ये 1950 का दशक है. केन्या पर ईस्ट इंडिया कंपनी के अत्याचारों की आधी सदी पूरी हो चली है. लोगों से जबरन बंधुआ मजदूरी कराई जा रही है. झोपड़ियों में रहने पर उन्हें ‘हट टैक्स’ देना होता है. रोज़ की ज़िल्लत और लूट-खसोट के विरोध में केन्याई लड़ाकों ने विद्रोह कर दिया, जिसे माऊ-माऊ विद्रोह का नाम दिया गया.
न्गुगी: जेल में टॉयलेट पेपर पर लिखने वाला लेखक जिसकी किताब को गिरफ्तार किया गया था
उन्हें नैरोबी की कामेती हाई-सिक्योरिटी जेल में 18 दूसरे राजनीतिक कैदियों के साथ एक ब्लॉक में रखा गया. अपनी जेल डायरी में वे लिखते हैं, "यहां मेरा कोई नाम नहीं है. मैं बस एक फाइल में नंबर हूं: K6,77." वहां, टॉयलेट पेपर के रोल्स पर, उन्होंने गीकुयु में अपना पहला उपन्यास ‘डेविल ऑन द क्रॉस’ लिखना शुरू किया.

बगावत के इन्हीं दिनों में ब्रिटिश सैनिक, लिमुरु कस्बे में पहुंचे हैं. वो लोगों को घसीट-घसीटकर हिरासत में ले रहे हैं. चारों तरफ शोर है. इसी वक्त एक सिपाही की दुनाली से निकली गोली की आवाज़ उस शोर को भेदती हुई एक नौजवान की पीठ को पार कर देती है. दरअसल सिपाही को ये बात नागवार गुज़री थी कि उसके चिल्लाने के बावजूद नौजवान ने उसकी बात नहीं सुनी.
इस नौजवान का नाम था गिटोगो. और वो ये बात इसलिए नहीं सुन पाया था, क्योंकि वो सुन ही नहीं सकता था. गिटोगो की मौत उनके भाई न्गुगी वा थ्योंगो को झकझोर गई. और फिर अगले छ: दशकों तक उनकी लेखनी ने हर ज़ुल्म का ऐसा विरोध किया कि कभी सरकार को उनके काल्पनिक उपन्यास को गिरफ्तार करना पड़ा तो कभी उन्हें 1 साल का सशक्त कारावास मिला. लेकिन यहां भी उन्होंने टॉयलेट पेपर पर पूरी किताब लिख डाली. अब ये कलम शांत हो गई है. 28 मई 2025 की देर रात 87 साल की उम्र में अमेरिका के अटलांटा में न्गुगी ने अंतिम सांस ली.

न्गुगी की कहानी शुरू होती है साल 1938 से. पैदाइश का नाम था, जेम्स थ्योंगो न्गुगी. वे औपनिवेशिक केन्या के लिमुरु कस्बे में पैदा हुए थे. परिवार बड़ा था और खेती से कमाई भी कौड़ी-धेले की ही होती थी. पेट काटकर बड़ी मुश्किल से मां-बाप ने उन्हें ब्रिटिश मिशनरियों के बोर्डिंग स्कूल में पढ़ाया. लेखिका गीता हरिहरन को दिए एक इंटरव्यू में न्गुगी ने बताया था कि एक दफ़ा सेशन पूरा होने के बाद जब वो स्कूल से घर लौटे थे तो ब्रिटिश सैनिकों ने उनका पूरा गांव ढहा दिया था. साल 1959 में, जब अंग्रेज़ केन्या को अपनी मुट्ठी में रखने के लिए एड़ी-चोटी का ज़ोर लगा रहे थे, न्गुगी पढ़ाई के लिए बगल के देश युगांडा चले गए. वहां उन्होंने मैकरेरे यूनिवर्सिटी में एडमिशन लिया, जो आज भी अफ्रीका की टॉप यूनिवर्सिटियों में गिनी जाती है.
माकेरेरे में एक राइटर्स कॉन्फ्रेंस के दौरान न्गुगी ने अपने पहले नॉवेल का मैनुस्क्रिप्ट मशहूर नाइजीरियाई लेखक चिनुआ अचेबे को दिखाया. अचेबे को वो पसंद आया और उन्होंने उसे अपने UK वाले पब्लिशर को भेज दिया. उसके बाद साल 1964 में ये मैनुस्क्रिप्ट किताब की शक्ल में आई, नाम था “Weep Not Child". ये पूर्वी अफ्रीका के किसी लेखक की अंग्रेजी में लिखा पहला बड़ा नॉवेल था, यानी इतिहास रच दिया गया था!
1952 से 1960 के बीच केन्या में हुए माऊ-माऊ विद्रोह ने उनके जीवन को बदलकर रख दिया. क्योंकि सैकड़ों-हजारों परिवारों की तरह इस दौरान न्गुगी के परिवार को भी डिटेंशन कैम्प में रहना पड़ा. 1986 में आई अपनी किताब “Decolonising The Mind” में न्गुगी ने लिखा था,
“संस्कृति के रूप में भाषा दरअसल लोगों के अनुभवों का एक सामूहिक स्मृति बैंक है.”
न्गुगी ने जैसा कहा, वैसा ही जिया भी. यही कारण था कि साल 1977 के बाद उन्होंने अंग्रेजी छोड़कर अपनी मातृभाषा गीकुयु में लिखना शुरू किया. 1977 में न्गुगी ने गुस्से से भरा उपन्यास “पेटल्स ऑफ ब्लड” लिखा. जो राष्ट्रपति केन्याटा की सरकार पर सीधा हमला था. लेकिन उसी साल उनकी गिरफ्तारी का कारण बना एक साथी के साथ लिखा उनका नाटक ‘नगाहिका न्देन्दा’ जिसका अर्थ था, “मैं शादी तब करूंगा जब मैं चाहूंगा”. ये नाटक सरकार के खिलाफ उतना खुलकर कुछ नहीं कहता था, लेकिन इसे “लोगों को उकसाने वाला" माना गया. और न्गुगी को एक साल की जेल हो गई.
उन्हें नैरोबी की कामेती हाई-सिक्योरिटी जेल में 18 दूसरे राजनीतिक कैदियों के साथ एक ब्लॉक में रखा गया. अपनी जेल डायरी में वे लिखते हैं,
"यहां मेरा कोई नाम नहीं है. मैं बस एक फाइल में नंबर हूं: K6,77."
वहां, टॉयलेट पेपर के रोल्स पर, उन्होंने गीकुयु में अपना पहला उपन्यास ‘डेविल ऑन द क्रॉस’ लिखना शुरू किया. साल 2022 में अंग्रेजी की साहित्यिक पत्रिका पेरिस रिव्यू को दिए इंटरव्यू में न्गुगी ने बताया,
"ये बहुत मुश्किल था क्योंकि मैं अंग्रेजी पर अपनी निर्भरता तोड़ रहा था. जेल में ‘डेविल ऑन द क्रॉस’ लिखते हुए मेरे सामने सबसे बड़ी दिक्कत थी एक छोटा-सा डेविल, जो अंग्रेजी की शक्ल में मेरे पास आता था. गीकुयु में लिखने की लगभग कोई परंपरा नहीं थी. तो मैं शब्दों के लिए जूझता था - जैसे 'इम्पीरियलिज्म' जैसा शब्द मेरी भाषा के पास नहीं था. अंग्रेजी का वो डेविल कहता, 'इतनी मेहनत क्यों कर रहे हो? मैं तो यहीं हूं...' “गीकुयु भाषा में एक चिकनाहट है. मैं एक वाक्य लिखता, अगली सुबह पढ़ता, तो उसका मतलब कुछ और निकलता. बार-बार मन करता कि छोड़ दूं. लेकिन फिर गीकुयु में एक और आवाज आती, मुझसे कहती, 'संघर्ष करो, हार मत मानो.”

जेल से बाहर आने के कुछ सालों बाद 1982 में वे निर्वासन में चले गए. न्गुगी का कहना था कि उन्हें पता चला है कि राष्ट्रपति डेनियल अराप मोई की पुलिस उन्हें गिरफ्तार करने और मारने की योजना बना रही हैं. इन्हीं दिनों में जब न्गुगी लंदन में निर्वासित जीवन जी रहे थे. उन्होंने अपनी मातृभाषा गीकुयु में "मातिगारी" नाम का उपन्यास लिखा. न्गुगी के लिए ये जैसे उनके निर्वासन का जवाब था, क्योंकि वे पूरी तरह अंग्रेजी बोलने वाले माहौल में बस-बढ़ रहे थे. साल 1986 में छपने के बाद केन्या में लोग इस उपन्यास के किरदार, मातिगिरी के बारे में बात करने लगे. ये किरदार आजादी की लड़ाई का सिपाही था, जो देशभर में घूम-घूमकर सच और न्याय के सवाल पूछता था.
लेकिन राष्ट्रपति डैनियल अरप मोई की तानाशाही सरकार की खुफिया एजेंसी को लगा कि कोई असली मातिगारी नाम का शख्स "अफवाह फैलाने" की हिम्मत कर रहा है. उन दिनों केन्या में "अफवाह फैलाना" गैरकानूनी था. इसलिए मातिगिरी को पकड़ने के लिए पुलिस को भेजा गया. लेकिन बाद में पता चला कि मातिगिरी तो उपन्यास का किरदार है! फिर क्या, पुलिस ने किताब को ही गिरफ्तार कर लिया.
एक बड़े ऑपरेशन में, पुलिसवालों का एक पूरा जत्था किताबों की दुकानों पर पहुंचा. वे बनावटी खरीददार बनकर गए, कहने लगे कि उनके शहर में ये किताब बिक गई, डिमांड बहुत है, इसलिए किताब दीजिए. जैसे ही दुकानदार ने किताबों का स्टॉक दिखाया, पुलिसवालों ने अपने बैज दिखाए और सारी कॉपियां जब्त कर लीं. उन दिनों केन्या में वो उपन्यास कहीं नहीं मिलता था!
द गार्जियन में छपी रिपोर्ट के मुताबिक 1982 में न्गुगी ने कसम खाई थी कि जब तक राष्ट्रपति डेनियल अराप मोई और उनकी कानू पार्टी सत्ता से बाहर नहीं हो जाती, तब तक वे अपनी मातृभूमि में कभी पैर नहीं रखेंगे. साल 2001 के लोकतांत्रिक चुनावों में डेनियल की सत्ता से रुख्सती के बाद वे अगस्त 2004 में अपने 1,000 पन्नों के उपन्यास “Wizard of the Crow” के पहले खंड का विमोचन करने के लिए वापस लौटे. इस यात्रा को अभी एक पखवाड़ा ही बीता था कि उनके हाई सिक्योरिटी अपार्टमेंट परिसर में चार लोगों ने हमला कर दिया. न्गुगी को पीटा गया और उनके चेहरे को सिगरेट से जलाया गया. उनकी पत्नी न्जेरी का बलात्कार किया गया.
इस घटना के बाद तीन सुरक्षा गार्ड और न्गुगी के एक भतीजे को हिंसा के साथ डकैती और बलात्कार के एक मामले में रिमांड पर लिया गया. इस घटना पर न्गुगी का कहना था, “यह राजनीतिक हमला था. इस पूरी बात का उद्देश्य यदि हमें समाप्त करना नहीं तो अपमानित करना जरूर था.”
1995 में न्गुगी को प्रोस्टेट कैंसर हुआ था. और 2019 में उनकी ट्रिपल हार्ट बायपास सर्जरी हुई थी. न्गुगी के नौ बच्चे थे, जिनमें से चार बच्चे टी न्गुगी, मूकोमा वा न्गुगी, न्दुचु वा न्गुगी और वंजीकु वा न्गुगी पेशे से लेखक हैं.
साल 2021 में उनके कवितानुमा उपन्यास "द परफेक्ट नाइन" को अंतरराष्ट्रीय बुकर पुरस्कार के लिए नॉमिनेट किया गया था. वे ऐसे पहले लेखक थे जो किसी अफ्रीकी भाषा में लिखकर बुकर के लिए नॉमिनेट हुए थे. इसके अलावा बुकर के 16 साल के इतिहास में अपने ही अनुवाद के लिए नॉमिनेट होने वाले वे पहले लेखक थे. वर्ना अमूमन लेखक और अनुवादक अलग-अलग व्यक्ति होते हैं. उन्होंने “Dreams in a time of War” और "Decolonising the Mind" जैसी शानदार किताबें लिखी हैं. उनका लिखा केन्या के एक औपनिवेशिक राष्ट्र से लोकतांत्रिक राष्ट्र में हुए बदलाव की यात्रा की गहरी पड़ताल करती है.
न्गुगी का जाना पूर्वी अफ्रीकन साहित्य में एक बड़ा सूनापन छोड़ गया है. अगर आप उनकी लिखी कोई एक किताब पढ़ना चाहें तो Weep Not, Child जरूर पढ़ें. ये माऊ-माऊ विद्रोह का एक मार्मिक दस्तावेज है.
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