रिकार्डिंग स्टूड़ियों में जाने से ठीक पहले तक मेरे मन में यह सवाल घूम रहा था कि एक कविता को आवाज़ देने का क्या अर्थ है? एक मृतक, पूर्वज कवि की कविता को आवाज़ देने के अर्थ से अलग सवाल यह था कि कविता को आवाज़ देने का क्या अर्थ है? क्या मैं एक डबिंग आर्टिस्ट जैसा काम करने जा रहा हूं जो एक किरदार को आवाज़ देने के क्रम में उस किरदार को और अपने को ढूंढ़ता है? क्या कविता की, बिना उसे ध्वनयांकित हुए भी, अपनी एक आवाज़ नहीं होती? क्या उसे पढ़ने और आवाज़ देने में उस आवाज़ को आवाज़ देना होता है? दोस्तो, मैं हिंदी के एक प्रसिद्ध, प्रतिष्ठित कवि श्रीकांत वर्मा की चुनी हुई कविताओं को आवाज़ देने जा रहा था. तीन साल से एक ऐसी जगह काम करते हुए जहां रोज़ किताबों को आवाज़ में बदलने का काम होता है मैंने कभी किसी किताब को अपनी आवाज़ नहीं दी थी ना कभी सोचा था. मैं दीगर काम कर रहा था और कमोबेश ख़ुश था. मेरी बहुत-सी प्रिय किताबें रिकार्ड होती रहीं और मैं उन्हें सुनकर नये ढंग से अपने पास आते और दूर जाते देखता रहा. यह भी एक ‘यूं ही’ आया ख़याल था कि मैं कविता की एक किताब करता हूं और उस वक़्त प्रोडक्शन के लिए श्रीकांत वर्मा की किताब का नम्बर था. यानी चयन नहीं था, व्यावहारिक वजह थी. बहुत सम्भव है कि मैं इसके बजाय परवीन शाकिर या केदारनाथ सिंह या दुष्यंत कुमार की किताब को आवाज़ दे रहा होता. वायस के रूप में यह मेरी पहली किताब भले हो लेकिन मैंने अपने जीवन में, एक साहित्य अध्यापक के तौर पर बरसों क्लास रूम के उस जटिल एकांत में पढ़ी गई अनगिनत कविताओं के अलावा भी, सार्वजनिक रूप से आक़्तोवियो पाज़, चेस्लाव मिवोश, नेरूदा, नवीन सागर, संजीव मिश्र और बहुत से दूसरे कवियों की कविताओं का पाठ किया है और हर बार यह सवाल धमनियों में घूमता रहा है कि एक कविता को आवाज़ देने का अर्थ क्या है? क्या हम उसे और बहुत-से अन्यों तक प्रसारित करते हैं या हर पाठ में वह ‘बूमरैंग’ करके हमारे ही भीतर के किसी पत्थर से टकराती है? क्या आवाज़ देने का अर्थ उसे उसके मूल लेखक की अथॉरिटी से थोड़ा-सा, थोड़ी-देर के लिए दूर करके ‘अपना’ बना लेना होता है? ज़ाहिर है यह मेरे अपने मन के ‘एबस्ट्रेक्ट’ झंझट हैं और इसमें आपको और घसीटना उचित नहीं होगा. आख़िर में लेकिन यह ज़रूर बताऊंगा कि इस धमनियों में घूमते सवाल का कोई जवाब मुझे मिला या नहीं. आपके लिए ज़्यादा काम की बात यह होगी कि मैं आपको श्रीकांत वर्मा के बारे में थोड़ा बताऊं और उनकी कविता के बारे में भी. श्रीकांत वर्मा 1931 में पैदा हुए, लेखक होने के अलावा राजनेता और संसद सदस्य थे, उन्हें कई प्रमुख सम्मान मिले और सिर्फ़ पचपन बरस की उम्र में कैंसर से उनकी मृत्यु हो गयी. उनकी शुरू की कविताएं ग़ुस्से और ऊब और एनार्किज़्म की कविताएं हैं, बीसवीं शताब्दी के दूसरे हाफ़ में एक समय था दुनिया के प्रति, अस्तित्व के प्रति, उसकी एबसर्डिटी के प्रति एक ख़ास तरह के रेस्पोंस का. उसके कई रूप थे, बीट, हिप्पी और एक वह जो श्रीकांत में था. दरअसल आज उनके कवि की असली लेगेसी उनकी आख़िरी किताब ‘मगध’ से है. इसमें एक नये, विराट, क्लासिक़ी ढंग से वह अपने समय, समाज और राजनीति की समीक्षा करते हैं लेकिन वैसे जैसे कविता करती है. वे इसमें इतिहास, पुराण और अस्तितिव के टाइमलेस आयामों में बोलते हैं. बहुत सारे लोगों को लगता है श्रीकांत को अपनी आवाज़ ‘मगध’ में आकर ही मिली. इतना बहुत है इससे ज़्यादा बताना स्पाइल करना होगा. अगर दिलचपी हो तो आपको उनकी कविताएँ, और ख़ासकर ‘मगध’ ढूंढ़ कर पढ़नी या सुननी चाहिए, अंग्रेज़ी अनुवाद में भी उपलब्ध है. तो वापिस लौटते हैं धमनियों और सवाल की तरफ़. क्या मुझे पता चला कि कविता को आवाज़ देने का क्या अर्थ होता है? मुझे तीन सिटिंग लगी यह किताब रिकार्ड करने में. शुरू में मुझे लगा यह कविता मेरे लिए अर्थहीन है और ऐसा इसलिए है कि मैं उसे ‘चुपचाप’ पढ़ नहीं रहा बल्कि आवाज़ में बदल रहा हूं, आवाज़ में बदलने की प्रक्रिया में ही वह मेरे लिए अर्थहीन होती जा रही है. हेडफ़ोन से लौटती अपनी आवाज़ में यह कविता न श्रीकांत की थी न मेरी. मैंने हफ़्ते भर के लिए काम रोक दिया. दूसरी बार जाने से पहले पूरी किताब को कई बार ‘चुपचाप’ पढ़ा और ख़ुद को कहा तुम आवाज़ नहीं हो. इस बार पढ़ते हुए मैंने घड़ी, रिकार्डिस्ट और पसीने के बारे में ध्यान नहीं दिया. इस कविता में अमेरिका, अफ़्रीका, कम्बोडिया, वियतनाम बीसवीं शती का चलचित्र था. और धीरे धीरे यह अपने भीतर और मगध के क़रीब जा रही थी. वसंतसेना के साथ सीढ़ियों पर उतर और चढ़ रही थी, शकटार सिहर रहा था, मगध में विचार की कमी थी और मगध में ही विचार पल रहा था शत्रु की तरह. और अंत में यह रोहिताश्व थी और नहीं थी. याद आया हिंदी कवि अरुण कमल ने मगध को श्रीकांत के राजनैतिक जीवन और तत्कालीन सत्ता व्यवस्था से जोड़ते हुए लिखा था कि यह एक सत्तापुरुष के मोहभंग की कविता है. इस सब को अपनी आवाज़ में कहते हुए मुझे लगा मैं इस कविता में कही गयी कहानी और इसके पात्रों से नहीं उससे कनेक्ट करने की कोशिश कर रहा हूँ जिसने यह रचा है. कविता को आवाज़ देने का अर्थ है कवि की आवाज़ को सुनना. वसंत सेना, कालिदास, शकटार, अमात्य, हुमायूँ, बाबर, समरकंद नहीं, श्रीकांत की आवाज़. अपनी आसन्न मृत्यु की पदचाप सुनती हुई आवाज़. अपनी आसन्न मृत्यु में एक सभ्यता का मरण सुनती हुई आवाज़. और तभी लगा श्रीकांत में यह आवाज़ उनकी अपनी नहीं, यह महाभारतकार की आवाज़ है. धर्म और अधर्म का, नीति और अनीति का, न्याय और अन्याय का यह बोध महाभारतकार का है. यह आवाज़ महाभारतकार की है. श्रीकांत एक वाद्य हैं. और मैं बस एक एवजी डबिंग आर्टिस्ट. श्रीकांत वर्मा की कविताएं गिरिराज की आवाज़ में सुनने के लिए इस लिंक पर जाएं. (लेखक, सम्पादक, प्रकाशक और आयोजक, फ़िलहाल स्टोरीटेल इंडिया में हेड, हिंदी स्ट्रीमिंग.)
वीडियो- 'पार्टनर तुम्हारी पॉलिटिक्स क्या है?'
'मुझे क्षमा करना कवि मेरे, तब से अब तक भटक रहा हूं'
श्रीकांत वर्मा की कविता 'भटका मेघ' सुनिए.
