट बढ़ा सकती है. रेट तय हुआ $4.2 प्रति mmBtu. अब अनिल आए पिक्चर में और उन्होंने बताया करार हुआ है. सुप्रीम कोर्ट बोली कि जब तक कोई भी नैचुरल रिसोर्स अंतिम उपभोक्ता तक नहीं पहुंच जाता वो सरकार का है. और जो चीज़ सरकार की है उसपर दो भाई कैसे लड़ सकते हैं, या करार कर सकते हैं? यूं प्रथम दृष्टया दोनों भाइयों के विरोध में लिया गया सा दिखने वाल ये निर्णय, दरअसल अनिल के विरोध में था. क्यूंकि उनके पास अब सिर्फ़ दो विकल्प थे. या तो इस डील से निकल जाएं या $4.2 प्रति mmBtu के हिसाब से भुगतान करें.
जानकार कहते हैं कि यहां पर भी सरकार का हिसाब किताब समझ में नहीं आया, ये वही UPA सरकार थी, जो कुछ दिनों पहले दोनों भाइयों से कह रही थी कि आपस में मामला सुलझाओ. जो कुछ दिनों पहले कह रही थी कि अप्रैल 2014 तक तेल के यही दाम रहेंगे. फिर क्या जयपाल रेड्डी का पेट्रोलियम मंत्रालय से हटना, मुकेश के लिए रास्ता साफ़ करना था? क्यूंकि वो जयपाल रेड्डी ही थे, जिन्होंने रिलायंस इंडस्ट्रीज़ पर इस बात को लेकर सात हज़ार करोड़ का जुर्माना लगा दिया था कि RIL मनमाने ढंग से, ब्लैकमेल करने के उद्देश्य से, तेल उत्पादन में जानबूझ कर कमी ला रही है.
तो क्या ये पूरा मुद्दा 'क्रोनी कैपिटलिज़्म' का परफ़ेक्ट उदाहारण था? पता नहीं. 'क्रोनी कैपिटलिज़्म', जिसकी बात हम पार्ट टू में भी करेंगे. क्यूंकि राहुल गांधी के अनुसार, अनिल की कंपनी का ऑफ़सेट पार्टनर बनना भी इसी 'क्रोनी कैपिटलिज़्म' का उदाहरण है. 
वैसे, ये मुद्दा फिर तूल पकड़ने लगा जब 2014 में अरविंद केजरीवाल ने एक प्रेस कॉनफ़्रेंस करके RIL के ऊपर क्रिमिनल चार्जेस लगा दिए.
केजरीवाल ने एंटी करप्शन ब्रांच से कहा कि मुरली देवड़ा, वीरप्पा मोईली, वीके सिब्बल, मुकेश अंबानी के ख़िलाफ़ FIR दर्ज की जाए. क्यूंकि 1 अप्रैल, 2014 से दाम $8 प्रति mmBtu करने की बात होने लगी थी. 
कर लो दुनिया मुट्ठी में? सच में? (स्क्रीनग्रैब: गूगल फ़ाइनेंस) कर लो दुनिया मुट्ठी में? सच में? (स्क्रीनग्रैब: गूगल फ़ाइनेंस)


# रिलायंस कैपिटल- रिलायंस कैपिटल, अनिल अंबानी के लिए वही था, जो किसी जुआरी के लिए तुरुप का पत्ता होता है.
अनिल बारी-बारी से हर दांव हारते जा रहे थे, लेकिन रिलायंस कैपिटल 'अंगद का पैर' थी. कुछ ऑप्टिमिस्टिक लोग मानते थे ये अकेली कंपनी ही अनिल के अच्छे दिन का ध्रुव तारा साबित होगी. भारत के कुछ टॉप के म्यूचुअल फ़ंड्स मैनेज करने वाली रिलायंस कैपिटल 'टू लार्ज टु फ़ॉल' कैटेगरी में आती थी. लेकिन फिर अनिल का कौन सा वेंचर, कौन सा बिज़नेस इस कैटेगरी में नहीं आता था.
फ़ास्ट फ़ॉरवर्ड - अभी. 31 जून, 2020 को रिलायंस कैपिटल के इस वित्त वर्ष की पहली तिमाही के नतीजे आए हैं. नतीजे, जो कंपनी के 387 करोड़ के घाटे के सबूत हैं. देनदारों का उधार डिफ़ॉल्ट करना, इस कंपनी के आने वाले दिनों के प्रति आशंकित करता है. असल में रिलायंस कैपिटल का डूबते चले जाना, एक कोलैटरल डैमेज का परफ़ेक्ट उदाहरण है.
 
रिलायंस कैपिटल जो स्मॉल हो गया. (स्क्रीन ग्रैब: गूगल फ़ाइनेंस) रिलायंस कैपिटल जो स्मॉल हो गया. (स्क्रीन ग्रैब: गूगल फ़ाइनेंस)


# लेटेस्ट ख़बर ये है कि यस बैंक ने मुंबई में ADAG (अनिल धीरूभाई अंबानी ग्रुप) का हेडक्वार्टर ‘रिलायंस सेंटर’ अपने कब्ज़े में ले लिया है.
 ADAG के 2,892 करोड़ रुपए की देनदारी समय पर न चुकाने की वजह से यस बैंक ने ये इमारत अपने कब्ज़े में ली है.
# रिलायंस नेवल एंड इंजीनियरिंग- यही वो कंपनी है, जिसका नाम पहले रिलायंस डिफ़ेंस एंड इंजीनियरिंग लिमिटेड था. यही वो कंपनी है, जो रफ़ाल डील में ऑफ़सेट पार्टनर बन रही है. ये रिलायंस इंफ़्रास्ट्रक्चर की सब्सिडियरी है.
2015 से अनिल ने पीपापाव शिपयार्ड के शेयर्स ख़रीदने शुरू किए थे. 2016 में अनिल अंबानी के पास पीपापाव शिपयार्ड नाम की कंपनी के 36.5% शेयर्स हो गए थे और वो इस कंपनी के चेयरमैन नियुक्त हो गए.
बाद में इसी कंपनी का नाम बदलकर रिलायंस डिफ़ेंस एंड इंजिनयरिंग और अंत में रिलायंस नेवल एंड इंजिनियरिंग लिमिटेड किया गया. बिना अनुभव के डिफ़ेंस सेक्टर में हाथ डाला और औंधे मुंह गिरे. और ये 90% डूबने वाली हिस्ट्री दिखाता है नीचे ये ग्राफ़-



# फ़ेलियर के कारण-
आप देख रहे हैं, जहां मुकेश के नाम पर आपको एक बड़ी लिस्टेड कंपनी दिखेगी- रिलायंस इंडस्ट्रीज़, वहीं अनिल दा की कंपनियों की लिस्ट ही ख़त्म होकर नहीं दे रही. इसे कहते हैं ओवर डाईवर्सिफ़िकेशन. ठीक है, बिज़नेस में एक से ज़्यादा नावों में पैर होना अच्छा माना जाता है, लेकिन इतनी ढेर नावों में, वो भी इतने कम समय में? टाटा का उदाहरण देखिए, दशकों हो गए हैं इसलिए उनकी बढ़ते-बढ़ते नमक से लेकर जगुआर तक का व्यापार है. तो टाइमलाइन के हिसाब से भी ADGA के फेल होने का सबसे पहला कारण ओवर डाईवर्सिफ़िकेशन था. इसके अलावा 2G स्कैम, चादर से ज़्यादा पैर फैलाना (मतलब ख़ूब सारा क़र्ज़ ले लेना), भाई के साथ हुआ KG बेसिन विवाद, राजनीति में पैसिव न रहकर खुले तौर पर उतर जाना भी कुछ बड़े कारण रहे जिसके चलते फ़ेलियर का मैग्नम ओपस तैयार हुआ. मैग्नम ओपस ही तो ठहरा. 14 साल के भीतर-भीतर अगर दुनिया का छठां सबसे अमीर आदमी कहे कि मेरे पास क़र्ज़ चुकाने के पैसे नहीं हैं तो किसी की भी उत्सुकता होगी, कि इस दौरान क्या-क्या हुआ.
आपके पास कभी रिलायंस का सिम रहा होगा तो आप मानेंगे कि अपने ग्राहकों को नकार देने की भूल भी ADGA को ले डूबी. रिलायंस की सर्विस से लेकर कस्टमर केयर तक की स्थिति. उफ़्फ़. आपका कितना ही अच्छा बिज़नेस मॉडल हो, अगर उपभोक्ता को इग्नोर करेंगे तो प्रलय आना निश्चित है. इसलिए रिलायंस कम्यूनिकेशन के फ़ेलियर में कम्यूनिकेशन, फ़ीडबैक और माइक्रो मैनजमेंट का अभाव भी जोड़ देना चाहिए. इसे इग्नोरेंस से उपजा घमंड भी कहा जा सकता है. रिलायंस कम्यूनिकेशन से लेकर ADGA के बाकी सारे प्रोजेक्ट्स भी, ज़्यादातर बी टू सी प्रोजेक्ट्स थे. मतलब ग्राहकों से सीधे डील करना. फिर चाहे वो मूवी हॉल वाला प्रोजेक्ट हो, हाउसिंग हो, पेट्रोल पंप हों या रिलायंस कैपिटल. और इस क्षेत्र में दोनों भाइयों में से मुकेश को ज़्यादा अनुभव था, क्यूंकि रिलायंस कम्यूनिकेशन उनका ही खिलाया फूल था, जिसे ले गया राजकुंवर. तो चलिए, आपको अनुभव नहीं था तो छोटे से शुरू करते, फिर फ़िफ़्थ गियर लगाते. लेकिन एक साथ अपने सारे प्रोडक्ट्स सीधे ग्राहकों के लिए बनाने शुरू कर देना, बजाय कि पहले रिलायंस कम्यूनिकेशन का हिसाब-किताब सही करें.
अनिल और मुकेश के बीच वही अंतर था जो क्रिकेट के 20-20 और टेस्ट फ़ॉर्मैट के बीच होता है. इसलिए ही शुरू में अनिल इंवेस्टर्स के फ़ेवरेट बने हुए थे. कि आज पैसे लगाओ और कल दुगने टाइप. लेकिन ऐसे मॉडल कितने सफल होते हैं, आप जानते ही हैं. वहीं मुकेश कंसोलिडेट करते रहे. वो कछुए बने रहे, जिसका अंत में रेस जीतना इनएविटेबल था. और इस वक़्त वो दुनिया के पांचवे सबसे अमिर व्यक्ति हैं.
फ़ोर्ब्स की लिस्ट में मुकेश अंबानी (साभार: फ़ोर्ब्स. पूरी लिस्ट पढ़ने के लिए तस्वीर पर क्लिक करें.)
फ़ोर्ब्स की लिस्ट में मुकेश अंबानी (साभार: फ़ोर्ब्स. पूरी लिस्ट पढ़ने के लिए तस्वीर पर क्लिक करें.)


ये तो हुई अनिल अंबानी के फेलियर की महागाथा. अब दूसरा हिस्सा यानी अनिल का रफाल कनेक्शन हम जल्द पेश करेंगे.