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तीरथ सिंह रावत के उत्तराखंड के सीएम बनने की पीछे की कहानी

ऐसा क्या हुआ कि बीजेपी को त्रिवेंद्र सिंह रावत को हटाना पड़ा?

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Tirath Singh Rawat एक के बाद एक विवादास्पद बयान देने में जुटे हुए हैं. इस बार उन्होंने बच्चे पैदा करने को लेकर बयान दिया है.
भाजपा अपने निर्णय के बचाव के लिए अंतिम क्षण तक प्रयास करने के लिए जानी जाती है. इस पार्टी में इस्तीफे नहीं होते. इसीलिए जब भाजपा अपने किसी सूबे में मुख्यमंत्री बदले, तो इस घटना को दुर्लभ और दिलचस्प माना जाता है. भाजपा में अंदरूनी फीडबैक को कितनी गंभीरता से लिया जाता है, वो हम सबने देखा जब रमन सिंह और दुष्यंत गौतम की रिपोर्ट पर जवाब देने के लिए त्रिवेंद्र सिंह रावत को उनके बजट सत्र के बीच में दिल्ली तलब किया गया. बंद कमरों के पीछे हुई बातों का सार यही था, कि अब परिवर्तन होगा. 9 मार्च को रावत ने उत्तराखंड की राज्यपाल बेबी रानी को अपना त्यागपत्र सौंप दिया. इसके बाद से ही मीडिया संस्थान रात काली करते हुए धन सिंह रावत और अनिल बलूनी का प्रोफाइल तैयार करवाने लगे. लेकिन ये प्रोफाइल छापने से पहले नया प्रोफाइल कमीशन करना पड़ा - तीरथ सिंह रावत का प्रोफाइल. आज दोपहर तीरथ सिंह रावत को पद और गोपनीयता की शपथ दिला दी गई. पहले ये जान लेते हैं कि तीरथ सिंह हैं कौन? रावत को समझने में हमारा पहला पड़ाव है साल 2019. बीजेपी केंद्र में दूसरी बार सत्ता पाने के लिए जी जान से जुटी थी. उस समय तीरथ सिंह रावत बीजेपी के राष्ट्रीय महासचिव थे. उन्हें हिमाचल प्रदेश का प्रभारी बनाया गया था. जब उनका खुद का सांसदी का टिकट तय हुआ तो उस समय वो हिमाचल प्रदेश में बीजेपी की जीत की रणनीति बना रहे थे. तीरथ सिंह रावत को राजनीति में उत्तराखंड के पूर्व सीएम भुवन चंद्र खंडूरी का शिष्य माना जाता है. रावत को पौड़ी गढ़वाल से सांसदी का टिकट मिला. सामने थे भुवन चंद्र खंडूरी के बेटे मनीष खंडूरी जिन्हें कांग्रेस ने टिकट दिया था. उत्तराखंड में इस लड़ाई को ‘चेला’ वर्सेस चेला की लड़ाई कहा गया. कुमाऊंनी में चेला लड़के को कहते हैं. और दूसरे चेले का मतलब होता है शिष्य. राजनीतिक हलको में इस बात की चर्चा होने लगी कि खंडूरी अपने किस चेले को आशीर्वाद देंगे. चुनाव के दौरान खंडूरी चुप रहे. उनकी तबीयत ऐसी नहीं थी कि वह किसी के लिए प्रचार करते. चुनाव हुआ. नतीजे आए. तीरथ सिंह रावत ने तकरीबन तीन लाख की लीड से अपने गुरु के बेटे को हरा दिया. बेटे के हारने पर खुश होना मुश्किल है. लेकिन खंडूरी का एक हिस्सा ज़रूर खुश हुआ होगा. पौड़ी ज़िले के भाजपा नेता बताते हैं कि तीरथ सिंह रावत के जीवन पर बीसी खंडूरी की गहरी छाप रही है. उनके राजनीतिक कैरियर को खंडूरी ने ही आगे बढ़ाया और तीरथ सिंह रावत भी उनके साथ हर स्थिति में चट्टान की तरह खडे़ रहे हैं. लेकिन जब रावत खंडूरी से नहीं मिले थे, तब उनकी ज़िंदगी कैसी थी? उनका जन्म पौड़ी के एक गांव में हुआ. छह भाई-बहनों में सबसे छोटे. शुरुआती पढ़ाई जगाधरी (यमुनानगर) में हुई. यहां उनके पिता रेलवे में नौकरी करते थे. हाई स्कूल के बाद इलाक़े के एकमात्र इंटर कॉलेज में पढ़ने के लिए तीरथ जहरीखाल गए. और इसी दौरान राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के संपर्क में आए. तीरथ ने संघ में पहले स्वयंसेवक और फिर 1983 से लेकर 1988 तक प्रचारक के रूप में काम किया. प्रचारक के रूप में ही तीरथ श्रीनगर (उत्तराखंड वाला) स्थित हेमवती नंदन बहुगुणा गढ़वाल विश्वविद्यालय पहुंचे. जब संघ ने देखा कि लड़का युवाओं के बीच अच्छा तालमेल बना लेता है और इसमें संगठन के लिहाज़ से भी पोटास है, तब रावत को अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद ABVP में भेजा गया. एबीवीपी के संगठन मंत्री (उत्तराखंड) के साथ ही संगठन के राष्ट्रीय सचिव रहते हुए वह गढ़वाल विश्वविद्यालय छात्र संघ अध्यक्ष बने. उन्होंने 11-12 साल संघ प्रचारक और एबीवीपी के संगठन मंत्री के रूप में काम किया. इन्हीं दिनों तीरथ सिंह रावत पहली बार बीसी खंडूरी से मिले. उस समय अलग उत्तराखंड राज्य की मांग को लेकर आंदोलनकारी चुनाव प्रक्रिया में भाग लेने वाले हर नेता का विरोध करते थे. 1991 में खंडूरी को गढ़वाल सीट से भाजपा का टिकट मिला. तीरथ इस पूरे चुनाव में खंडूरी के साथ साए की तरह मौजूद रहे. गुरु-शिष्य के अटूट रिश्ते की पटकथा यहीं से तैयार हुई. 1991 के बाद हुए हर लोकसभा चुनाव में तीरथ सिंह रावत ही खंडूरी के चुनाव संयोजक रहे. इसके बाद आया 1995-96 का साल उस समय उत्तराखंड नहीं बना था. बीजेपी में छात्र संघर्ष मोर्चा का गठन हो रहा था. उत्तर प्रदेश के वर्तमान डिप्टी सीएम दिनेश शर्मा इसके अध्यक्ष बनाए गए. चार लोगों को उपाध्यक्ष बनाया गया. इनमें से एक थे तीरथ सिंह. उन्हें पश्चिमी उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड का प्रभार मिला. उन दिनों अयोध्या में जन्मभूमि विवाद भाजपा के कोर इशूज़ में से एक था. तो छात्र संघर्ष मोर्चा भी यात्राएं निकालता था. पुलिस रोकती, तो नेता जेल जाते. तीरथ सिंह रावत ने भी इसी तरह जेल यात्रा की. 1997 में उत्तर प्रदेश में विधान परिषद के चुनाव हुए तो बीजेपी ने उन्हें गढ़वाल क्षेत्र से विधान परिषद माने MLC चुनाव में उतार दिया. वह जीत गए. और इसी जीत ने उन्हें पहली बार मंत्री भी बनाया. साल 2000 में जब उत्तराखंड बना तो राज्य की अंतरिम सरकार में रावत को शिक्षा मंत्री बनाया गया. लेकिन इसके बाद 2002 में हुए राज्य के पहले विधानसभा चुनाव में वह पौड़ी से चुनाव हार गए. अंतरिम सरकार में मंत्री रह चुके रावत फिर कभी मंत्री नहीं बन पाए. तो वो भाजपा संगठन में एक्टिव हो गए. साल 2013 में तीरथ सिंह रावत को बीजेपी का प्रदेश अध्यक्ष बनाया गया. 2015 तक वह इस पद पर रहे. 2013 में जब उन्हें पार्टी ने प्रदेश की जिम्मेदारी दी थी तो भुवन चंद्र खंडूरी ने ही उनके नाम की सिफारिश की थी. तब भी वह त्रिवेंद्र रावत के सामने खड़े थे. तब पार्टी हाईकमान ने दोनों नेताओं को टकराव की स्थिति से बचने के लिए अपना-अपना नाम वापस लेने को कहा था. तीरथ को तब अधिकांश विधायकों का समर्थन मिला था जिसमें भुवन चंद्र खंडूरी और रमेश पोखरियाल जैसे दिग्गजों के नाम थे. तीरथ 2012 से 2017 तक चौबट्टाखाल सीट से विधायक भी रहे. लेकिन 2017 के चुनाव में सतपाल महाराज कांग्रेस छोड़कर बीजेपी में आ गए. उन्हें टिकट देने के लिए तीरथ का टिकट काट दिया गया. मीडिया में खबरें आईं कि इसके बाद वह पार्टी नेतृत्व से नाराज हो गए. कहने वाले कहते हैं कि उनकी नाराजगी दूर करने के लिए उन्हें 2017 में ही बीजेपी का राष्ट्रीय सचिव बनाया गया. उन्हें 2019 के लोकसभा चुनाव में हिमाचल प्रदेश के प्रभारी बनाए गए. पार्टी ने सूबे की चारों सीटें जीतीं. तीरथ सिंह को सीएम बनाया क्यों गया? इसका सीधा जवाब तो बीजेपी आलाकमान ही दे सकता है. जातीय और क्षेत्रीय समीकरण तो अपनी जगह हैं हीं. लेकिन रावत को करीब से जानने वाले पत्रकार कुछ और कारण भी गिनाते हैं. उत्तराखंड पर नज़र रखने वाले पत्रकार राजेश डोबरियाल ने दी लल्लनटॉप से बातचीत में बताया कि ये बीच का रास्ता है. तीरथ कम बोलने वाले और स्वभाव से शांत नेता हैं. वह बगावती तेवर भी नहीं दिखाते. सुनने में ये बातें बहुत साधारण लग सकती हैं. लेकिन जिस तरह त्रिवेंद्र सिंह रावत की कुर्सी गई, सब इन गुणों का महत्व समझ गए हैं. फिर रावत की जगह दूसरे रावत को लाने से कास्ट मेट्रिक्स जस का तस बना रहता है. अगर भाजपा को ज़रा भी उम्मीद होती कि त्रिवेंद्र रावत 2022 के विधानसभा चुनाव में कोई चमत्कार कर सकते हैं, तो उनके इस्तीफा नहीं लिया जाता. इसीलिए अब तीरथ को अपना पूरा ध्यान कुनबा संभालने के साथ साथ अगले साल होने वाले चुनाव की तैयारी में लगाना है. बतौर सीएम त्रिवेंद्र सिंह रावत का रिपोर्टकार्ड बहुत अच्छा नहीं रहा है. तो तीरथ सिंह को 1 साल में जितना हो सके, काम भी खींचना है. ताकि चुनाव में जाते हुए पार्टी के पास बताने को कुछ हो. टिप्पणीकार बताते हैं कि इसमें उनके सामने एक बड़ी समस्या आएगी - उत्तराखंड की नौकरशाही - उत्तराखंड के अधिकारियों के बारे में एक आम धारण है कि वह किसी की नहीं सुनते हैं. और ये सत्ता पक्ष और विपक्ष दोनों के नेताओं की शिकायत रही है. कांग्रेस के हरीश रावत के समय भी यही समस्य रही. ये मुद्दा विधानसभा में भी उठ चुका है. फिर पार्टी और संघ ये भी चाहेंगे कि कुंभ के लिए जैसी तैयारियों के लिए योगी आदित्यनाथ को तारीफ मिली, वैसा ही हरिद्वार कुंभ के मामले में भी हो. और इस मामले में तीरथ सिंह के पास वाकई बहुत कम समय बचा है.