आपने 'लॉर्ड ऑफ़ दी रिंग्स' देखी है? उसके भाग-दो में फ्रोडो और सैम के बीच एक हद ख़ूबसूरत संवाद है. लालच और कर्तव्य के अंतर्द्वंद्व ने फ्रोडो को तोड़ दिया है. वो निढ़ाल होकर कहता है-
दुनिया में कहीं भी बिल्डिंग गिरे, ये ग्रुप मलबे से बचाने क्यों पहुंचता है?
किसी सुपरहीरो से कम नहीं है पूरी दुनिया में लोगों को बचाने वाला लोस टोपोस ग्रुप.

आय कान्ट डू दिस, सैम.
और फिर आता है सैम का एक लंबा मोनोलॉग. सैम कहता है-
मिस्टर फ्रोडो, साहसी कहानियों में नायकों को पीछे लौटने के कई मौके मिलते हैं. मगर वो लौटते नहीं. वो पैर पीछे नहीं खींचते, क्योंकि उनका दिल एक अटूट भरोसे से बल पाता है.
ये सुनकर फ्रोडो पूछता है-
हमें कौन सी आस है, सैम?
इसपर सैम कहता है-
दैट देअर इज़ सम गुड इन दिस वर्ल्ड, मिस्टर फ्रोडो. ऐंड, इट्स वर्थ फ़ाइटिंग फॉर.
यानी, इस दुनिया में अब भी अच्छाई बची है. और उस अच्छाई को बचाने का जतन करना बहुत ज़रूरी है. आपको जिनका क़िस्सा बता रहे, वो भी ऐसे ही नायक हैं. अपनी जान ख़तरे में डालकर दूसरों को बचाते हैं. उनके लिए इंसानियत देश और सीमाओं से मुक्त है. किसी भी जगह बड़ी आपदा आए. ये निस्वार्थ भावना से मदद के लिए पहुंच जाते हैं. कौन हैं ये लोग?
शुरुआत तबाही के तीन पन्नों से
1. पहली घटना है 21 सितंबर, 1999 की. रात के तकरीबन पौने दो बज़े थे. लोग अपने घरों में चैन की नींद सो रहे थे कि एकाएक जलजला आया. ज़मीन में आए तेज़ झटके ने स्प्रिंग की तरह लोगों को बिस्तरों से उछाल पटका. कई तो घर के मलबे तले उसी बिस्तर पर लेटे-लेटे मर गए.
7.6 तीव्रता वाले इस भूकंप का केंद्र था, राजधानी ताइपे से करीब 150 किलोमीटर दूर नांनतू काउंटी स्थित शहर चीची. मगर इसका असर इतना ज़्यादा था कि ताइवान का कोई इलाका नुकसान से नहीं बचा. 10 हज़ार से ज़्यादा इमारतें ढह गईं. करीब ढाई हज़ार लोग मारे गए. 11 हज़ार से ज़्यादा लोग जख़्मी हुए. ताइवान भूकंप संभावित क्षेत्र में बसा है. यहां हर साल औसतन दो हज़ार से ज़्यादा भूकंप आते हैं. मगर 1999 के साल भूकंप के सारे रेकॉर्ड टूट गए. इस बरस यहां लगभग 50 हज़ार भूकंप आए. इनमें सबसे विनाशकारी था सितंबर 1999 का वो चीची भूकंप. ये 20वीं सदी में आया ताइवान का सबसे बड़ा भूकंप था.

1999 में ताइवान के चीची शहर में आए भूकंप में क़रीब ढाई हज़ार लोगों की जान चली गई थी. (तस्वीर: एएफपी)
2. दूसरी घटना ईरान की है. तारीख़- 26 दिसंबर, 2003. सुबह के ठीक 5 बजकर 26 मिनट हुए थे, जब ईरान में एक प्रलयकारी भूकंप आया. ईरान के दक्षिणपूर्वी हिस्से में करमन नाम का एक प्रांत है. यहां एक शहर है- बाम. यही शहर उस रोज़ आए भूकंप का केंद्र था. भूकंप से पहले इस शहर की आबादी थी करीब 97 हज़ार. इनमें से 26 हज़ार से ज़्यादा लोग भूकंप में मारे गए. पूरे ईरान को मिलाएं, तो लगभग 40 हज़ार लोगों की जान गई. 50 हज़ार से ज़्यादा लोग घायल हुए.
3. तीसरी घटना है 26 दिसंबर, 2004 की. हिंद महासागर में बसा एक देश है, इंडोनेशिया. यहां सुमात्रा नाम का एक बड़ा द्वीप है. 26 दिसंबर को यहां सुबह के 7 बजकर 58 मिनट का समय हो रहा था. इसी समय सुमात्रा की पश्चिमी तटरेखा से करीब 240 किलोमीटर दूर समंदर की सतह में 9.1 तीव्रता का एक भीषण भूकंप आया. ज़मीन फट गई. समुद्री सतह में हुआ ये फ्रैक्चर आठ मिनट के भीतर करीब 1,100 किलोमीटर के इलाके में फैल गया.
पता है, इस भूकंप से कितनी ऊर्जा रिलीज़ हुई? नागासाकी पर गिराए गए ऐटम बम से जितनी एनर्ज़ी निकली थी, उससे लगभग 23,000 गुना अधिक एनर्ज़ी. इसने समंदर को जैसे मथ दिया. करीब 800 किलोमीटर प्रति घंटे की रफ़्तार से समुद्री लहरें किनारे की तरफ़ दौड़ीं. इन लहरों की ऊंचाई 130 फीट तक थी. भारत समेत कुल 14 देश प्रभावित हुए इससे. सवा दो लाख से ज़्यादा लोगों की मौत हुई. सबसे ज़्यादा नुकसान हुआ इंडोनेशिया में. अकेले इंडोनेशिया में डेढ़ लाख से ज़्यादा की मौत हुई थी. इस घटना को मानव इतिहास द्वारा झेली गई सबसे बड़ी प्राकृतिक आपदाओं में गिना जाता है.
हमने आपको तीन घटनाएं सुनाईं. इन तीनों में क्या कॉमन था? तीनों बड़ी प्राकृतिक आपदाएं थीं. तीनों में जान-माल का बहुत नुकसान हुआ. इन दो समानताओं के अतिरिक्त एक और समानता थी इन घटनाओं में. और इस कॉमेनैलिटी का नाम है- टोपोस.
ये क्या चीज है?
ये एक स्वयंसेवी संगठन है. जब भी कोई बड़ी आपदा आती है, ये मदद के लिए पहुंच जाते हैं. इनकी एक्सपर्टीज़ है, मलबे में फंसे लोगों को निकालना. जब भूकंप वगैरह के चलते इमारतें ढह जाती हैं, तो उसके नीचे आने वाले सारे लोग फ़ौरन नहीं मरते. कई बेहोश हो जाते हैं. कई इतने चोटिल हो जाते हैं कि ख़ुद को मलबे से नहीं निकाल पाते. कई इतनी बुरी तरह फंस जाते हैं कि निकलने का रास्ता नहीं मिलता.

टोपोस में अलग अलग-अलग पेशे और बैकग्राउंड्स के लोग स्वयंसेवी का काम करते हैं. (तस्वीर: एएफपी)
अगर ऐसे लोगों को जल्द सहायता मिले, मलबा हटाकर जल्द-से-जल्द रेस्क्यू कर लिया जाए, तो उनकी जान बच सकती है. यही काम करता है टोपोस. वो मलबे के नीचे दबी ज़िंदगियों को खोजता है. वहां फंसे ज़िंदा लोगों को जल्द-से-जल्द बाहर निकालने की कोशिश करता है.
हमने आपको ऊपर तीन आपदाओं के बारे में बताया. इन तीनों में टोपोस ने भी राहत कार्य किया था. इस संगठन ने और भी कई आपदाओं में अपनी सेवा दी है. भूकंप, सुनामी, लैंडस्लाइड, गैस लीक या बम धमाके जैसे ब्लास्ट के चलते बड़ी इमारतों का ढह जाना, खदान का कोलैस्प हो जाना. जब इस तरह की कोई बड़ी घटना होती है, तो इस संगठन के स्वयंसेवक घटनास्थल पर पहुंचकर मदद मुहैया कराते हैं.
कहां से आते हैं टोपोस?
नॉर्थ अमेरिका में एक देश है, मेक्सिको. यहीं का संगठन है टोपोस. मेक्सिको में बोली जाती है स्पैनिश भाषा. इसी का एक शब्द है- टोपो. क्या मतलब होता है इसका? आप छछूंदर जानते हैं? चूहे का बड़ा भाई होता है छछूंदर. उसको अंग्रेज़ी में कहते हैं, मोल. इसी को स्पैनिश में टोपो कहते हैं. और इसी टोपो का बहुवचन है, टोपोस. इन्हीं के नाम पर संगठन को अपना नाम मिला है.
आप सोचेंगे, छछूंदर भला कैसा नाम हुआ? अगर आप ये सोच रहे हैं, तो मैं आपको छछूंदर का गुण बताता हूं. वो जानवरों की दुनिया का बहुत उम्दा सिविल इंजिनियर है. साइज़ में एकदम छोटा सा होता है. लेकिन ज़मीन के भीतर सुरंगों का एक जटिल नेटवर्क खोद डालता है. इन सुरंगों को समझिए उसका अंडरग्राउंड हाई-वे सिस्टम.
टनल्स खोदना, दक्षता से रेंगते हुए संकरी सी जगह में आर-पार हो जाना. रेंगते हुए मलबे में घुसना और वहां फंसे लोगों को निकालना. टोपोस वॉलंटियर्स ऐसे ही काम करते हैं. अब आप इस संगठन के नाम का लॉज़िक समझ गए होंगे.
मेक्सिको भूकंप
अब सवाल है कि ये संगठन कब बना? क्यों बना? इसके गठन की कहानी भी एक आपदा से जुड़ी है. ये 36 साल पुरानी बात है. सितंबर 1985 में मेक्सिको के भीतर 8.1 रिक्टर स्केल का एक बड़ा भूकंप आया. अकेले राजधानी मेक्सिको सिटी में 30 हज़ार से ज़्यादा इमारतें धराशायी हो गईं.

मेक्सिको में 1985 में आया भूकंप रिक्टर स्केल पर 8.0 तीव्रता का था
इन इमारतों के मलबे तले सैकड़ों लोग फंसे थे. उन्हें जल्द-से-जल्द बाहर निकाले जाने की ज़रूरत थी. बर्बादी का स्केल इतना ज़्यादा था कि राहत कार्य संभालना अकेले सरकारी संस्थाओं के बस में नहीं था. ऐसे में कई नागरिक मदद के लिए सामने आए. इन्हीं में से कुछ आम नागरिकों ने एकदम फ़ुर्ती में एक संगठन बनाया. इन लोगों ने मलबे में फंसे लोगों को खोजने और निकालने में प्रशासन की बहुत मदद की.
आपदा बीत गई. मगर इससे जान-माल का बहुत नुकसान हुआ था. 10 हज़ार से ज़्यादा लोग मारे गए थे. ऐसे में बचाव कार्य करने वाले कुछ वॉलंटियर्स साथ बैठे. उन्होंने विमर्श किया कि उन्हें ऐसी आपदाओं के लिए एक स्वयंसेवक संगठन बनाना चाहिए. ताकि ये लोग भविष्य में होने वाली ऐसी घटनाओं के समय बिना समय गंवाए इकट्ठा हों और लोगों की मदद करें.
मगर आपदा तो कई स्तरों पर प्रभावित करती है? वॉलंटियर्स के आगे सवाल था कि वो आपदा से जुड़े किस पहलू पर काम करेंगे. बातचीत से तय हुआ कि सबसे ज़रूरी है, मलबे में फंसे ज़िंदा लोगों को रेस्क्यू करना. ताकि जिन्हें बचाया जा सकता है, बचा लिया जाए. यही सोचकर इन वॉलंटियर्स ने अपना एक संगठन बनाया. इसका नाम रखा- टोपोस.
अगले बरस, यानी 1986 में सेंट्रल अमेरिका के देश अल-सल्वाडोर में भी एक बड़ा भूकंप आया. मैप पर आप अल-सल्वाडोर की लोकेशन देखिए. मेक्सिको के ठीक नीचे बसा है गुआटेमाला. और इसी के पार है अल-सल्वाडोर. यहां भूकंप के चलते हुई तबाही की ख़बरें मेक्सिको भी पहुंची. टोपोस के वॉलंटियर्स ने सोचा कि हमको अल-सल्वाडोर भी जाना चाहिए. वहां जाकर लोगों की मदद करनी चाहिए.

1986 अल-सल्वाडोर भूकंप के कारण कई इमारतों को नष्ट हो गई और सैकड़ों लोगों की जान चली गई (तस्वीर: एएफपी)
फिर तो ये सिलसिला बन गया. स्थानीय स्तर पर शुरू हुआ टोपोस, 'रेस्काते इंटरनाशिओनल टोपोस' बन गया. रेस्काते इंटरनाशिओनल मतलब, रेस्क्यू इंटरनैशनल. यानी अब इनका दायरा बस मेक्सिको तक सीमित नहीं था. ये देश और सीमा से परे जाकर दुनिया की मदद करने लगे थे.
अपने 36 साल के अस्तित्व में ये संगठन मेक्सिको की तकरीबन हर प्राकृतिक आपदा में सेवा दे चुका है. इसने पांचों कॉन्टिनेंट को मिलाकर अब तक 70 से ज़्यादा आपदाओं में बचाव कार्य किया है. इन्होंने केवल प्राकृतिक आपदाओं में ही मदद नहीं की है. बल्कि 9/11 जैसे आतंकवादी हमले में ध्वस्त हुए वर्ल्ड ट्रेड सेंटर के मलबे से लोगों को बाहर निकाला है.
आज क्या स्पेशल है?
इसलिए कि अमेरिका में हुआ एक हादसा. यहां फ्लोरिडा नाम का एक प्रांत है. इसमें एक शहर है- मायेमी. 24 जून को देर रात करीब डेढ़ बजे यहां एक 12 मंजिला इमारत ढह गई. इसमें अब तक 12 लोगों के मारे जाने की पुष्टि हो चुकी है. लगभग 149 लोग अभी लापता हैं. आशंका है कि वो मलबे के नीचे दबे हुए हैं.
इस घटना को करीब एक हफ़्ता हो चुका है, मगर मलबे को पूरी तरह हटाया नहीं जा सका है. ऐसे में अंदर फंसे किसी सर्वाइवर के बचने की उम्मीद बहुत धुंधली हो चुकी है. बावजूद इसके लोगों ने अभी उम्मीद नहीं हारी है. रेस्क्यू की कोशिशें अब भी ज़ारी हैं.
इस हादसे के बाद मदद के लिए इज़रायल ने अपने एक्सपर्ट्स की एक टीम भेजी. मदद के लिए आने वालों में एक नाम टापोस का भी है. 28 जून को उसके भी 10 वॉलंटियर्स फ़्लोरिडा पहुंचे. उन्होंने भी मदद की पेशकश की. मगर प्रशासन ने उन्हें इसकी इजाज़त नहीं दी. इसे लेकर बीते दिन, यानी 30 जून को अमेरिकी मीडिया ने प्रशासन से सवाल भी पूछा.

मायेमी हादसे में मारे गए लोगों में एक अमेरिकी-भारतीय परिवार भी है (तस्वीर: एपी)
यहां लोकल अडमिनिस्ट्रेशन की ओर राहत कार्य की कमान संभाल रहे हैं ऐलन कॉमिन्स्की. वो मायेमी दमकल विभाग के प्रमुख हैं. 30 जून को वो एक प्रेस कॉन्फ्रेंस करके घटना से जुड़े अपडेट्स दे रहे थे. इस दौरान मीडिया ने उनसे पूछा कि टापोस को बचाव कार्य में क्यों नहीं शामिल किया जा रहा है. जवाब में कॉमिन्स्की ने कहा-
मैं जानता हूं कि हर कोई मदद करना चाहता है. मगर हमें सुनिश्चित करना होगा कि प्रशिक्षित लोग ही बचाव कार्य करें. मैक्सिको से आया वॉलंटियर ग्रुप और भी कई तरह से हमारी मदद कर सकता है.
टापोस के स्वयंसेवक निराश नहीं हुए हैं. उन्हें उम्मीद है कि प्रशासन उन्हें मदद करने देगा. इस बारे में बात करते हुए टापोस के एक वॉलंटियर ऐड्रिआन सलवाडोर ने न्यूज़ एजेंसी रॉयटर्स से कहा-
हमें उम्मीद है कि जल्द ही हमारी सहायता स्वीकार की जाएगी. तब हम घटनास्थल पर पहुंचेंगे और चुपचाप अपना काम करेंगे. हमें अपना काम करना बख़ूबी आता है.
टोपोस के वालंटीयर्स
कितनी बड़ी टीम है टोपोस की? इसमें 300 से ज़्यादा सदस्य हैं. इनके सदस्य बस मेक्सिको के नहीं हैं. एक दर्जन से ज़्यादा देशों के लोग इनकी टीम का हिस्सा हैं. ये अलग-अलग पेशे, अलग-अलग बैकग्राउंड्स के लोग हैं. ऐसा नहीं कि ये बिना किसी ट्रेनिंग के राहत कार्य करते हों. इन स्वयंसेवकों ने डिज़ास्टर रिलीफ़ की ट्रेनिंग ली हुई है. इनके पास आपातकालीन चिकित्सीय सेवा का भी प्रशिक्षण है.
ग्रुप में युवाओं से लेकर 70 पार तक के बुजुर्ग भी हैं. टीम के सबसे वरिष्ठ सदस्य हैं हेक्टर मेनडेज़. वो भी अमेरिका गई टीम में शामिल हैं. 74 साल के मेनडेज़ पेशे से अकाउंटेंट हैं. काम से छुट्टी लेकर वॉलंटियर करने जाते हैं. वो इस टीम के सबसे शुरुआती स्वयंसेवकों में से हैं. उन्होंने 'वॉशिंगटन पोस्ट' से हुई बातचीत में कहा-
1985 में आए मेक्सिको के भूकंप के समय मैंने तीन लोगों को ज़िंदा मलबे से निकाला. बस यहीं से मेरी ज़िंदगी बदल गई. मैंने तय किया कि जब भी, जहां भी कोई आपदा आएगी, मैं मदद के लिए जाऊंगा. जब आप मौत देखते हैं और आपके पास किसी की जान बचाने का मौका होता है, तो आपके भीतर मौजूद मानवता को बचाने का जज़्बा जग उठता है. आपकी ज़िंदगी बदल जाती है.
मेक्सिको के लोग टोपोस वॉलंटियर्स को नायक मानते हैं. घटनास्थल पर उनके पहुंचते ही भीड़ तालियां बजाकर उनका स्वागत करती है. बचाव कार्य करते समय जब ग्रुप के लोग हवा में हाथ उठाकर इशारा करते हैं, तो भीड़ पिन ड्रॉप साइलेंस के मोड में चली जाती है. क्यों? क्योंकि मलबे में फंसे ज़िंदा लोगों को खोजने के लिए वॉलंटियर्स को शांति चाहिए होती है. ताकि वो धीमी-से-धीमी आवाज़ सुन सकें. उनके हाथों बचाए गए लोग, उनका परिवार इन वॉलंटियर्स को देवदूत कहते हैं.
क्या राहत कार्य करना सरल है? क्या मलबे में फंसे लोगों को निकालने में कोई रिस्क नहीं? बिल्कुल है रिस्क. इस काम में जान जाने का भी ख़तरा है. मगर टोपोस के स्वयंसेवक सारे ख़तरे समझते हुए जान दांव पर लगाते हैं. उनका मोटो है कि ज़िंदगी बचाने की कोशिश में कुछ भी हो जाए, परवाह नहीं. इसी बात पर अहमद फ़राज का एक शेर याद आया. जनाब लिखते हैं-
शिकवा-ए-ज़ुल्मत-ए-शब से तो कहीं बेहतर था
अपने हिस्से की कोई शम्मा जलाते जाते...
माने, रात के अंधेरे की शिक़ायत करने से तो बेहतर था कि रोशनी जलाकर अंधेरा मिटाने की कोशिश की जाती.