तीन साल पहले की बात है. उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ को लेकर चर्चा चली कि बीजेपी नेतृत्व उन्हें पद से हटाना चाहती है. लखनऊ और दिल्ली में बैठकों के कई दौर चले. ये समय 2022 विधानसभा चुनाव से करीब 9 महीने पहले का था. लेकिन पार्टी ने जोखिमों से बचने के लिए फैसले में बदलाव किया. अब एक बार फिर, मीडिया में हेडलाइन चलने लगी है कि यूपी बीजेपी में अब सब कुछ ठीक नहीं है. सीएम योगी आदित्यनाथ और डिप्टी सीएम केशव प्रसाद मौर्य के बीच एक बार फिर तलवारें खिचीं नजर आ रही हैं. हाल के कुछ बयानों और घटनाक्रमों ने इसे और बल दे दिया है.
'नाराज' केशव प्रसाद मौर्य दिल्ली पहुंचे, विधायक-मंत्री खुलेआम बोल रहे, यूपी बीजेपी में होने क्या वाला है?
सीएम योगी आदित्यनाथ और डिप्टी सीएम केशव प्रसाद मौर्य के बीच एक बार फिर तलवारें खिचीं नजर आ रही हैं. हाल में नेताओं के कुछ बयान और घटनाक्रमों ने इसे और बल दे दिया है.

बीजेपी 'पार्टी अनुशासन' को लेकर खुद की पीठ थपथपाती रहती है. खासकर, पिछले कुछ सालों में केंद्र में मजबूत स्थिति में रहने के दौरान पार्टी का अनुशासन देखा भी गया. ऐसा जानकार भी मानते हैं. लेकिन अब यूपी में पार्टी नेताओं के बयानों ने इस कथित अनुशासन को तोड़ दिया है. अनुशासन और ज्यादा टूटता, उससे पहले दिल्ली से बुलावा आ गया. डिप्टी सीएम केशव प्रसाद मौर्य और यूपी बीजेपी के अध्यक्ष भूपेंद्र चौधरी दिल्ली आए. दोनों नेताओं ने जेपी नड्डा से मुलाकात की. बीजेपी मुख्यालय में नड्डा और मौर्य के बीच करीब 1 घंटे तक बैठक हुई.
लोकसभा चुनाव में बीजेपी को सबसे बड़ा झटका उत्तर प्रदेश में लगा. 2019 में कुल 80 में से 62 सीटें जीतने वाली भाजपा, इस बार लुढ़क कर 33 पर आ गई. ये पार्टी के लिए अप्रत्याशित हार थी, क्योंकि इस राज्य को लेकर पार्टी बहुत ज्यादा आश्वस्त थी. हार के बाद से बीजेपी और एनडीए के बाकी नेताओं ने योगी सरकार के खिलाफ मोर्चा खोला हुआ है. अलग-अलग मुद्दों पर उन्हें घेर रहे हैं.
हाल में पार्टी के प्रदर्शन पर मंथन के लिए भाजपा के नेता लखनऊ में जुटे थे. 14 जुलाई को प्रदेश बीजेपी कार्यसमिति की बैठक हुई. पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नड्डा के अलावा कई केंद्रीय मंत्री, राज्य स्तर के मंत्री और जिला स्तर के नेता भी पहुंचे थे. रिपोर्ट्स बताती है कि कार्यक्रम में करीब 2000 नेता और कार्यकर्ता जुटे थे. मकसद था कि कार्यकर्ताओं के बीच एकजुटता का मैसेज दिया जाए.
इसी बैठक में केशव प्रसाद मौर्य का दिया एक बयान बहुत वायरल हुआ. जिसमें उन्होंने संगठन को सरकार से बड़ा बताया था. मौर्य ने कहा था,
"मैं हमेशा कहता था और आज इस प्रदेश कार्यसमिति के सामने कह रहा हूं कि संगठन सरकार से बड़ा है. संगठन से बड़ा कोई नहीं होता है. संगठन सरकार से बड़ा था, बड़ा है और हमेशा बड़ा रहेगा. मैं यहां सबके सामने कह रहा हूं कि मैं खुद को उपमुख्यमंत्री बाद में मानता हूं, भाजपा का कार्यकर्ता पहले मानता हूं."
इसके बाद कार्यक्रम में योगी आदित्यनाथ के बोलने की बारी थी. मुख्यमंत्री ने कहा कि 'अति आत्मविश्वास' के कारण बीजेपी को नुकसान हुआ. उन्होंने ये भी कह दिया,
"याद रखना, भाजपा है तो जिले में हमारा महापौर भी है, जिला पंचायत अध्यक्ष भी है, ब्लॉक प्रमुख भी है, चेयरमैन और पार्षद भी है. तो अगर कोई खरोच आती है तो उसका असर वहां भी पड़ने वाला है."

लेकिन सबसे ज्यादा चर्चा मौर्य के बयान की है. मौर्य के बयान को लोग अलग-अलग तरीकों से देख रहे हैं. कुछ इसे कार्यकर्ताओं में उत्साह भरने वाले बयान के रूप में देख रहे हैं. वहीं, कुछ का मानना है कि ये प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ पर तंज की तरह था. सिर्फ केशव मौर्य ही नहीं हैं. बाकी नेता भी खुले में सरकार और सरकार की नीतियों के खिलाफ बोल रहे हैं. एक-एक कर देखिये.
योगी सरकार के खिलाफ बयानों की झड़ी लगी27 जून 2024. केंद्रीय मंत्री अनुप्रिया पटेल ने योगी आदित्यनाथ को चिट्ठी लिखी. आरोप लगाया कि आरक्षित पदों पर पिछड़ों और दलितों को नौकरी नहीं मिल रही है. पटेल ने लिखा था कि पिछड़े, दलितों और आदिवासियों के आरक्षित पदों पर अयोग्य बताते हुए उन पदों को अनारक्षित घोषित करने की व्यवस्था पर तत्काल रोक लगनी चाहिए. उनकी मांग थी कि इन पदों को सिर्फ इन्हीं वर्गों से आने वाले अभ्यर्थियों से भरा जाए, चाहे जितनी बार नियुक्ति प्रक्रिया करनी पड़े.
प्रतापगढ़ से बीजेपी नेता और पूर्व मंत्री राजेंद्र प्रताप सिंह उर्फ मोती सिंह ने सरकार के कामकाज पर सवाल उठाए. 11 जुलाई को एक कार्यक्रम में उन्होंने भ्रष्टाचार का मुद्दा उठाते हुए कहा,
"मुझे ये कहने में संकोच नहीं है. मेरे 42 साल के राजनीतिक जीवन में तहसील और थानों का ऐसा भ्रष्टाचार न सोच सकते थे, न देख सकते थे, वो अकल्पनीय है. आप जा रहे हैं मोटरसाइकिल पकड़ ले रहा है. घर में आप एक बल्ब ज्यादा जला लिए तो एक थाना हमने खोल दिया है, आकर लुटेरे की तरह हमें लूट ले रहा है."
प्रदेश कार्यसमिति की बैठक से एक दिन पहले एक और विधायक का बयान आ गया. 13 जुलाई को जौनपुर के बदलापुर से बीजेपी विधायक रमेश चंद्र मिश्रा ने कहा कि राज्य में केंद्रीय नेतृत्व को बड़े फैसले लेने की जरूरत है क्योंकि पार्टी की स्थिति ठीक नहीं है. रमेश मिश्रा ने कहा था,
"बीजेपी की आज स्थिति अच्छी नहीं है. स्थिति अच्छी हो सकती है. उसके लिए केंद्रीय नेतृत्व को बड़े निर्णय लेने पड़ेंगे. केंद्रीय नेतृत्व को उत्तर प्रदेश के चुनाव पर फोकस करना पड़ेगा. एक-एक कार्यकर्ता और जनप्रतिनिधि को मन से लगना पड़ेगा. तभी हम 2027 में सरकार दोबारा बना सकते हैं. नहीं तो आज जो स्थिति है उस हिसाब से हमारी सरकार बहुत खराब स्थिति में है."
राज्य सरकार में मंत्री और निषाद पार्टी के मुखिया संजय निषाद ने भी सरकार को घेरा है. 15 जुलाई को उन्होंने मीडिया से कहा कि आप बुलडोजर चलवाएंगे, लोगों के घरों को गिराएंगे तो वे वोट देंगे क्या. संजय निषाद ने 10 सीटों पर होने वाले उप-चुनाव के लिए भी मांग कर दी कि उनकी पार्टी को कम से कम 2 सीट मिलनी चाहिए. इससे पहले, 29 जून को उन्होंने योगी आदित्यनाथ का नाम लेकर निषाद आरक्षण का मुद्दा भी उठा दिया था.
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फिर, बीजेपी विधायक त्रिभुवन राम का बयान आ गया कि कार्यकर्ताओं का सम्मान सर्वोपरि होना चाहिए, ये सभी मानते हैं. उन्होंने बदलावों को लेकर कहा कि संगठन में बदलाव अच्छे के लिए होता है. ये पार्टी के शीर्ष नेतृत्व का मामला है.
कहां रुकेगी ये नाराजगी?वापस केशव प्रसाद मौर्य पर आते हैं क्योंकि यूपी की राजनीति अब दिल्ली पहुंच गई है. राजनीति को समझने वाले जानते हैं कि योगी आदित्यनाथ और केशव प्रसाद मौर्य के बीच रिश्ते ठीक नहीं रहे हैं. खुद केशव मौर्य के बयान से ऐसी बातों को हवा मिलती रही है. केशव राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS) के खांटी नेताओं में एक रहे हैं. अप्रैल 2016 में उन्हें यूपी बीजेपी का प्रदेश अध्यक्ष बनाया गया था. 2017 का विधानसभा चुनाव पार्टी ने उन्हीं के नेतृत्व में लड़ा और बड़ी जीत हासिल की. इस जीत के बाद मुख्यमंत्री की रेस में उनका भी नाम था. लेकिन योगी आदित्यनाथ को राज्य का मुखिया बनाया गया. जानकार कहते हैं कि दोनों के बीच कलह की शुरुआत यहीं हो गई थी. जो समय-समय पर सबके सामने आ जाती है.
2022 विधानसभा चुनाव से पहले भी ऐसी स्थिति आई थी. तब RSS ने दोनों के बीच मध्यस्थता करवाने की कोशिश की थी. 22 जून 2021 को योगी आदित्यनाथ अचानक केशव मौर्य से मिलने पहुंचे थे. जानकार बताते हैं कि संघ के सरकार्यवाह दत्तात्रेय होसवले और आरएसएस के दूसरे प्रतिनिधि भी वहां थे. चुनाव से पहले दोनों को मनाने की कोशिश हुई थी.

मौर्य की नाराजगी पर इंडिया टुडे के पॉलिटिकल एडिटर हिमांशु मिश्रा कहते हैं कि 2017 विधानसभा चुनाव परिणाम के बाद से ही ये गुटबाजी चल रही है. वे बताते हैं,
लोकसभा में हार के बाद स्थिति कैसे बिगड़ी?"पहले कार्यकाल में जब मौर्य डिप्टी सीएम के साथ PWD मंत्री भी थे, तो उनके विभाग के हजारों करोड़ के टेंडर रद्द कर दिए गए थे. उसके बाद कई बार ऐसी स्थिति आई कि अपनी ही सरकार के खिलाफ विधायक खुले में आए. तो ये पहली बार नहीं है."
लोकसभा नतीजों के बाद भी मौर्य कई दिनों तक दिल्ली में रहे थे. तब उन्होंने गृह मंत्री अमित शाह के अलावा पार्टी के राष्ट्रीय महासचिव बीएल संतोष से भी मुलाकात की थी. मीडिया रिपोर्ट्स बताती हैं कि हाल के दिनों में केशव मौर्य ने दो बार कैबिनेट की मीटिंग भी छोड़ी है. इन बैठकों की अध्यक्षता सीएम योगी आदित्यनाथ ने की थी. लेकिन मौर्य शामिल नहीं हुए.
हिमांशु मिश्रा कहते हैं कि केशव मौर्य इस बात को भली-भांति जानते थे कि पार्टी के अंदर ऐसे लोग और कार्यकर्ता हैं जो सवाल उठा रहे हैं. उन्होंने इस चीज को भांपा और संगठन वाला बयान दिया. वे बताते हैं,
"मौर्य की टाइमिंग महत्वपूर्ण है. क्योंकि लोकसभा चुनाव में पार्टी के नतीजे मन-मुताबिक नहीं आए हैं. कार्यकर्ताओं और विधायकों की नाराजगी सामने आ रही है. लोकसभा चुनाव के बाद जो सांसद चुनाव हार गए, उन्होंने पार्टी के विधायकों और मंत्रियों पर आरोप लगाया कि उन्हें साथ नहीं मिला. कई विधायक भी कह रहे हैं कि कार्यकर्ताओं की अनदेखी की जाती है. यानी सरकार और संगठन मिलकर काम नहीं कर रहे हैं."
नाराज नेताओं में कइयों ने साफ कहा कि प्रशासन उनकी बातों को नहीं सुनता. बयानों से जाहिर होता है कि लंबे समय से अंदरखाने जो नाराजगी पल रही थी, वो सामने आ गई है.
योगी सरकार में ब्यूरोक्रेसी के दबदबे की शिकायत पहले भी सामने आई है. अंग्रेजी अखबार इंडियन एक्सप्रेस से जुड़े वरिष्ठ पत्रकार श्यामलाल यादव अपनी किताब, “At The Heart Of Power: The Chief Ministers of Uttar Pradesh” में लिखते हैं कि राज्य में भाजपा की सरकारें जब-जब सत्ता में आती हैं, तो पार्टी के जमीनी कार्यकर्ताओं की एक कॉमन शिकायत रहती हैं कि ब्यूरोक्रेसी का प्रभाव बढ़ जाता है और राजनैतिक कार्यकर्ताओं समेत चुने हुए प्रतिनिधियों का महत्त्व कम हो जाता है. यही योगी आदित्यनाथ की सरकार में भी हुआ. इस तरह की असहजता की एक बड़ी बानगी देखने को मिली 17 दिसंबर 2019 को, जब भाजपा के लगभग 100 विधायकों ने अपनी सरकार के खिलाफ लखनऊ में धरना दिया था.

इंडिया टुडे मैगजीन के एसोसिएट एडिटर आशीष मिश्रा भी सरकार बनाम संगठन के टसल को सही मानते हैं. वे कहते हैं कि पार्टी जब कमजोर हुई तो पार्टी का आंतरिक लोकतंत्र भी कमजोर हो गया. उसी का परिणाम है कि ये सब हो रहा है. आशीष बताते हैं,
"केशव मौर्य हर मंच पर संगठन की बात करते हैं. इसके जरिये ये संदेश देने की कोशिश होती है कि योगी संगठन के बाहर के हैं. और प्रशासन संगठन की मदद नहीं कर रहा है. वे ये साबित करने की कोशिश करते हैं कि योगी की तुलना में वे कार्यकर्ताओं के ज्यादा करीब हैं."
आशीष कहते हैं कि 2022 के बाद जब विभागों का बंटवारा हुआ, तब भी केशव प्रसाद मौर्य को उनके मन-मुताबिक मंत्रालय नहीं दिए गए. असंतोष उस समय भी हुआ था.
यूपी बीजेपी में मौजूदा स्थिति को लेकर हिमांशु मिश्रा एक और बात जोड़ते हैं. वे कहते हैं कि जब सरकार और संगठन कमजोर नजर आते हैं तो किसी भी पार्टी में ये सवाल उठता है. उनका कहना है कि जो बयान आ रहे हैं उससे पता चल रहा है कि लंबे समय से ये लोग बातों को दबा के रखे होंगे. इसलिए, हिमांशु कहते हैं कि संगठन के अलावा सरकार के स्तर पर भी बदलाव किया जा सकता है.
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केशव मौर्य यूपी में बीजेपी का बड़ा ओबीसी चेहरा हैं. इसलिए पार्टी उन्हें नाराज नहीं करना चाहती है. राज्य की राजनीति को समझने वाले कहते हैं वे गृह मंत्री अमित शाह के भी काफी करीब हैं. साल 2022 में सिराथू से हार के बावजूद उन्हें डिप्टी सीएम बनाया गया था. इसलिए, अब नाराजगी के बाद माना जा रहा है कि केशव प्रसाद मौर्य को संगठन में कुछ बड़ी जिम्मेदारी दी जा सकती है. साथ ही, इस पूरे घटनाक्रम को योगी आदित्यनाथ के लिए चुनौती भरा माना जा रहा है.
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