रिपोर्टर की डायरी | वर्ल्ड सेक्स वर्कर्स डे | 2 जून 2025… वो दोपहर चुभ रही थी. पुरानी दिल्ली की तंग गलियों से होती हुई मेरी बाइक एक लाल रंग के पर्दे के पास रुकी. यही है- जीबी रोड, दिल्ली का रेडलाइट इलाका. यहां रिपोर्टिंग का अनुभव पहली बार नहीं था, लेकिन इस बार मकसद अलग था. वर्ल्ड सेक्स वर्कर्स डे पर मैं जानना चाहता था उन औरतों के बारे में, जो इस बदनाम पेशे में रहते हुए 40 साल की उम्र पार कर चुकी हैं. लेकिन अब वे किसी की ‘चॉइस’ नहीं, बल्कि ‘मजबूरी’ बन चुकी हैं.
Ground Report: रेडलाइट गलियों की सेक्स वर्कर्स जब अधेड़ हो जाती हैं फिर उनका क्या होता है?
भारत में सेक्स वर्क पूरी तरह अवैध नहीं है. लेकिन इसमें काम करने वालों की जिंदगी पूरी तरह बर्बाद है. ज्यादातर महिलाएं मजबूरी के हालात के चलते इसमें आती हैं. उन्हें कोई कानूनी पहचान, सुरक्षा, मदद नहीं मिलती.

एक कमरे में लेटी मिलीं रुख्साना (बदला हुआ नाम). उम्र 46 के आसपास. उनकी आंखों में थकान थी, चेहरे पर बिना कहे एक कहानी.
अब तो कोई आता भी नहीं... कमर भी जवाब देने लगी है, पर गुज़ारा कैसे हो?
रुख्साना ने धीरे से कहा, “मेरे लिए अब हर दिन एक चुनौती है-काम नहीं है, सहारा नहीं है, और समाज तो था ही नहीं.”
दिल्ली से आगरा तक, वही हालकुछ दिन पहले मैं आगरा में था. यहां के रेडलाइट एरिया के कमरा नंबर 27 में मिलीं मीरा (बदला नाम). उनके दो बच्चे हैं, जो ननिहाल में पल रहे हैं. मीरा पहले तो बात करने के लिए तैयार नहीं हुईं. लेकिन कुछ देर बाद मान गईं. मीरा की बातों से पता चला कि उनका हाल भी रुख्साना जैसा ही है. वो बताती हैं,
पहले दिन में चार-छह ग्राहक आते थे, अब हफ्ते में एक भी नहीं. बुढ़ापे में तो ग्राहक भी पूछते हैं- 'नई लड़की है क्या?'... हम तो बस छांट दी गईं.
भारत में सेक्स वर्क पूरी तरह अवैध नहीं है. लेकिन इसमें काम करने वालों की जिंदगी पूरी तरह बर्बाद है. ज्यादातर महिलाएं मजबूरी के हालात के चलते इसमें आती हैं. उन्हें कोई कानूनी पहचान, सुरक्षा, मदद नहीं मिलती. 2022 में सुप्रीम कोर्ट ने ज़रूर कहा कि सहमति से काम करने वाली सेक्स वर्कर्स को परेशान न किया जाए, लेकिन क्या जमीनी स्तर पर कुछ बदला? इसका सच भी इन अधेड़ उम्र की सेक्स वर्कर्स का हाल देखकर पता चला.
बीमारियां, बेइज़्ज़ती और बेबसीइनकी उम्र बढ़ रही है, साथ में बढ़ रही हैं बीमारियां, अकेलापन और गरीबी. कोई कहता है- “बुढ़िया अब क्यों बैठी है?”, तो कोई पूछता है- “अब तो शर्म आनी चाहिए.”
और स्वास्थ्य सेवाएं? नहीं मिलतीं.
सरकारी योजनाएं? कागज़ों में हैं.
बच्चों का सहारा? नहीं रहा.
हालांकि कुछ प्रयास हो रहे हैं. गोवा में ‘प्रभात’ योजना है. इसके तहत सेक्स वर्कर्स को कौशल प्रशिक्षण दिया जाता है. कोलकाता में DMSC (दुर्बार महिला समन्वय समिति) जैसी संस्थाएं हैं, जो स्वास्थ्य और शिक्षा के मोर्चे पर मदद करती हैं. लेकिन दिल्ली और आगरा की इन बदनाम गलियों की ‘रुख्सानाओं’ और ‘मीराओं’ तक ये योजनाएं अब भी नहीं पहुंचतीं.
क्या किया जा सकता है?यूं तो इसकी एक लंबी फेहरिस्त है, मगर शुरुआत में ये चंद चीजें ही हो जाएं तो बहुत है. मिसाल के तौर पर-
- पूरी कानूनी मान्यता-ताकि उन्हें भी श्रमिकों जैसे अधिकार मिलें.
- पेंशन, हेल्थ कार्ड, राशन और आवास-न्यूनतम ज़िंदगी की गारंटी.
- पुनर्वास योजनाएं- जिनके पास अब कोई विकल्प नहीं, उन्हें विकल्प दिए जाएं.
रेडलाइट गलियों की रौशनी अब फीकी पड़ती जा रही है. उसमें काम करने वाली उम्रदराज़ औरतें धीरे-धीरे गुमनाम अंधेरे में जा रही हैं.
आज वर्ल्ड सेक्स वर्कर्स डे है. अगर आज भी हम उनकी तरफ नहीं देखेंगे, तो शायद कल वो होंगी ही नहीं-और तब कोई कहेगा,
“हमने कभी देखा ही नहीं, सुना ही नहीं… कि वो भी थीं.”
संवाददाता की ग्राउंड रिपोर्ट पर आधारित. नाम और स्थान पहचान छिपाने के लिए बदले गए हैं.
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