कुर्द. ये वो क़ौम है, जिसका इराक में सद्दाम हुसैन ने कत्लेआम कराया. टर्की में कुर्दों ने अलग देश की मांग की तो 40 हज़ार कुर्द मार दिए गए. सीरिया में ISIS ने इन पर क़हर ढहाया. कुर्द औरतों का रेप किया गया, उन्हें गुलाम बनाया गया. क़त्ल किया गया. अपनी जान बचाने के लिए साल 2014 में दो दिन में एक लाख 30 हज़ार कुर्द सीरिया से टर्की को पलायन कर गए. इराक में कुर्द लोग अलग देश की मांग लगातार कर रहे हैं. मगर उनके आन्दोलन को कुचल दिया जाता है. लोग मारे जाते हैं.
कौन हैं ये कुर्द लोग, जिनका कोई मुल्क नहीं
कुर्द लोग कुर्दिस्तान के रहने वाले हैं. कुर्द सुन्नी मुस्लिम, योद्धा, कुशल घुड़सवार बंजारा जाति के हैं. कुर्दिस्तान वो इलाका है जो ईरान, सीरिया और टर्की से मिलकर बना हुआ है. कुर्द क़ौम का संबंध आर्य जाति से बताया जाता है जो तकरीबन चार हज़ार साल पहले कुर्दिस्तान इलाके में पहुंची थी.
टर्की में रहने वाले कुर्द कोई 30 साल पहले तक अपनी मातृभाषा कुर्दिश खुलकर बोल नहीं सकते थे. कुर्द लोग गर्मी में पशुओं के साथ पहाड़ी चरागाहों पर चले जाते हैं, जबकि सर्दियों में घाटियों में रहते हैं.

पूरे मेसोपोटामिया यानी पूर्वी इराक, दक्षिणी टर्की, पूर्वोत्तर सीरिया, उत्तर-पश्चिमी ईरान और दक्षिण-पश्चिमी आर्मेनिया के बीच बसे हुए हैं कुर्द. इन सारे देशों में रहने वाले लोगों से अलग पहचान है इनकी. रेस, कल्चर और बोली तीनों अलग है. हालांकि इनमें ज्यादातर सुन्नी मुस्लिम हैं, पर ये लोग कई धर्मों को मानने वाले समुदाय हैं. यहां पर औरतें बिल्कुल यूरोपियन सभ्यता की हैं. कहीं किसी से कम नहीं हैं. वहाबी इस्लाम मानने वालों के लिए ये नफरत की एक वजह है.
इतिहास में पीछे जाएं, तो कोई फिक्स देश नहीं था. सब अपनी-अपनी जमीन के लिए मारा-मारी करते थे. कोई लाइन नहीं थी. बीसवीं शताब्दी में लाइन खींचकर देश बनाने की परंपरा शुरू हुई. तो सबकी तरह कुर्द लोग भी कुर्दिस्तान बनाने की सोचने लगे.
पहले विश्व युद्ध के बाद जीते हुए देशों अमेरिका और ब्रिटेन ने 1920 में तय किया कि कुर्दिस्तान बनाया जाएगा. पर तीन साल बाद मुस्तफा कमाल पाशा ने खिलाफत को ख़त्म कर टर्की बनाने की संधि कर ली. और कुर्दों को दरकिनार कर दिया गया. इन सारे देशों में कुर्द माइनॉरिटी में आ गए.

ISIS का इनसे क्या लफड़ा है?
2013 में ISIS ने अपनी नज़रें डालीं कुर्द क्षेत्रों पर. ये क्षेत्र ISIS के सीरिया वाले कब्जे के आस-पास थे. उन लोगों ने कुर्दों पर लगातार हमले शुरू कर दिए. ये एक साल चला. जब इराक के मोसूल पर ISIS का कब्जा हो गया, तब वहां के कुर्द भी इनकी चपेट में आ गए. अब कुर्दों ने अपने फाइटर तैयार कर लिए. उनको ‘पेशमर्गा’ कहा जाता है. जो बात इनको सबसे अलग बनाती है, वो ये है कि इनमें औरतें भी लड़ाई में एकदम आगे रहती हैं. इस चक्कर में ISIS के हाथ एक छोटी माइनॉरिटी ‘यज़ीदी’ चढ़ गए. उनके साथ ISIS ने बड़ा अत्याचार किया.

तब अमेरिका ने अपने कुछ मिलिट्री एडवाइज़र पेशमर्गा को भेजे. बाकी देशों के भी कुर्द लड़ाके इनके साथ आ गए. इराक वाला कुर्द क्षेत्र तो बचा लिया गया, पर सीरिया वाला ISIS ने कब्जिया लिया. पूरा तहस-नहस कर दिया. पर यूरोप और अमेरिका से अच्छे सम्बन्ध होने के बावजूद टर्की ने कुर्द लोगों की मदद नहीं की. ना ही ISIS पर किसी तरह का हमला किया. जबकि डर था टर्की को भी. कुर्दों को तो टर्की से होकर हथियार या खाना भी ले जाने नहीं दिया गया. बहुत बाद में एक बॉर्डर खोला कोबानी की लड़ाई में.

जनवरी 2015 में कुर्द फ़ौज ने कोबानी पर कब्ज़ा कर लिया. उसके बाद से अमेरिका की मदद से ISIS पर छिटपुट हमले करते रहते हैं. टर्की के बॉर्डर से लेकर ISIS के रक्का इलाके तक इनका प्रभाव बन गया.
सितंबर 2014 की मीडिया रिपोर्ट के मुताबिक 1 लाख 30 हज़ार कुर्द ISIS से बचने के लिए टर्की की शरण में पहुंचे. माना जा रहा है कि सीरिया में राष्ट्रपति बशर अल असद के ख़िलाफ़ सात साल पहले शुरू हुई बगावत के बाद से दस लाख से अधिक लोग टर्की में शरण ले चुके हैं.
ISIS की वजह से जब कुर्दी पारसी बनने लगे
इराक के कुर्दिस्तान प्रांत के सीमांत क्षेत्रों में ISIS (इस्लामिक स्टेट) ने लगातार ज़ुल्म ढहाया. बर्बरता से कुर्दी लोगों को क़त्ल किया. यज़ीदियों को क़त्ल किया. यह सब इस्लाम फैलाने के नाम पर किया गया. कुर्दिस्तान में इस ज़ुल्म का असर उल्टा हुआ. कुछ कुर्द मानते हैं कि उनका समुदाय पारसी धर्म से ताल्लुक रखता है. ISIS से कुर्दों की पहचान और संस्कृति को चुनौती मिलने के बाद इस धारणा ने कुर्दों के बीच पारसी धर्म के आकर्षण को और बढ़ा दिया.

इराक वाले कुर्दिस्तान में सातवीं शताब्दी के दौरान इस्लाम हावी हुआ. कुर्द लोग इस्लाम से पहले के मतों जैसे पारसी या यजीदी को मानते थे. ISIS के ज़ुल्म ने इस्लाम से मोहभंग करने वाला काम किया. खबर आई कि साल 2014 में 10 हजार से ज्यादा कुर्द युवाओं ने पारसी धर्म को अपना लिया.
टर्की क्यों मदद नहीं करता?
टर्की की आबादी में लगभग 20% कुर्द हैं. पर टर्की से कुर्द दुश्मनी बड़ी पुरानी है. टर्की के लोग इनको पहाड़ी तुर्क कहते हैं. कहते हैं कि कुर्द-वुर्द कुछ नहीं होता. और बड़ा भेदभाव किया जाता है. यहां तक कि इनके रखे नाम और कपड़े भी तुर्की समाज में बैन कर दिए गए थे. 1978 में अब्दुल्ला ओकालन ने एक संगठन PKK यानी Kurdistan Workers’ Party (Kurdish: Partiya Karkerên Kurdistanê) बनाया था और टर्की में अपने लिए अलग देश की मांग करने लगे. फिर वही हुआ, जो अलग देश की मांग करने वालों के साथ होता है. 40 हज़ार लोग मरे.

1990 में PKK ने देश की मांग छोड़ दी. अब मांग हुई कि देश में ही रहकर थोड़ी ज्यादा स्वतंत्रता मिले. 2012 में थोड़ी राहत हुई. पर जुलाई 2015 में कुछ अप्रत्याशित हो गया. ISIS ने 33 जवान कुर्दों को मार दिया. बदले में कुर्दों ने तुर्की पुलिस और सेना पर हमला कर दिया. उसके बाद टर्की ने ISIS और PKK दोनों के खिलाफ हमला शुरू कर दिया.
सीरिया के कुर्द क्या चाहते हैं?
सीरिया की आबादी में लगभग 10% कुर्द हैं. पर यहां इनकी हालत और भी खराब है. 1960 से ही 3 लाख कुर्दों को नागरिकता भी नहीं मिली है. उनका ‘अरबीकरण’ करने के नाम पर उनकी जमीनें भी ले ली गई हैं. जब भी वो अपने अधिकारों की बात करते हैं, बात करने वाले नेताओं को जेल में डाल दिया जाता है. 2012 तक सीरिया के कुर्द वहां हो रहे पॉलिटिकल घमासान से अछूते थे. पर बाद में बदल गया. अब कुर्दों को आशा है कि सीरिया के राष्ट्रपति असद के हटने की बाद ही कुछ स्थिति बदलेगी.

इराक में क्या हुआ कुर्दों के साथ?
इराक की आबादी में लगभग 20% हैं कुर्द. यहां पर बाकी देशों की तुलना में स्थिति थोड़ी बेहतर रही है. अधिकार रहे हैं. पर दबा के मारने में कोई कमी नहीं की गई है. यहां पर ब्रिटिश साम्राज्य के वक़्त ही कुर्दों ने विद्रोह किया था. पर कुछ हो नहीं पाया. 1958 में जब वहां नया संविधान बना, तब कुर्द राष्ट्रीयता को मान लिया गया. पर उनके सेल्फ-रूल के प्लान को नकार दिया गया. 1970 तक तोल-मोल चलता रहा. पर बाद में सरकार ने अरब समुदाय के लोगों को कुर्दों की जमीन पर बसाना शुरू कर दिया.

ईरान-इराक लड़ाई के वक़्त तो ये चरम पर पहुंच गया. 1988 में सद्दाम हुसैन ने अत्याचार की सीमा पार कर दी. दुनिया की किसी भी लड़ाई में बैन जहरीली गैसों का इस्तेमाल किया गया.
1991 में गल्फ लड़ाई में इराक की हार के बाद कुर्दों को थोड़ा मौका मिला सेल्फ-रूल का. 2003 में कुर्दों ने अमेरिका की बड़ी मदद की सद्दाम को गिराने में. यहां पर कुर्दिश पार्लियामेंट भी बनाई गई है. 2005 से ही कुर्दिस्तान के प्रेसिडेंट मसूद बरज़ानी ने फ़रवरी 2016 में रिफरेंडम की बात की. बोले कि सब कुछ लोगों की मर्जी से ही होगा.
आर्मेनिया में भी मारे गए कुर्दी
आर्मेनिया पहले सोवियत संघ में था. तो स्टालिन के वक़्त हुए नरसंहार में कई कुर्द भी मारे गए थे. पर अब यहां पर बाकी देशों के जैसा नहीं है. पूरा कल्चर सुरक्षित है. कोई दबाव नहीं है. गाहे-बगाहे अपने देश की मांग उठती है. पर जनता ध्यान नहीं देती. यहां सब कुछ सामान्य है.
इराक में अलग देश की मांग
इराक के उत्तरी इलाके में तीन स्टेट हैं, जिनको कुर्द स्टेट कहा जाता है. इन स्टेट की जो प्रांतीय सरकार है. वो कुर्दिश रीजनल गवर्नमेंट के नाम से जानी जाती है. 1988 में जब इराक के राष्ट्रपति सद्दाम हुसैन ने कुर्दों को दबाना शुरू किया तो लगा था कि कुर्द कौम का अस्तित्व बचना मुश्किल है.

मीडिया रिपोर्ट से पता चलता है कि एक लाख कुर्दों की जान गई थी. चार हज़ार गांव तबाह हो गए थे. और फिर वो वक़्त आया जब अमेरिका ने सद्दाम हुसैन की बादशाहत को मिटा दिया.

2003 में अमरीकी हमलों के बाद से कुर्दों ने अपने गांव को फिर से बसा लिया, जो इराकी दमन की वजह से तबाह हुए थे. अब कुर्दिस्तान के हालात पहले से बहुत बेहतर हैं. कुर्दिस्तान रीजनल गवर्नमेंट की दबी हुई इच्छा अक्सर सामने आती रहती है कि कुर्द राज्यों के तौर पर जिन तीन राज्यों को स्वीकार कर लिया गया है उन्हें इराक की अधीनता से छुट्टी दे दी जाए. लेकिन अमेरिका इराक, ईरान नहीं चाहते कि कुर्दिस्तान अलग देश बने.
कुर्द इलाके में रहने वाले तर्क देते हैं कि इराक के संविधान के मुताबिक ऑटोनोमस इलाके अपने तेल की संपदा का इस्तेमाल करके केंद्रीय हुकूमत से अलग अपना विकास कर सकते हैं. इसी वजह से विदेशी कंपनियों ने कुर्दिश रीजनल गवर्नमेंट से समझौते किए. कुर्द की रीजनल गवर्नमेंट इस बलबूते इराक की केंद्रीय हुकूमत को धमकाती रहती है. इराक वाले उस पाइपलाइन को बंद कर देते हैं जिसके ज़रिए कुर्दिस्तान का कच्चा तेल टर्की को जाता है. इससे टर्की को भी परेशानी होती है. इस वजह से टर्की और कुर्दिस्तान में गहरी दोस्ती होती जा रही है. अमेरिका इसलिए कुर्दिस्तान को अलग देश इसलिए बनने देना चाहता, क्योंकि उसे लगता है कि ऐसा होने पर कुर्दों को काबू करना मुश्किल होगा. और फिर इस तरह से जातियां अपने लिए अलग देश की मांग करने लगेंगी.
इस स्टोरी को लिखने में ‘द लल्लनटॉप’ के साथी रह चुके ऋषभ ने मदद की है
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