आजाद हिंदुस्तान से बस एक साल छोटे हैं हसन रूहानी हसन रूहानी. आजाद हिंदुस्तान से बस एक साल छोटे. 1948 में पैदा हुए. उत्तरी ईरान में एक जगह है- सोरखेह. वहीं पर. ये ईरानी क्रांति से सालों पहले की बात है. तब ईरान में शाह का शासन था. रूहानी का परिवार शाह का विरोधी था. परिवार में काफी धार्मिक सा माहौल था. सो अपनी उम्र के बाकी बच्चों की तरह उनकी भी कुरान की पढ़ाई काफी लड़कपन में ही शुरू हो गई थी. फिर थोड़े बड़े हुए, तो मदरसे चले गए. वहां की पढ़ाई खत्म हुई, तो यूनिवर्सिटी का नंबर आया. साल था 1969. तेहरान यूनिवर्सिटी में दाखिला लिया. तीन साल की पढ़ाई के बाद बैचलर्स की डिग्री मिली. आप पूछेंगे कि विषय क्या था? जवाब है, जूडिशियल लॉ. यानी, कानून.

रुहेल्ला खोमेनी की मौत के बाद खुमेनाई को ईरान का सुप्रीम लीडर चुना गया. उनके नाम के आगे आपने अयातुल्लाह लगा देखा होगा. असल में ये अयातुल्लाह शब्द कोई नाम नहीं, टाइटल है. जो सुप्रीम लीडर को मिलती है. इसके लिए एक और शब्द है- रहबर.
स्कॉटलैंड से डॉक्टरेट किया ऐसा नहीं कि पढ़ाई में बस मजहबी किताबों में ही दिलचस्पी हो उनकी. विज्ञान भी पढ़ते थे. बैचलर्स के बाद मास्टर्स का भी नंबर आया. पब्लिक लॉ में एमए किया. आगे और पढ़ाई करने का मन था, तो परिवार ने स्कॉटलैंड भेज दिया. वहां ग्लासगो केलेडोनियन यूनिवर्सिटी थी. इससे उन्होंने डॉक्टरेट की डिग्री ली. इतना पढ़ने-लिखने के बाद वापस ईरान लौट आए.
इस्लामिक क्रांति: सुप्रीम लीडर और रूहानी उस समय ईरान में बहुत दिलचस्प माहौल था. राजशाही के खिलाफ माहौल बन रहा था. रुहोल्ला खुमेनी की एंट्री हो चुकी थी तस्वीर में. इन्हीं खुमेनी के असर में रूहानी ने भी राजनीति में एंट्री की. खुमेनी देश के बाहर एक्टिव थे. रूहानी ईरान के अंदर चालू हो गए. शाह के खिलाफ बोलते थे. खुलेआम विरोध करते थे. फिर वो वक्त भी आया जब रूहानी ने खुमेनी को 'इमाम' घोषित कर दिया. सार्वजनिक तौर पर. पकड़े जाते, तो कार्रवाई होती. इसीलिए देश छोड़कर भागना पड़ा. ये साल था 1977.

तस्वीर में दाहिनी ओर हैं हसन रूहानी. बीच में कुर्सी पर बैठे हैं मौजूदा सुप्रीम लीडर अयातुल्लाह खामेनाई. बाईं ओर हैं अहमदीनेजाद. रूहानी से पहले वो ईरान के राष्ट्रपति थे.
1979: राजशाही खत्म, धर्मशाही शुरू फिर 1979 भी आया. वो साल जब ईरान में इस्लामिक क्रांति हुई. राजशाही खत्म हो गई. उसकी जगह धर्म का शासन शुरू हुआ. रूहानी भी ईरान लौट आए. इस नए सिस्टम में रूहानी को भी जगह मिली. कई पद मिले. उन्हें ईरान की सुप्रीम नैशनल सिक्यॉरिटी काउंसिल (SNSC) में जगह मिली. वो इसके सेक्रटरी ऐंड रिप्रेजेंटेटिव चुने गए. ये असेंबली ईरान में सबसे अहम फैसले लेने वाली संस्था है. असेंबली ऑफ एक्सपर्ट्स के सदस्य चुने गए. सेंटर फॉर स्ट्रैटजिक रिसर्च के अध्यक्ष चुने गए. संसद में कई अहम जिम्मेदारियां भी मिलीं उनको.
अहमदीनेजाद का खुलेआम विरोध करते थे अगस्त 2005 में महमूद अहमदीनेजाद ईरान के राष्ट्रपति बने. रूहानी खुद अहमदीनेजाद के विरोधी माने जाते थे. वो खुलकर उनकी आलोचना करते थे. तो जब अहमदीनेजाद राष्ट्रपति बने, उस समय रूहानी सुप्रीम नैशनल सिक्यॉरिटी काउंसिल के सचिव थे. उन्होंने इस्तीफा दे दिया. वो 16 सालों से इस पद पर थे. अहमदीनेजाद का कार्यकाल ईरान के लिए किसी लिहाज से बेहतर नहीं रहा. न केवल देश और गरीब हुआ, बल्कि उसके ऊपर लगातार आर्थिक प्रतिबंध भी लदते गए. परमाणु कार्यक्रम काफी विस्फोटक स्थिति में पहुंच गया. ईरान को अपनी आक्रामकता भारी पड़ रही थी.

अहमदीनेजाद का दौर ईरान के लिए अच्छा साबित नहीं हुआ. उसके ऊपर लगातार आर्थिक प्रतिबंध लदते जा रहे थे. वो अकेला पड़ता जा रहा था. अर्थव्यवस्था भी एकदम चौपट हो गई थी.
राष्ट्रपति के लिए पहली पसंद नहीं थे रूहानी 2013 में पहली बार राष्ट्रपति बने. कहते हैं कि ईरान के सर्वेसर्वा खामेनाई की पहली पसंद नहीं थे रूहानी. मगर उनको उम्मीद थी कि शायद रूहानी ही वो शख्स हैं, जो अमेरिका ऐंड कंपनी के साथ चल रहे परमाणु विवाद को सुलझा सकें. ऐसा इसलिए कि करीब दो साल तक रूहानी ईरान के मुख्य न्यूक्यिर नेगोशिएटर रहे थे. इसी उम्मीद में उन्होंने रूहानी को आगे बढ़ाया. रूहानी उनकी उम्मीदों पर खरे भी उतरे.
'ईरान को इज्जत दो, ईरान भी तुम्हें इज्जत देगा' रूहानी की नीतियों में एक किस्म का बदलाव था. वो बातचीत के पक्ष में थे. ये वक्त ईरान के लिहाज से कतई अच्छा नहीं था. उसके ऊपर आर्थिक प्रतिबंध थे. अमेरिका लगातार उसे धमका रहा था. ऐसे में रूहानी का मानना था कि ईरान को बात करनी चाहिए. मगर इसके लिए भी उनकी शर्त थी. कि अगर ईरान से बात करनी है, तो धमकी का लहजा छोड़ना होगा. बराबरी पर आकर बात करनी होगी. रूहानी का संदेश साफ था. कि अगर अमेरिका और बाकी देश ईरान से सही बर्ताव चाहते हैं, तो उन्हें भी ईरान को सही बर्ताव देना होगा. इज्जत के साथ बात करनी होगी.

हसन रूहानी के साथ सबसे अच्छी बात ये ही थी. कि वो बात करना जरूरी समझते थे. बात करने को तैयार थे. न्यूक्लियर डील को कामयाब बनाने में उनका ये पॉजिटिव रवैया बहुत काम आया.
और जब रूहानी और ओबामा ने फोन पर बात की अच्छी बात ये थी कि इस वक्त अमेरिका में बराक ओबामा राष्ट्रपति थे. उनका दूसरा कार्यकाल था. जो कि 20 जनवरी, 2017 को पूरा होना था. ओबामा हर हाल में ईरान के साथ परमाणु समझौता करना चाहते थे. ओबामा के लिए ये न्यूक्लियर डील उनके दोनों कार्यकालों का हाई पॉइंट था. माने, पहाड़ की सबसे ऊंची चोटी. तो ओबामा ने सब्र दिखाया. ईरान ने भी सहयोग किया. राष्ट्रपति बनने के कुछ ही दिनों बाद रूहानी ने फोन पर ओबामा से बात की. 1979 की इस्लामिक क्रांति के बाद ये पहला मौका था जब ईरान और अमेरिका के राष्ट्राध्यक्षों के बीच सीधी बातचीत हुई थी. ये मामूली घटना नहीं थी. बरसों से जमी बर्फ यूं ही नहीं पिघलती. उसके लिए तपिश चाहिए होती है. और इतने ठंडे रिश्तों में गर्मी आ रही थी, ये अच्छा संकेत था.
विदेश मंत्रालय को दी डील की जिम्मेदारी रूहानी ने एक और बड़ा काम किया. उन्होंने खामेनी को एक बड़ी चीज के लिए राजी कर लिया. कि वो SNSC की जगह ईरान के विदेश मंत्रालय को परमाणु समझौते की बातचीत करने दें. रूहानी के विदेश मंत्री थे मुहम्मद जावाद जारिफ. उन्हें जिम्मेदारी मिली इस बातचीत को लीड करने की.

बराक ओबामा अपना कार्यकाल खत्म होने से पहले न्यूक्लियर डील कर लेना चाहते थे. उनके लिए ये उनके कार्यकाल का सबसे हाई पॉइंट था.
और फिर इतिहास बना... ओबामा और रूहानी की कोशिशों से 2015 में ऐतिहासिक परमाणु समझौता हुआ. एक ओर ईरान था. दूसरी ओर थे दुनिया के छह सबसे ताकतवर देश. अमेरिका, ब्रिटेन, रूस, फ्रांस, चीन और जर्मनी. ईरान ने वादा किया कि वो अपने परमाणु कार्यक्रम को जिम्मेदार बनाएगा. मतलब हथियार नहीं बनाएगा. ऊर्जा जरूरतों के लिए न्यूक्लियर टेक्नॉलजी इस्तेमाल करेगा. बदले में अमेरिका ऐंड कंपनी ने उसके ऊपर लगे ज्यादातर आर्थिक प्रतिबंध हटा लिए.
ईरान की जेब में पैसे आने वाले थे ये समझौता जिस तरह ओबामा के लिए बड़ी जीत थी, उसी तरह रूहानी के लिए भी बड़ी उपलब्धि थी. इस डील का मतलब था कि ईरान अपना तेल, अपना गैस बेच सकता है. इससे ईरान की जेब में पैसे आने वाले थे. और इन पैसों की उसे सख्त जरूरत थी. अगर उसे दुनिया में अपनी जगह दुरुस्त करनी थी, सऊदी का मुकाबला करना था, तो इसके लिेए उसे पैसे चाहिए थे. लिहाजा इस डील से रूहानी का भी कद बड़ा हुआ. हालांकि ऐसा भी नहीं कि ईरान में इस डील को लेकर बस समर्थन ही समर्थन हो. कई विरोधी भी हैं इसके. बल्कि विरोधी ज्यादा हैं. इसकी सबसे बड़ी वजह अमेरिका का विरोध है. ईरान में इस्लामिक जानकारों का जो वर्ग शासन चलाता है और सबसे ताकतवर भी है, उसे अमेरिका पर रत्तीभर भी भरोसा नहीं. मगर न्यूक्लियर डील इसलिए करना पड़ा कि ईरान को आर्थिक प्रतिबंधों से मुक्ति चाहिए थी. जो बिना डील के मुमकिन नहीं थी.

डॉ़नल्ड ट्रंप इस न्यूक्लिर डील को खत्म करना चाहते हैं. उनको लगता है कि ईरान को बहुत ज्यादा ही सहूलियत दी गई है.
रूहानी दोबारा चुने जाते, इससे पहले ट्रंप आ गए 2017 में चुनाव हुए. इससे पहले अमेरिका में डॉनल्ड ट्रंप आ गए थे. ट्रंप ईरान के साथ हुए न्यूक्लियर डील के खिलाफ थे. इसे खत्म करने की बातें कर रहे थे. ईरान के अंदर का एक बड़ा वर्ग ट्रंप के रवैये से खुश भी है. क्योंकि वो इस न्यूक्लियर डील को मजबूरी में मान रहे हैं. वो इस हालत में नहीं कि अपने आप आगे बढ़कर डील तोड़ सकें. तो अगर ट्रंप डील खत्म करते हैं, तो इनके लिए आसानी होगी. ये ऐसा ही होगा कि ट्रंप इनके मन मुताबिक काम कर रहे हैं.
रूहानी की चुनौतियां रूहानी के विरोधी विदेशों में मिली उनकी सफलता पर कम बातें कर रहे थे. घर के अंदर जो रायता बिखरा पड़ा था, उस पर उनके कान खींचे जा रहे थे. बावजूद इसके रूहानी जीत गए. दोबारा राष्ट्रपति बन गए. उनके सामने कई चुनौतियां हैं. सऊदी का मुकाबला करना है. मिडिल-ईस्ट में खुद को सबका नेता बनाने का अपना अरमान पूरा करना है. शिया देशों के साथ हाथ मिलाकर सऊदी को टक्कर देनी है. इजरायल की चुनौती से निपटना है. लेबनान में चीजें नियंत्रण में रखनी हैं. यमन में चल रहे युद्ध में सऊदी को आगे नहीं बढ़ने देना है. इसके अलावा ईरान के अंदर की भी चुनौतियां हैं. पिछले कुछ समय से वहां सरकारी विरोधी प्रदर्शन पैर जमाने लगे हैं. इसके अलावा अर्थव्यवस्था को दुरुस्त करने की चुनौती अलग है. ईरान को विदेशी निवेश बढ़ाने की सख्त जरूरत है. आर्थिक प्रतिबंध हटने का फायदा आम ईरानी जनता तक तभी पहुंचेगा, जब अर्थव्यवस्था की बाकी चीजें भी दुरुस्त हों. विदेशी निवेश इसके लिए बड़ी शर्त है. इससे न केवल पैसा आता है, बल्कि नौकरियां भी पैदा होती हैं.

पिछले कुछ वक्त से ईरान में सरकार विरोधी प्रदर्शन जोर पकड़ रहे हैं.
लोगों में बदलाव की भूख तो दिख रही थी रूहानी का एक और खास पहलू है. वो इस्लामिक क्रांति से जुड़ी शख्सियत हैं. मगर जिस तरह इस बार चुनाव के समय उन्होंने ईरान को ज्यादा आधुनिक, लचीला और खुला बनाने का वादा किया, वो बदलाव दिलचस्प है. इस समय घरेलू राजनीति में रूहानी के विरोधी हैं इब्राहिम रायसी. इब्राहिम काफी कट्टर माने जाते हैं. विचारधारा ही नहीं, बल्कि कूटनीतिक तौर पर भी इब्राहिम अलग विचार रखते हैं. जैसे- न्यूक्लियर डील. वो इसके विरोधी हैं. इस बार चुनाव में भी रूहानी का मुकाबला इब्राहिम से ही था. इस मुकाबले में जीत उनको मिली. सो मान सकते हैं कि आम ईरानी आवाम लड़ाई-झगड़ा नहीं, तरक्की चाहता है. अर्थव्यवस्था को पटरी पर लौटते हुए देखना चाहता है. और शायद एक तबका धार्मिक दकियानूसी से दूर हटना चाहता है. कट्टरपंथी तौर-तरीकों से आजादी चाहता है. मगर ईरान की दिक्कत ये है कि वहां सारे सवाल धर्म पर आकर दम तोड़ देते हैं. किसी भी विरोध को इस्लाम विरोधी बता दिए जाने के बाद उसके लिए कोई स्कोप नहीं बचता. हाल में जो सरकार विरोधी प्रदर्शन शुरू हुए, उनका भी ये ही हाल हुआ.

हसन रूहानी. या फिर ये कहें कि ईरान के सामने इस समय कई चुनौतियां हैं. अर्थव्यवस्था की भी और अपनी जगह बनाने की भी. उसके सामने सऊदी और इजरायल से निपटने की बड़ी चुनौती है.
ट्रंप ने न्यूक्लियर डील तोड़ दी, तो रूहानी का क्या होगा? रूहानी ने अपने पहले चुनाव में भी आधुनिकता की बात की थी. कहा था कि नागरिकों के अधिकार बढ़ाए जाएंगे. वो अपने दूसरे कार्यकाल में पहुंच चुके हैं. बावजूद इसके ईरान बहुत खुलता नहीं दिख रहा. इंटरनेट जैसी बुनियादी चीजों की भी आजादी नहीं है. रूहानी सुधार करना चाहते हैं. मगर ये चीजें उनके हाथ में नहीं. ईरान का राजनैतिक सिस्टम उन्हें ये छूट नहीं देता. उनसे ऊपर जो ताकतें हैं, वो कट्टर इस्लामिक तौर-तरीकों को खत्म नहीं होने देंगी. रूहानी इसलिए लाए गए थे कि ईरान को न्यूक्लियर डील करनी ही करनी थी. या फिर इसका कोई हल निकालना था. ट्रंप ने डील तोड़ दी, तो रूहानी की कोई जरूरत नहीं रहेगी. तब शायद उन्हें हटा दिया जाएगा. यानी, ट्रंप के रास्ते रूहानी के भी रास्ते तय करेंगे.
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