"कौन सी बात कहां, कैसे कही जाती है ये सलीक़ा हो, तो हर बात सुनी जाती है"
मिलिए 50 हज़ार किसानों के बूते फडणवीस सरकार को झुकाने वाले अशोक ढवले से
ऑल इंडिया किसान सभा के अध्यक्ष, जिन्होंने एक किसान आंदोलन को सफलता तक पहुंचाया.

हर क्षण चरित्र बदलते न्यूज़ चैनलों और इंसान की फितरत जितनी तेज़ी से नीचे सरकती मोबाइल स्क्रीनों के दौर में बहुत मुमकिन है कि जब वसीम बरेलवी साहब के इस शेर को किसानों के संदर्भ में लिखा जाए, तो भावनाएं मुंह बिचका लें. शायद इसीलिए साफगोई की सनक वाले किसी ने 'उदाहरण सहित व्याख्या' का प्रावधान ईजाद किया होगा.
किसानों को अपनी बात कहने का सलीका है या नहीं, इस पर विद्वान पाठकों में मतभेद हो सकता है. इन पाठकों को नैतिकता से बंधी नवीनता को स्थापित सिद्धांतों की अवहेलना नहीं समझना चाहिए.

नासिक से मुंबई तक निकाला गया किसानों का लॉन्ग मार्च, जिसकी अगुवाई ऑल इंडिया किसान सभा कर रही थी.
पहला उदाहरण: दिल्ली में तमिलनाडु के किसान
मार्च 2017 में तमिलनाडु के ढेर सारे किसान कर्ज माफी की फरियाद लेकर दिल्ली पहुंचे. जंतर-मंतर पर उन्होंने केंद्र और राज्य सरकार के खिलाफ विरोध जताने का शायद ही कोई तरीका छोड़ा हो. उन्होंने आत्महत्या कर चुके किसानों की खोपड़ियां गले में डालीं, आधे नंगे हुए, सिर और मूंछों के आधे बाल मुंडाए, मुंह में मरे हुए चूहे दबाए, तपती सड़क पर नंगे बदन लोटे और आखिर में अपना ही पेशाब पीने लगे. 23 अप्रैल को उन्हें अपना 41 दिनों का प्रदर्शन रोकना पड़ा. जुलाई में ये किसान 100 दिन धरना देने का संकल्प लेकर फिर दिल्ली पहुंचे, लेकिन प्रधानमंत्री के दफ्तर के रास्ते में पुलिस ने इन्हें हिरासत में ले लिया. इस दौरान मद्रास हाईकोर्ट ने तमिलनाडु सरकार को किसानों की कर्ज-माफी के निर्देश भी दिए, लेकिन 3 जुलाई 2017 को सुप्रीम कोर्ट ने इस पर रोक लगा दी. अंतत: तमिलनाडु के किसानों का ये आंदोलन बिना किसी नतीजे के खत्म हो गया.

तमिल किसानों ने विरोध जताने के लिए आधे बाल मुंडा लिए, मुंह में मरे चूहे दबाए, नंगे हो गए, उन्होंने किसी को नुकसान नहीं पहुंचाया.
दूसरा उदाहरण: मुंबई में महाराष्ट्र के किसान
6 मार्च 2018 को महाराष्ट्र के नासिक जिले से 25 हज़ार किसान और आदिवासी मुंबई में विधानसभा का घेराव करने निकले. इनकी मांग थी कि किसानों का कर्ज पूरी तरह माफ किया जाए, जंगल जमीन अधिकार कानून को लागू करके सदियों से आदिवासी किसान जोत रहे जमीन का मालिकाना हक़ उन्हें मिल जाए, उनके लिए पेंशन शुरू की जाए, स्वामिनाथन कमेटी की सिफारिशें लागू कर फसल की लागत का डेढ़ गुना दाम उन्हें दिया जाए. करीब 200 किमी का ये सफर किसानों ने पैदल तय किया और मुंबई में दाखिल होते-होते इनकी तादाद दोगुनी याने 50 हज़ार से ज्यादा हो चुकी थी. इस बीच किसी तरह का कोई बवाल-विवाद नहीं हुआ. ज़मीनें खून से लाल हुईं, लेकिन वो नंगे पैर चल रहे किसानों के फटे पैरों से रिसा हुआ खून था. मुंबई में एग्ज़ाम देने वाले बच्चों को जाम से बचाने के लिए किसान रातभर पैदल चले. नतीजा ये निकला कि देवेंद्र फडणवीस सरकार ने लिखकर दिया कि जंगल ज़मीन छः महीनों के अन्दर जोतने वाले आदिवासी किसानों के नाम पर की जाएगी, 2001 के बाद के कर्ज माफ होंगे, फसल का न्यूनतम मूल्य बढ़ाने के लिए राज्य की कृषि मूल्य समिति गठित करके उस पर किसान सभा के दो प्रतिनिधि लिए जायेंगे और पेंशन बढ़ाने का तीन महीने में ऐलान किया जाएगा. इन वादों के साथ किसान वापस लौटे, लेकिन ये बोलकर कि अगर 2017 की तरह सरकार इस बार भी मुकरी, तो वो दोबारा आएंगे.

नंगे पैर चलने से किसानों के पैरों का ये हाल हो गया. वो 200 किमी चले और यूं सड़कों पर सोए. इन्हें राजनीति से प्रेरित, नक्सली और गद्दार भी बताया गया.
वसीम साहब कहते हैं कि गज़ल वालों से पूछो कि कैसे हर बात सलीके से कही जाती है. अब अगर कोई गज़ल वालों की जगह किसान लिख दे, तो वसीम साहब को शायद ही आपत्ति हो.
किसान... बेचारे नहीं हैं. वो तकलीफ से बरी होने के लिए खुदकुशी कर लेते हैं, पर वो सब बेचारे नहीं हैं. वो किसान हैं. मिट्टी से छातियों को फौलाद बना चुके किसान. उन्हें बसों में आग लगाने की ज़रूरत नहीं होती, उन्हें किसी का सिर काटने पर 5 करोड़ का इनाम नहीं रखना पड़ता. मौका पड़ने पर वो इंचों में न नापे जा सकने वाले अपने फेफड़े फुलाते हैं और काम हो जाता है. उन्हें बस किसी ऐसे की ज़रूरत पड़ती है, जो उन्हें संगठित कर सके. चैनलाइज़ करके खड़ा कर सके. जैसा भारतेंदु हरिश्चंद्र कहते हैं, 'हमारे हिंदुस्तानी लोग रेल की गाड़ी हैं. ये बिना इंजन के नहीं चल सकतीं. हिंदुस्तानी लोगों को कोई चलाने वाला हो, तो ये क्या नहीं कर सकते.'
महाराष्ट्र में सरकार को झुका लेने वाले इन किसानों की रेलगाड़ी में भी एक इंजन लगा था. अशोक ढवले.

अशोक ढवले
ढवले के बारे में पढ़ने से पहले उनकी एक बात अपने दिमाग की दीवारों पर मज़बूती से चस्पा कर लीजिए. ढवले ने ज़िंदगी में जितने आंदोलन, जितना संघर्ष किया, वो सब अकेले नहीं किया. लोग थे, टीम थीं, जिनके बूते सब मुकम्मल हो पाया. ये 'ट्रंबो' फिल्म जैसा है. हॉल के परदे पर सिर्फ डॉल्टन ट्रंबो का संघर्ष दिखता है, लेकिन ज़िंदगी की स्क्रीन पर सब अपने-अपने हिस्से का संघर्ष कर रहे थे. शुरुआत करेंगे एक किस्से से.

ऑस्कर विजेता स्क्रिप्ट राइटल डॉल्टन ट्रंबो (बाएं) और फिल्म 'ट्रंबो' में उनका किरदार निभाते ब्रायन क्रान्स्टन.
साल 1971. मुंबई के टोपीवाला नेशनल मेडिकल कॉलेज में 19 साल का एक लड़का टीबी के मरीज़ों को देख रहा है. उसे इस टीएन मेडिकल कॉलेज और नायर हॉस्पिटल में दो साल हो रहे हैं. मरीज़ों की लगातार खराब हालत देखते-देखते उसे इतना समझ आ गया है कि सिर्फ इलाज से इनका कुछ नहीं होगा. क्योंकि बीमारियों की असली वजह तो इनके घरों में पली है, जिसे ये खाने की थाली में रखने से लेकर बिस्तरों में साथ लेकर सोते हैं. इलाज से ज़्यादा ज़रूरत गरीबी दूर करने की थी, जिसे इंदिरा गांधी नारा बनाकर चुनाव जीत चुकी थीं. लेकिन, तब से अब तक गरीबी दूर होने के बजाय बढ़ती ही गई.

टोपीवाला मेडिकल कॉलेज की पहली इमारत
वो लड़का अपने कुछ साथियों के साथ इन मरीजों के घर गया. बंबइया भाषा में कहें, तो चॉल. एक-एक कमरे के घर, जिनमें 15-15, 20-20 लोगों की रिहाइश है. पैसा नहीं है. खाना मिल गया तो ठीक, वरना क्या ही कर लेंगे. जब एक कमरा ही घर हो, तो गंदगी सिर्फ कोनों तक महदूद नहीं रहती. बच्चे टीबी से जूझ रहे हैं और बड़े उनके दर्द से. यही वो अनुभव थे, जिन्होंने एक डॉक्टर पिता के उस डॉक्टर बेटे के मन में इलाज के अलावा भी कुछ करने के बीज बो दिए. तब से अब तक करीब 5 दशक होने को आए हैं. अगर गरीबी ने हार नहीं मानी है, तो हार उस लड़के ने भी नहीं मानी है.

मुंबई की एक चॉल
वो लड़का अब 65 साल का हो चुका है, डॉक्टर से किसानों का नेता बन चुका है, बीमारियों के बाद अब सरकारों और पॉलिसियों का इलाज कर रहा है. नाम है अशोक ढवले.
सेंट जेवियर्स में पढ़ा लड़का, जिसकी ज़िंदगी मरीज़ों को देखकर बदल गई
ढवले की कहानी में मुंबई मुख्य किरदार है, जहां 14 जुलाई 1952 को उनका जन्म हुआ. एक मध्यमवर्गीय परिवार, जहां पिता डॉ. मित्रचंद ढवले ऊपर से सख्त और अंदर से नर्म थे. अशोक अपनी मां निशा ढवले का नाम एक-एक अक्षर बोलकर बड़े प्यार से बताते हैं. वो मुंबई में ही पले-बढ़े और शुरुआती पढ़ाई हुई सेंट जेवियर्स हाईस्कूल से. बातचीत में सहज ही सवाल उठा कि डॉक्टरी पढ़ने खुद गए थे या पिता ने जबरन भेजा था. अशोक बताते हैं कि पिता को देखकर ही इस फील्ड में जाने का सोचा. वैसे असल मकसद साइकियाट्री था, डॉक्टरी तो बस सीढ़ी थी, जो लंबी खिंच गई. तो साल 1969 में ढवले टीएन मेडिकल कॉलेज & नायर हॉस्पिटल पहुंच गए.

राजस्थान में ढवले
नायर हॉस्पिटल के अनुभवों ने ढवले को एक्टिविज़्म की तरफ मोड़ दिया. कॉलेज में उन्होंने छात्रसंघ चुनाव लड़े. एक साल मैग्ज़ीन सेक्रेटरी रहे. फिर जनरल सेक्रेटरी का चुनाव भी जीते. डिबेट कॉम्पिटीशन वगैरह में भाग लेते थे, पर अभी बात संगठन के स्तर तक नहीं पहुंची थी. 1975 में MBBS पूरा हो गया और प्रैक्टिस भी शुरू हो गई. चॉल से लेकर प्रैक्टिस तक में मरीज़ों की हालत देखकर ढवले समझ गए थे कि गरारी इलाज पर नहीं, पॉलिसी-लेवल पर फंसी है. फिर किताबों में बैठे मार्क्स और लेनिन से मुलाकात हुई और 1978 में ढवले स्टूडेंट फेडरेशन ऑफ इंडिया (SFI)का हिस्सा बन गए.

SFI का एक पोस्टर
SFI भारत की कम्युनिस्ट पार्टी, मार्क्सिस्ट (CPIM) की स्टूडेंट विंग है, जो देश की तमाम यूनिवर्सिटी में होने वाले छात्रसंघ चुनावों में शामिल होती है. इसका दावा है कि 43 लाख सदस्यों के साथ ये दुनिया का सबसे बड़ा छात्र संगठन है. भारत में इसकी स्थापना 1970 में त्रिवेंद्रम में हुई थी. इसका मोटो है: पढ़ाई और लड़ाई. एक नारा भी है, 'लड़ो पढ़ाई करने को, पढ़ो समाज बदलने को.'
फिर शुरू हुआ छात्र राजनीति का दौर
ढवले बताते हैं कि SFI उन्होंने बाद में जॉइन किया था, जबकि CPI(M) वो थोड़ा पहले ही जॉइन कर चुके थे. CPI(M) में वो चार दशक पूरे कर चुके हैं. बातचीत में वो ऑल इंडिया किसान सभा (AIKS) और डेमोक्रेटिक यूथ फेडरेशन ऑफ इंडिया (DYFI) जैसे जन-संगठनों के अपने सफर को CPI(M) के सफर से अलग रखते हैं. हालांकि, काफी वक्त तक वो इन सारे संगठनों में एक साथ रहे हैं. कब कहां रहकर क्या किया, इसकी कहानी आगे.
MBBS के बाद भी ये बात ढवले के मन में लगातार कुलबुलाती रही कि सिर्फ मेडिकल प्रैक्टिस काफी नहीं है और जो किए जाने की ज़रूरत है, उसके लिए राजनीति को और पढ़ने-समझने की ज़रूरत है. ये ज़रूरत उन्हें बॉम्बे यूनिवर्सिटी ले गई, जहां उन्होंने MA:पॉलिटिकल साइंस में दाखिला लिया. बॉम्बे यूनिवर्सिटी में एक पोस्ट ग्रेजुएट स्टूडेंट्स यूनियन (PGSU) है. इसके चुनाव में सिर्फ मास्टर्स और डॉक्टरेट कोर्स के स्टूडेंट वोट डालते हैं. ढवले SFI का झंडा थामकर इसके चुनाव लड़े. एक बार वाइस-प्रेसिडेंट चुने गए और अगली बार प्रेसिडेंट चुने गए.

1857 में स्थापित हुई बॉम्बे यूनिवर्सिटी भारत की पहली स्टेट यूनिवर्सिटी है.
1980 से लेकर 1988 तक ढवले SFI के महाराष्ट्र के जनरल सेक्रेटरी रहे. 1981 से 1989 के बीच वो SFI के नेशनल वाइस प्रेसिडेंट भी रहे. 1984 से 1986 के बीच सीताराम येचुरी SFI के राष्ट्रीय अध्यक्ष थे. आंध्र से आने वाले येचुरी SFI के पहले अध्यक्ष थे, जिनका वास्ता पश्चिम बंगाल और केरल से नहीं था. ढवले बताते हैं कि 1981 में मुंबई में SFI की ऑल इंडिया कॉन्फ्रेंस हुई थी, जिसकी सभा में केरल के मुख्यमंत्री ई. के. नायनार मुख्य वक्ता थे.

ई के नायनार
मुंबई की वो ऐतिहासिक ट्रेड यूनियन हड़ताल
1982 वो साल है, जब मुंबई में मिल मज़दूरों की डेढ़ साल की ऐतिहासिक हड़ताल हुई थी. ट्रेड यूनियन लीडर दत्ता सामंत (डॉक्टर साहब) की अगुवाई में 100 से ज़्यादा टेक्सटाइल मिलों के करीब ढाई लाख मिल मजदूर हड़ताल पर बैठ गए थे. वो तनख्वाह बढ़ाने और बोनस देने की मांग कर रहे थे. नतीजा ये निकला कि मुंबई की करीब 80 मिलें बंद हो गईं और लगभग डेढ़ लाख लोग बेरोज़गार हो गए. दत्ता सामंत भी पेशे से डॉक्टर थे. वो मज़दूर बस्तियों में प्रैक्टिस के दौरान मज़दूर आंदोलन की चपेट में आ गए थे.

डॉ. दत्ता सामंत
उस समय बॉलीवुड में टेक्सटाइल मज़दूरों की हड़ताल की थीम पर फिल्म बनने का ट्रेंड बन गया था. ये ढवले की ट्रेनिंग का दौर था. वो याद करते हैं कि मज़दूर हड़ताल पर थे, तो उन्हें तनख्वाह नहीं मिल रही थी. इससे उनके परिवारों की हालत खराब हो गई थी. SFI के महाराष्ट्र स्टेट सेक्रेटरी की हैसियत से उन्होंने जनता से पैसा इकट्ठा करने के लिए आंदोलन चलाया. जो पैसा मिला, उससे मज़दूर परिवारों के बच्चों के लिए कॉपी-किताबों का इंतेज़ाम हुआ. हालांकि, इस हड़ताल ने मुंबई की टेक्सटाइल इंडस्ट्री के एक हिस्से को खत्म ही कर दिया.

1982 में हड़ताल करते मज़दूरों की एक तस्वीर
किसानों से पहला साबका कब हुआ?
महाराष्ट्र के किसान आंदोलन में सबसे पहला नाम आता है गोदावरी परुलेकर का, जो राज्य की सबसे बड़ी किसान नेता थीं. परुलेकर आज़ादी से पहले ठाणे में आदिवासी किसानों को लामबंद करके ब्रिटिश सरकार की नाक में दम कर दिया था. बाद में उन्होंने एक किताब लिखी, जिसका नाम है, 'जब किसान जाग उठा'. वो 1986 में AIKS की राष्ट्रीय अध्यक्ष बनी थीं. ढवले SFI का हिस्सा रहते हुए गोदावरी से मिले. उनके साथ ढवले को ठाणे के आदिवासियों के आंदोलन में जाने का मौका मिला. वहां उन्होंने ज़मीन और वेतन के संघर्ष नजदीक से देखे. ढवले याद करते हैं कि वो उस समय काफी जूनियर थे, लेकिन आदिवासियों के लड़ाकूपन ने उन्हें बांध दिया. उस समय तक ढवले AIKS को बाहर-बाहर से ही छू रहे थे, लेकिन गोदावरी उन्हें किसानों के बीच और अंदर जाकर काम करने के लिए लगातार प्रेरित कर रही थीं.

गोदावरी परुलेकर. दाईं तस्वीर में किसानों के बीच.
1989 में ढवले डेमोक्रेटिक यूथ फेडरेशन ऑफ इंडिया (DYFI) से जुड़ गए. ये CPI(M) का यूथ विंग है, जिसकी स्थापना 1980 में लुधियाना में हुई थी. बुद्धदेव भट्टाचार्य और माणिक सरकार जैसे लेफ्ट के कई बड़े नेता इस संगठन का हिस्सा रहे हैं. ढवले इस संगठन का महाराष्ट्र का धड़ा संभाल रहे थे. 1989 से 1993 तक वो DYFI के महाराष्ट्र के जनरल सेक्रेटरी रहे और 1993 से 1995 तक महाराष्ट्र स्टेट प्रेसिडेंट रहे. वो इस संगठन के नेशनल वाइस प्रेसिडेंट भी रहे हैं. ढवले याद करते हैं कि 1991 में मुंबई में DYFI की नेशनल कॉन्फ्रेंस हुई थी, जिसकी शिवाजी पार्क की बड़ी सभा में पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री ज्योति बसु मुख्य वक्ता थे.

एक प्रदर्शन में बोलते धवले
और फिर महाराष्ट्र में छात्रों और बेरोज़गारों का आंदोलन
1987 में ढवले ने ITI छात्रों और बेरोजगार युवाओं की आवाज़ उठाना शुरू किया. ये वो साल थे, जब पूरे महाराष्ट्र में छात्रों के मोर्चे निकल रहे थे. वजह थी कॉलेजों में सुविधाओं की कमी और शिक्षा का बाज़ारीकरण. यही वो दौर था, जब एजुकेशन को पैसे बनाने की दुकान बनाया जा रहा था और इसका स्तर गिरता जा रहा था. शिक्षा का प्राइवेटाइजेशन और कमर्शियलाइजेशन हो रहा था, जबकि रोजगार मिल नहीं रहा था. पूरे राज्य में 50 हज़ार के करीब छात्र और नौजवान सड़कों पर थे. ढवले याद करते हैं कि वो शिक्षा का बुनियादी बाज़ारीकरण तो नहीं रोक पाए, लेकिन छात्रों की जितनी मांगें मनवाई जा सकती थीं, उतनी मनवाई गईं.

DYFI का झंडा
1995 में ढवले DYFI से रिटायर हो गए, लेकिन गोदावरी परुलेकर की प्रेरणा से वो दो साल पहले ही AIKS जॉइन कर चुके थे. ढवले ने ये संगठन सामान्य कार्यकर्ता के तौर पर जॉइन किया था. तब वो ठाणे जिला कमेटी के सदस्य थे. यहीं से ढवले का फुल-फ्लेज़्ड किसान नेता बनने का सफर शुरू हुआ. 1995 में DYFI से रिटायर होने के बाद उन्हें AIKS का स्टेट जॉइंट सेक्रेटरी चुना गया. इस पद पर वो 2001 तक रहे. 2001 से 2009 तक वो AIKS के स्टेट जनरल सेक्रेटरी चुने गए. AIKS कार्यकर्ता बताते हैं कि गोदावरी की मौत के बाद महाराष्ट्र में AIKS कमज़ोर हो गया था, लेकिन ढवले ने उसे दोबारा ज़िंदा कराने में महत्वपूर्ण योगदान किया.

अशोक ढवले
आंकड़े बताते हैं कि 1995 से 2018 तक कर्जे के कारण से भारत के करीब 4 लाख किसान खुदकुशी कर चुके हैं. हमने ढवले से जानना चाहा कि आखिर वो कौन सा वक्त था, जब किसान हार-हारकर मौत को गले लगाने लगे. हमेशा आंदोलनों में रहे ढवले बताते हैं कि ये सब 1991 में नवउदारवादी नीतियां बनने के बाद शुरू हुआ. उस समय केंद्र में नरसिम्हा राव की सरकार थी और मनमोहन सिंह वित्तमंत्री थे. तब से अब तक अकेले महाराष्ट्र में 75 हज़ार किसान खुदकुशी कर चुके हैं.

नरसिम्हा राव और मनमोहन सिंह
हमने ढवले से ये भी पूछा कि क्या उन्होंने कभी किसी भी सरकार को किसानों के हक में कुछ अच्छा करते देखा, जिसका फायदा आखिरी किसान तक पहुंचा हो. ढवले बिना किसी हिचक के कहते हैं कि किसानों ने लगातार संघर्ष किया, लेकिन सरकारों ने कभी संतोषजनक कदम नहीं उठाए.
ढवले 2003 से 2017 तक AIKS के नेशनल जॉइंट सेक्रेटरी रहे. इस बीच 2006 में महाराष्ट्र के नासिक में AIKS का 31वां राष्ट्रीय सम्मेलन हुआ था, जिसमें एक लाख किसानों की रैली हुई थी. ढवले AIKS के स्टेट जनरल सेक्रेटरी की हैसियत से इस आयोजन को देख रहे थे. वो बताते हैं कि ये सम्मेलन कराना बहुत कठिन होता है, क्योंकि इसमें देशभर के करीब 800 प्रतिनिधि शामिल होते हैं. ढवले फिर दोहराते हैं, 'ये सब मैंने अकेले नहीं किया, पूरे टीम ने ये किया.'
जब किसानों ने मिलकर अंबानी को हरा दिया था
जब हमने ढवले से उनके जीवन के सबसे सफल किसान आंदोलनों के बारे में पूछा, तो उन्होंने सबसे पहले रायगढ़ के स्पेशल इकनॉमिक ज़ोन (SEZ) के खात्मे का ज़िक्र किया. मई 2006 में महाराष्ट्र की कांग्रेस सरकार ने रायगढ़ जिले के 45 गांवों की 35 हज़ार एकड़ खेती वाली ज़मीन SEZ के तहत चिन्हित की थी. SEZ की 70% ज़मीन का मुकेश अंबानी की कंपनी रिलांयस और कुछ और कंपनियां अधिगृहण करने वाली थीं. इसके बदले रिलायंस ने प्रति हेक्टेयर 25 लाख रुपए के पुनर्वास पैकेज और प्रति एकड़ 200 नौकरियों का वादा किया था. किसानों को इन वादों से कोई मतलब नहीं था. वो अपनी ज़मीन किसी कीमत पर नहीं देना चाहते थे.

2007 में रायगढ़ के स्पेशल इकॉनमिक ज़ोन का विरोध करते किसान
किसानों ने सरकार से SEZ खत्म करने को कहा. विलासराव देशमुख की सरकार को विरोध का अंदाज़ा नहीं था, लेकिन जब शेतकरी कामगार पक्ष और किसान सभा के नेतृत्व में दो सालों में किसानों के 60-70 हज़ार के मोर्चे निकले, तो सरकार पीछे हट गई. कहने लगी कि वो अधिगृहण करने वाली कंपनियों और किसानों के बीच नहीं आएगी. AIKS भी इस आंदोलन का हिस्सा थी. कई बार हाइवे भी जाम किए गए. इसमें से 13% ज़मीन तो अधिगृहित हो गई थी, लेकिन अंतत: SEZ कैंसिल करना पड़ा. 2011 में सरकार की तरफ से ये भी कहा गया कि SEZ ज़मीन अधिगृहण ऐक्ट के नियमों के मुताबिक दो साल पहले ही 2009 में स्क्रैप हो गया था. ये किसानों की बड़ी जीत थी.

SEZ का प्रोटेस्ट करते किसान
CPI(M) में क्या कार्य रहा ढवले का
जैसा हमने पहले ही बताया, ढवले CPI(M) के अपने काम को जन-संगठनों वाले काम से अलग देखते हैं. वैसे भी उनके लिए ये करियर नहीं, एक्टिविज़्म है. संघर्ष है, जिसे जारी रहना है. वो 1978 में CPI(M) के सदस्य बने. 1983 में पार्टी की मुंबई जिला कमेटी में चुने गए. 1987 में उन्हें पार्टी की राज्य कमेटी में चुना गया. 1991 में ढवले पार्टी के राज्य सचिव मंडल में चुने गए, जिसमें कुल 15 सदस्य होते हैं और इन सभी को राज्य कमेटी ही चुनती है. 1998 में ढवले को पार्टी की सेंट्रल कमेटी में चुना गया.

अशोक ढवले (बाएं) और सीताराम येचुरी (बीच में)
फिर 2005 में ढवले को CPI(M) का महाराष्ट्र स्टेट सेक्रेटरी चुना गया. इस पद पर वो लगातार तीन बार यानी 10 साल तक रहे. तीन कार्यकाल के बाद उन्हें इस पद से इसलिए हटना पड़ा, क्योंकि 2012 में पार्टी के संविधान में ये बदलाव किया गया था कि कोई भी कॉमरेड सेक्रेटरी पद पर लगातार तीन बार से ज़्यादा नहीं रह सकता. 2015 में ये पद छोड़ने के बाद इन्हें पार्टी के केंद्रीय सचिव मंडल में चुना गया. अभी ये इसी मंडल के सदस्य हैं.
मार्च 2018 के इस आंदोलन की ज़रूरत क्यों पड़ी
क्योंकि 2017 में महाराष्ट्र सरकार ने किसानों से जो वादे किए थे, वो उनसे मुकर गई थी. लगातार सूखा झेल रहे मराठवाड़ा और विदर्भ में कई किसान कर्ज के चलते खुदकुशी कर रहे थे. तो जून 2017 में किसान क्रांति मोर्चे के बैनर तले किसानों ने एक ऐतिहासिक हड़ताल आंदोलन शुरू किया. वो दूध और सब्ज़ियों को गांव से शहर लाते, लेकिन उन्हें बेचने के बजाय सड़क पर बहा देते. मंडियां बंद हो गईं और दूध की सप्लाई बंद हो गई. आखिरकार महाराष्ट्र की देवेंद्र फडणवीस सरकार किसानों के आगे झुक गई. सरकार ने 'छत्रपति शिवाजी महाराज शेतकरी सम्मान योजना' की घोषणा की, जिसके तहत 34,020 करोड़ की कर्ज़-माफी का ऐलान किया गया.

जून 2017 में महाराष्ट्र में दूध और सब्ज़ियों को सड़क पर फेंकते किसान
तब ये रकम ऐतिहासिक बताई गई, जिससे 89 लाख किसानों को फायदा होना था. लेकिन जब केंद्र सरकार ने राज्य की इस घोषणा से हाथ पीछे खींच लिए, तो महाराष्ट्र सरकार ने कर्ज-माफी में कई शर्तें लगा दीं. नतीजतन मार्च 2018 तक 13,782 करोड़ ही जारी किए जा सके और 89 लाख के बजाय 35.68 लाख किसानों तक ही फायदा पहुंचा. इससे नाराज़ किसानों ने दोबारा आंदोलन की योजना बनाई. पिछली बार किसान क्रांति मोर्चा अगुआ था, जबकि इस बार अखिल भारतीय किसान सभा ने नेतृत्व संभाला.

2017 में महाराष्ट्र में प्रदर्शन करते किसान
किसान हड़ताल से पहले मार्च 2016 में किसान सभा के नेतृत्व में नासिक में दो दिन और दो रात एक लाख किसानों ने पूरे महाराष्ट्र से आकर जबरदस्त महापड़ाव आंदोलन कामयाब किया. पूरा नासिक शहर बंद हो गया. मुख्यमंत्री ने किसान सभा के प्रतिनिधि मंडल को मुंबई में बुलाकर चर्चा की, कुछ आश्वासन दिए. लेकिन, एक भी आश्वासन पूरा नहीं किया. अक्टूबर 2016 में 50 हज़ार आदिवासी किसानों ने किसान सभा के नेतृत्व में पालघर जिले के वाडा में आदिवासी विकास मंत्री के घर को दो दिन और दो रात महाघेराव किया. मंत्रालय में मंत्री महोदय ने किसान सभा के साथ मीटिंग लेकर कुछ मांगे मान्य कीं, लेकिन फिर से उन्हें लागू नहीं किया.

अक्टूबर 2016 के प्रदर्शन की एक तस्वीर
मार्च के आंदोलन की 20 दिन में कैसे की प्लानिंग
भाजपा सरकार की यह नीति को देखकर 16 फरवरी 2018 को सांगली में किसान सभा की एक मीटिंग हुई, जिसमें तय किया गया कि 6 से 12 मार्च तक नासिक से मुंबई के बीच लॉन्ग मार्च निकाला जाए. रूट तय होने के बाद किसान सभा के साथियों ने कार से करीब तीन बार रूट का दौरा किया. रास्ता देखकर ये भांपने की कोशिश की जा रही थी कि कैसी दिक्कतें आएंगी, किसान कहां खाना बनाएंगे और कहां सोएंगे. सबकी तस्दीक कर लेने के बाद 6 मार्च को बिगुल फूंक दिया गया. शुरुआत में 25 हज़ार किसान थे, लेकिन बाद में ऐसा माहौल बना कि मुंबई पहुंचते-पहुंचते 50 हज़ार किसान हो गए. हफ्तेभर के इस मार्च के लिए किसान खुद ही राशन ले गए थे और पड़ाव होने पर खुद ही खाना बनाते थे.

मार्च 2018 के प्रदर्शन में किसान सभा के झंडे के साथ अशोक ढवले
क्यों ऐतिहासिक है ये आंदोलन
सबसे बड़ी बात तो यही है कि सरकार ने किसानों की मांगें मान लीं. उससे भी बड़ी बात ये कि सरकार ने मांगें लिखित में मानी हैं. मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस ने लिखकर दिया है कि:
#1. आदिवासी किसान जंगल की जो ज़मीन सदियों से जोत रहे है, वह ज़मीन छः महीनों के अंदर उनके नाम की जाएगी . #2. 2001 के बाद के कृषि कर्ज माफ होंगे, किसानों का 1.5 लाख रुपए तक का कर्ज माफ होगा, 2017 की कर्जमाफी में डाली हुई कुछ शर्तें निकाली जाएंगी. #3. फसल का न्यूनतम मूल्य देने की दिशा में राज्य के कृषि मूल्य समिति का गठन किया जाएगा और इस समिति में किसान सभा के दो प्रतिनिधि लिए जाएंगे. #4. महाराष्ट्र के आदिवासी बहुल इलाके में 31 जल संरक्षण योजनाएं बनाई जाएंगी. #5. नार-पार, दमन गंगा और पिंजाल रिवर लिंकिंग प्रॉजेक्ट में बुनियादी बदल किए जाएंगे. #6. गरीब किसान और खेतिहार मजदूरों की पेंशन बढ़ाने का ऐलान तीन महीने में विधानसभा के अगले सत्र में किया जाएगा. #7. बोंड आळी से विदर्भ और मराठवाडा के जिन लाखों किसानों की कपास की फसल बर्बाद हुई, उन्हें उसका मुआवजा तुरंत दिया जाएगा.

ये सब किसानों की इच्छाशक्ति के बूते मुमकिन हुआ
इस पर महाराष्ट्र के चीफ सेक्रेटरी के दस्तखत है. 12 मार्च को जब सीएम ने किसान सभा के साथ अग्रीमेंट किया, तो किसान सभा ने उन पर दबाव डाला कि जब सरकार मांगें मानने को तैयार है, तो उसे विधानसभा में भी अनाउंस करे. इसके पीछे मकसद था कि सरकार जो बातें बाहर मान रही है, वो सदन की कार्यवाही में आ जाएंगी, जिसके बाद सरकार के पास मुकरने का मौका नहीं होगा. 13 मार्च को खुद मुख्यमंत्री ने ये अग्रीमेंट विधान सभा के टेबल पर रखा. खुद सरकार की तरफ से कहा गया कि ऐसा महाराष्ट्र के इतिहास में पहली बार हो रहा है.

किसानों के बारे में AIKS को लिखित आश्वासन देते समय मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस
पर क्या ये सब अशोक ढवले की वजह से हुआ
नहीं. इन सभी आंदोलनों में किसान सभा के हजारों कार्यकर्ताओं का बड़ा योगदान है. लॉन्ग मार्च को कामयाब करने में अशोक ढवले के साथ-साथ जो सबसे ज़रूरी नाम हैं, वो हैं: विधायक जीवा पांडू गावीत, किसन गुजर और डॉ. अजित नवले.
जीवा पांडू गावीत महाराष्ट्र के नासिक जिले की कलवन सीट से विधायक हैं. वे राज्य में CPI(M) के इकलौते विधायक हैं. खास बात ये है कि जब 6 तारीख को 25 हज़ार किसानों के साथ मार्च शुरू हुआ, तो उसमें सबसे ज़्यादा किसान गावीत के इलाके से ही आए थे. ये आदिवासियों के बड़े नेता हैं, जो सात बार विधायक बन चुके हैं. इनमें से छ: चुनाव इन्होंने नासिक की सुरगाणा सीट पर जीते. गावीत ने 1972 में गोदावरी परुलेकर के साथ लेफ्ट का आंदोलन जॉइन किया था. ये आदिवासियों की ज़मीन का हक सुरक्षित कराने और उनके बच्चों को शिक्षा दिलाने के लिए लंबे वक्त से संघर्ष कर रहे हैं.

जीवा पांडू गावीत
किसन गुजर AIKS की महाराष्ट्र काउंसिल के अध्यक्ष हैं. ढवले को राष्ट्रीय अध्यक्ष होने की वजह से दिल्ली में ज़्यादा वक्त बिताना पड़ता है, जबकि उनका मूल महाराष्ट्र ही है. ऐसे में किसन गुजर ही थे, जिन्होंने आंदोलन की ज़मीन तैयार करने में जमकर मेहनत की. ये खुद भी किसान हैं और इन्हें साइलेंट प्लेयर माना जाता है. ये लो-प्रोफाइल रहते हैं, लेकिन संगठन के पेंच लगातार कसते रहते हैं. ट्रेड यूनियन आंदोलन के बाद ये AIKS का हिस्सा बन गए थे.

किसन गुजर
डॉ. अजित नवले AIKS के महाराष्ट्र के स्टेट सेक्रेटरी हैं. ट्रेनिंग से आयुर्वेद डॉक्टर नवले ने अहमदनगर से मोर्चा संभाल रखा था. ये महाराष्ट्र किसान सभा के पहले अध्यक्ष बुवा नवले के पोते हैं. अजित का कॉलेज के दौरान एक्टिविज़्म से कोई खास नाता नहीं था. इनके दादा की मौत के बाद इनके परिवार ने भी लेफ्ट में कोई खास दिलचस्पी नहीं दिखाई. लेकिन अजित के अशोक ढवले से मिलने के बाद चीज़ें बदल गईं. अजित ने आदिवासी इलाके अकोले में जो काम किया है, उसने उन्हें खासी लोकप्रियता दिलाई. किसान हड़ताल को चलाने के लिए किसान संघटनों की जो सूकानू समिति बनी, उसके अजित निमंत्रक चुने गए.

डॉ. अजित नवले (दाएं) और अशोक ढवले
अशोक ढवले सबसे बड़ी उपलब्धि किसे मानते हैं
अशोक कहते हैं कि इस आंदोलन की सफलता से भी बड़ी बात ये है कि इसमें आंदोलन के नेता बाकी किसानों के साथ ही पैदल जा रहे थे. ये देश की बाकी सत्ताधारी पार्टियों जैसा मार्च नहीं था, जिसमें आम कार्यकर्ता पसीना बहाते हैं और नेता एसी वाली कारों में बैठकर एक से दूसरी जगह पहुंच जाते हैं. अशोक ने गावित, किसन और अजित नवले जैसे जितने भी नाम गिनाए, ये सारे नेता बाकी किसानों के साथ ही मार्च में पैदल चल रहे थे.

ऑल इंडिया किसान सभा के लॉन्ग मार्च में एक महिला
अशोक जो बात सबसे ज़्यादा ज़ोर देकर कहते हैं, वो ये कि ये आंदोलन स्पॉन्सर्ड नहीं था. किसानों ने जो कुछ किया, अपने बूते किया.

किसान सभा के लॉन्ग मार्च की एक तस्वीर ये भी है
बेटर हाफ के ज़िक्र के बिना कहानी कैसे पूरी हो सकती है
कम्युनिस्ट नेता मरियम ढवले अशोक ढवले की पत्नी हैं. साल 1994 में इनकी लव-मैरिज हुई थी. मरियम कब और कैसे पसंद आईं, इसके जवाब में अशोक बताते हैं कि जब वो SFI में थे, तब मरियम भी संगठन का हिस्सा थीं. वहीं मिले और साथ काम करते-करते ही प्यार हो गया. 1988 से 1994 तक SFI की राज्य जनरल सेक्रेटरी और राष्ट्रीय उपाध्यक्ष रहने के बाद 1994 में मरियम ने ऑल इंडिया डेमोक्रेटिक विमेन्स असोसिएशन (AIDWA) जॉइन किया, जिसकी वह राज्य जनरल सेक्रेटरी और फिर राज्य अध्यक्ष चुनी गईं. अभी वो इस संगठन की नेशनल जनरल सेक्रेटरी हैं.

मरियम ढवले
शादी में किसी अड़चन के सवाल पर ढवले कहते हैं कि दोनों ही परिवार खुले विचारों वाले थे और वो दोनों साथ काम कर ही रहे थे, इसलिए शादी के रास्ते में कोई बाधा नहीं आई. उसके बाद दोनों ने साथ मिलकर तय किया कि वो कोई संतान पैदा नहीं करेंगे. वजह पूछने पर बताते हैं कि जिन संगठनों से दोनों जुड़े हैं, उनमें ढेर सारे काम थे. लोगों के लिए बहुत कुछ करना है. ऐसे में संतान अतिरिक्त ज़िम्मेदारी हो सकती थी. काम में कोई रुकावट न हो, इसलिए दोनों ने संतान न पैदा करने का फैसला लिया. मरियम ढवले CPI(M) के महाराष्ट्र राज्य सचिव मंडल की सदस्य है.

एक सभा संबोधित करतीं मरियम धवले
कोई इतने लंबे समय तक संघर्ष और आंदोलन कैसे जारी रख सकता है
ढवले को CPI(M) में रहते हुए और एक्टिविज़्म करते हुए चार दशक बीत चुके हैं. हमने उनसे पूछा कि बदलाव के लिए बेहद जटिल और कमज़ोर मन:स्थिति वाले समाज और लापरवाह राजनीतिक पार्टियों को देखते हुए भी वो कैसे इतने बरसों तक लोगों के बीच काम कर पाए, कैसे उनका धैर्य बना रहा? ढवले जवाब देते हैं,
"मैं मार्क्सवाद को मानता हूं. ये सिखाता है कि अन्याय के खिलाफ लड़ते रहो. इस विचार से मनोबल मिलता है. विचारधारा ताकत होती है. इसमें बहुत कन्विक्शन होता है कि कुछ भी हो जाए, हमें अपना काम करते जाना है. बस, यही जारी है."

अशोक धवले 4 दशक से उनकी आवाज़ उठा रहे हैं, जो खुद अपना विरोध दर्ज नहीं करा पाते
आखिर में दो बातें
महाराष्ट्र के पालघर में अशोक के पिता डॉ. मित्रचंद ढवले के नाम से एक हॉस्पिटल चलता है- डॉ. एमएल ढवले चैरिटेबल हॉस्पिटल. हॉस्पिटल के आसपास के इलाके में काफी आदिवासी रहते हैं, जिनका सस्ता या मुफ्त इलाज किया जाता है. मित्रचंद ढवले मुंबई के मशहूर होम्योपैथिक डॉक्टर थे और इस हॉस्पिटल में भी अधिकतर इलाज होम्योपैथी से ही किया जाता है.

हॉस्पिटल की एक तस्वीर
अशोक ने कुछ किताबें भी लिखी हैं. वो सबसे पहले भगत सिंह पर लिखी किताब का ज़िक्र करते हैं, जिसका नाम है- 'भगत सिंह: एक अमर क्रांतिकारक.' इसके अलावा गोदावरी परुलेकर पर एक किताब लिखी है- 'अ सेंटिनरी ट्रिब्यूट'. चीन के समाजवाद पर भी अशोक की एक किताब है- 'सोशलिस्ट चाइना: कल आज और कल'. इसके अलावा वो 2010 से महाराष्ट्र में पार्टी के मुखपत्र 'जीवन मार्ग' के संपादक हैं. ये साप्ताहिक 1965 से लगातार प्रकाशित होता रहा है.
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