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रामानंद सागर, वो आदमी जिसने हमें भगवान राम से मिलवाया

अस्सी का दशक. रविवार की सुबह. रामायण.

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रामानंद सागर ने राम चरित मानस को घर-घर पहुंचाया है.
टीवी चालू हुई. गांव की बात है तो एक बात कंसिस्टेंट रही. बिजली नहीं आती थी. बैट्री से टीवी चलती थी. उस दिन भी चल रही थी. सुबह का वक़्त. सारा घर इकठ्ठा. रामायण शुरू हुई. एक बूढ़ा सा आदमी आया. दुशाला पहने. बाल कम थे. आंखें बड़ी. लगता था किसी का नाना होगा जो अपने नातियों को घर के बाहर आने वाले ठेले पर से खूब चाट खिलाता होगा. मैं किसी भी बूढ़े आदमी को देखता था तो हमेशा उसके नाती या पोतों के बारे में सोचता था. सोचता था कि वो उन्हें कितना प्यार करता होगा. एक आदमी मेरे नाना के घर के बाहर एक चाट का ठेला लेकर आता था. हर रोज़. बिना नागा. एक तय धुन में तावे पर अपना बड़ा सा कलछुल पीटता था. जब लिख रहा हूं तो वो धुन कानों में बज रही है. खैर, वो आदमी आया. दुशाला ओढ़े. कहने लगा "रामायण में महर्षि अगस्त्य अंतिम ऋषि हैं जिनसे उनका (राम जी का) मिलन हुआ था. क्यूंकि इस के पश्चात उन्हें केवल भक्त मिलते हैं. हनुमान, विभीषण, शबरी आदि." मुझे लगा था कि मुझे इस दुनिया की सबसे बड़ी जानकारी मिल गयी थी. ये वो समय था जब मेरे द्वारा दिल लगा कर टीवी देखी जाती थी. बिजली, जैसा कि कहा, नहीं आती थी. इसलिए इक्का दुक्का टीवी शो ही देखने को मिलते थे. वो भी बैट्री की बदौलत. उस वक़्त रामायण में अखंड विश्वास था. राम जी के बारे में सब कुछ जानना था. और ये आदमी रोज़ आकर सब कुछ समझा रहा था. संवाद ऐसे कि चरम-सुख मिल जाए. मुलाहिज़ा फरमाइये:
"लक्ष्मण, इस प्रदेश की सुन्दरता देखकर बार-बार जानकी की याद आती है. ऐसे दृश्य उसके मन को बहुत भाते थे. परन्तु आज न जाने वो किस अवस्था में होगी. क्या सोचती होगी." "भाभी भी आप के बारे में सोचती होगी. उन्हें अपने से ज़्यादा आपकी चिंता होगी." "हां लक्ष्मण उसे पूर्ण विश्वास होगा कि हम उसे अवश्य खोज लेंगे. इसी भरोसे पर वो जीवित होगी. होगी न लक्ष्मण." "हां भइय्या. वो एक वीर आर्य कन्या है. कितना भी दुःख आ जाए पर वो विचलित नहीं होंगी." "भगवान करे ऐसा ही हो."
रामानंद सागर. वो आदमी जो मुझे हर इतवार राम जी के बारे में बता रहा था. उनसे मेरी मुलाक़ात करवा रहा था. हनुमान मेरे फेवरिट थे. हर दूसरे लड़के की तरह. उस उम्र में हम सभी में ये कॉमन था. फॉर स्क्वायर या एमआरएफ़ का बल्ला और हनुमान बनने की चाह. ये सभी में होती थी. तब शक्तिमान नहीं आया था. शैतानियों में मासूमियत तो थी ही और सोच में हिंसा की कमी थी. खासी कमी. तब उंगलियों से लेज़र निकालने का शौक नहीं था. तब बस ऐसे बाण छोड़ने की तमन्ना थी जो तीन बाणों में बंट जाए या जिससे सांप निकलने लगें. वैसे सांप अक्सर विलेन के तीर से निकलते थे. राम जी जिन्हें विफल करते रहते थे. राम के चेहरे पर हमेशा शांति दिखती थी. चाहे कुछ हो जाए, वो एकदम ऐसे रहते थे जैसे कुछ हुआ ही न हो. वही शांति मुझे उस बुड्ढे के मुंह पर दिखती थी. बहुत बाद में मालूम चला कि वो जनाब रामानंद सागर हैं. जिन्होंने रामायण बनाई. टीवी के लिए. 29 दिसंबर को उनका जन्मदिन होता है. 12 दिसंबर को बरसी. कभी कभी लगता है कि उस उम्र में ताला लगा देना चाहिए था. सब वैसा ही रुक जाता तो मज़ा आता. उस वक़्त सब कुछ असली मालूम देता था. टीवी पर आने वाली रामायण में 'श्रद्धा' थी. आज मालूम है कि सब फरेब है. न वो मज़ा है, न वो खुशी.
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