बहुत पहले की बात है. ईरान से पाकिस्तान होते हुए हिंदुस्तान तक एक पाइपलाइन बिछाने का प्लान बना. ये प्लान मुकम्मल हो जाता, तो ईरान से हिंदुस्तान तक जहाज़ दौड़ाने की ज़रूरत नहीं पड़ती. हिंदुस्तान के साथ साथ पाकिस्तान को भी सस्ती गैस मिलती. प्लान अच्छा था, लेकिन साकार नहीं हो पाया. लोगों ने अमेरिका का नाम लिया, लेकिन जिन थ्योरीज़ में अमेरिकी हाथ का ज़िक्र हो, वो साबित कहां हो पाती हैं. खैर, भारत ने प्रॉजेक्ट से खुद को अलग कर लिया. तकरीबन डेढ़ दशक बाद भारत का ये फैसला पाकिस्तान को ऐसा महंगा पड़ने जा रहा है, कि उसे पूरे डेढ़ लाख करोड़ की चपत लग सकती है. वो भी ऐसे वक्त में, जब पाकिस्तान बेहद खराब वित्तीय स्थिति में है.
ईरान-पाकिस्तान गैस पाइपलाइन की पूरी कहानी! ईरान ने पाकिस्तान को क्या धमकी दी?
ईरान ने कहा है कि अगर पाकिस्तान पाइप लाइन प्रोजेक्ट को पूरा नहीं करता है तो वो उसे इंटरनेशनल कोर्ट ऑफ़ आर्बिट्रेशन में घसीटेगा. जानकार कहते हैं कि अगर इस अदालत में फैसला पाकितान के ख़िलाफ़ आया तो उसपर 18 बिलियन डॉलर यानि लगभग डेढ़ लाख करोड़ रुपए का जुर्माना लग सकता है.
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पाकिस्तान में दुनिया की पांचवीं सबसे बड़ी आबादी बसती है. कुल 23 करोड़ लोग वहां रहते हैं, जिन्हें भारी मात्रा में नैचुरल गैस की ज़रूरत पड़ती है, खाना बनाने से लेकर गीज़र में पानी गर्म करने और इंडस्ट्री तक में. पाकिस्तान के बलूचिस्तान में गैस के भंडार हैं, लेकिन इतने नहीं, कि पाकिस्तान अपनी घरेलू ज़रूरत पूरी कर सके. फिर बलूचिस्तान इन दिनों उग्रवाद से ग्रस्त भी है. जानकार कहते हैं कि अगले एक दशक में पाकिस्तान के ज्ञात गैस भंडार लगभग खत्म हो जाएंगे.
2023 में पाकिस्तान ने रोज़ाना लगभग 3.8 बिलियन क्यूबिक फीट गैस का उत्पादन किया था. ब्लूमबर्ग की रिपोर्ट कहती है कि आने वाले पांच सालों में पाकिस्तान में इस गैस की खपत तीन गुनी हो जाएगी.
तो पाकिस्तान के पास सिर्फ एक रास्ता बचता है - गैस इम्पोर्ट करना. अभी वो ईरान, इराक़, क़तर, नाइजीरिया, UAE, कुवैत, सऊदी अरब से ये गैस ख़रीदता है. ये लिस्ट वक्त के साथ घटती बढ़ती रहती है. जैसे 2023 में उसने रूस से भी गैस ख़रीदी थी.
अब यहां एक समस्या है. गैस को जहाज़ पर लादकर लाना एक महंगा सौदा है. रूस, नाइजीरिया, यूएई, इराक वगैरह पाकिस्तान से इतने दूर हैं, कि वहां से पाकिस्तान तक जहाज़ तैराकर लाने में करोड़ों डॉलर खर्च हो जाते हैं. गैस का दाम तो अलग है. इस समस्या का समाधान यही है कि पाकिस्तान किसी गैस रिच मुल्क से अपने यहां तक एक पाइपलाइन बिछा ले. आप नक्शे पर गौर करेंगे तो पाकिस्तान के ठीक बगल में गैस का बड़ा सा भंडार है - ईरान के पास. लेकिन ईरान पर पश्चिमी देशों ने प्रतिबंध लगा रखे हैं. तो पाकिस्तान दिन के उजाले में ईरान से गैस नहीं खरीद सकता. तो पाकिस्तान चोरी छिपे ईरान से गैस लेता है. ईरान हर साल पाकिस्तान को अवैध रूप से लगभग 8 हज़ार करोड़ रुपए की गैस बेचता है. इसके अलावा ईरान से पाकिस्तान को तेल भी स्मगल किया जाता है.
गैस पाइपलाइन डल जाने से पाकिस्तान को एक भरोसेमंद और सस्ती सप्लाई मिल जाएगी. उसे एक बार पैसा इंवेस्ट करना है. इसके बाद गैस ही गैस और वो भी कौड़ियों के मोल.
तो पाकिस्तान ने लगभग एक दशक पहले ईरान से समझौता किया. तय हुआ कि 2775 किलोमीटर लंबी पाइपलाइन बनेगी. दोनों देश को इससे जोड़ा जाएगा. ईरान सस्ते दामों में गैस पाकिस्तान को बेचेगा. इसे पाकिस्तान के एनर्जी क्राइसिस का हल बताया गया.
इस पाइप लाइन को बनाने का सबसे पहले आईडिया मलिक आफताब अहमद खान नाम के पाकिस्तानी इंजिनियर ने दिया था. उन्होंने इसपर एक लेख लिखा. ये लेख मिलिट्री कॉलेज ऑफ़ इंजीनियरिंग, रिसालपुर ने छापा. तब इसकी चर्चा हुई. लेकिन ये आईडिया आगे नहीं बढ़ सका.
1995 में पहली बार पाकिस्तान और ईरान की सरकार के बीच इसपर बात शुरू हुई. इसी साल ईरान ने इस पाइपलाइन प्रोजेक्ट के लिए भारत को भी अप्रोच किया. कहा कि इस पाइपलाइन को आगे बढ़ाकर पाकिस्तान और भारत को भी जोड़ा जा सकता है. भारत ने भी इसमें रूचि दिखाई.
भारत क्यों हुआ अलग?फरवरी 1999 में भारत और ईरान के बीच भी इस प्रोजेक्ट को लेकर एक डील साइन हुई. फरवरी 2007 में बात यहां तक पहुंच गई कि ईरान से गैस किस दाम में ख़रीदी जाएगी. भारत और पाकिस्तान ने इसपर ईरान से बात की. अप्रैल 2008 में ईरान ने इस प्रोजेक्ट में चीन और बांग्लादेश को भी शामिल होने के लिए आमंत्रित किया. लेकिन बात नहीं बनी. फिर आई 1 अक्टूबर 2008 की तारीख. इस रोज़ भारत और अमेरिका के बीच सिविलियन न्यूक्लियर डील साइन हुई.
इस डील के तहत भारत ने अपने मिलिटरी और सिविलियन न्यूक्लियर प्रोग्राम को अलग किया. और साथ ही अपने सिविलियन न्यूक्लियर प्रोग्राम को इंटरनेशनल एटॉमिक एनर्जी एजेंसी (IAEA) के तहत लाने की भी बात कही. बदले में अमेरिका ने भारत के न्यूक्लियर प्लांट के लिए ईंधन और उसे डेवलप करने के लिए नई तकनीक देने का वादा किया.
इस समझौते के बाद भारत ने ईरान वाले गैस पाइप प्रोजेक्ट से अपने हाथ पीछे खींच लिए. भारत ने कहा कि हम गैस की कीमत और सुरक्षा कारणों से ऐसा कर रहे हैं. कहा गया कि पाइपलाइन का जो हिस्सा पाकिस्तान से गुज़रता है, उसकी सुरक्षा की गैरंटी नहीं है. लेकिन जानकार कहते हैं कि इसके पीछे अमेरिका का दवाब था. अगर ईरान भारत को भी सीधे गैस बेचने लगता तो उसे मोटा मुनाफ़ा होता. ये अमेरिका के लिए चिंता की बात थी.
भारत के अलग होने के बाद क्या हुआ?भारत के अलग होने के बाद इस प्रॉजेक्ट के बुरे दिन शुरू हो गए. शुरुआत में पाकिस्तान ने कहा कि भारत को अलग होना है, तो हो जाए, वो तो अपने हिस्से की पाइपलाइन बिछाकर रहेगा. पाकिस्तान और ईरान के बीच इसपर बात चलती भी रही. मार्च 2013 में पाकिस्तान के तत्कालीन राष्ट्रपति आसिफ अली ज़रदारी और ईरान के तत्कालीन राष्ट्रपति महमूद अहमदीनेजाद एक समारोह में शामिल हुए और काम शुरू किया गया.
जब ये सब हो रहा था, तब तक ईरान ने अपनी तरफ की पाइप लाइन का कुछ हिस्सा बना लिया था. लेकिन पाकिस्तान में दो दो राष्ट्राध्यक्षों की मौजूदगी में जो काम शुरू हुआ था, वो धीमा पड़ा रहा. 27 मई 2013 को ईरान के डेप्युटी मिनिस्टर फॉर पेट्रोलियम ऐ. खालिदी ने पाकिस्तान की सरकार को चिट्ठी लिखी. चिट्ठी में उन्होंने पाइपलाइन के धीमे काम पर चिंता व्यक्त की.
पाकिस्तान का रवैया इतना सुस्त था कि उसके पाइप लाइन प्रोजेक्ट से अलग होने की अफवाह उड़ गई. जून 2013 में पाकिस्तान के तत्कालीन प्रधानमंत्री नवाज़ शरीफ़ ने ईरानी सरकार को चिट्ठी का जवाब दिया. कहा कि पाकिस्तान पूरी प्रतिबद्धता के साथ इस प्रोजेक्ट को पूरा करेगा. नवाज़ शरीफ ने तो ये तक कह डाला था कि दिसंबर 2014 में ये हम इस पाइपलाइन से गैस लेने भी लगेंगे.
2014 को बीते एक दशक हो चुके हैं. लेकिन आज तक पाकिस्तान ने अपनी तरफ की पाइपलाइन पूरी नहीं की है. जबकि ईरान अपनी तरफ की 1,150 किलोमीटर लंबी पाइपलाइन बनाकर बैठा हुआ है. ईरान ने इसके लिए 16 हज़ार करोड़ रुपए से ज़्यादा खर्च किए हैं.
ईरान अब क्या करना चाहता है?ईरान ने कहा है कि अगर पाकिस्तान इस प्रोजेक्ट को पूरा नहीं करता है तो वो उसे इंटरनेशनल कोर्ट ऑफ़ आर्बिट्रेशन में घसीटेगा. जानकार कहते हैं कि अगर इस अदालत में फैसला पाकितान के ख़िलाफ़ आया तो उसपर 18 बिलियन डॉलर यानि लगभग डेढ़ लाख करोड़ रुपए का जुर्माना लग सकता है. 2019 में इसी अदालत ने पाकिस्तान पर 50 हज़ार करोड़ का जुर्माना लगाया था. क्यों? क्योंकि पाकिस्तान का ऑस्ट्रेलिया की एक माइनिंग कंपनी के साथ ऐसा ही रवैया था. पाकिस्तान ने उस कंपनी के साथ अपने यहां की सोने की खदान में माइनिंग का एक समझौता किया. फिर कई साल बात टालने के बाद उन्हें लाइसेंस नहीं दिया. इससे कंपनी को बड़ा नुकसान हुआ. वो आरबिटरेशन कोर्ट चली गई. 2019 में कोर्ट ने पाकिस्तान पर जुर्माना लगा दिया.
अगर ईरान भी अपना केस आरबिटरेशन कोर्ट लेकर चला गया तो दोनों देश के रिश्ते फिर एक बार ख़राब हो सकते हैं. पिछले कुछ महीने ऐसा हो चुका है. एक बार तो जंग छिड़ने की नौबत तक आ गई थी.
दोनों देशों के रिश्तों में क्या उतार चढ़ाव आया है. ब्रीफ़ में जानते हैं.
पाकिस्तान 14 अगस्त 1947 को बना था. भारत से अलग होकर. उसी रोज़ ईरान ने पाकिस्तान को मान्यता दे दी थी. डिप्लोमेटिक संबंध स्थापित किए थे. फ़रवरी 1955 में नेटो की तर्ज पर सेंट्रल ट्रीटी ऑर्गेनाइजे़शन (CENTO) की स्थापना हुई. पाकिस्तान और ईरान, दोनों इसके मेंबर थे. 1965 और 1971 में भारत और पाकिस्तान के बीच जंग हुई. इसमें ईरान ने पाकिस्तान की मदद की. 1965 के युद्ध में पाक फ़ाइटर जेट्स बचने के लिए ईरान भाग जाते थे. वहां उन्हें शरण मिलती थी. और, ईरान उन जेट्स में ईंधन भी भरता था.
रेज़ा शाह पहलवी के शासनकाल में ईरान, पाकिस्तान का सबसे बड़ा डोनर था. 1979 में ईरान में इस्लामी क्रांति हुई. शाह की कुर्सी चली गई. फिर इस्लामी रिपब्लिक की स्थापना हुई. पाकिस्तान मान्यता देने में आगे रहा. फिर 1980 में ईरान-इराक़ जंग शुरू हुई, तब पाकिस्तान ने ईरान का साथ दिया. इसी समय अफ़ग़ानिस्तान में सोवियत संघ घुसा. मुजाहिदीनों ने जंग शुरू की. उन्हें पाकिस्तान का साथ मिला. पैसा अमरीका, सऊदी अरब और दूसरे सुन्नी इस्लामी देशों से आया. मुजाहिदीनों की मदद ईरान ने भी की. मगर ताजिक मूल के लोगों की.
1980 का दशक बीतते-बीतते ईरान-इराक़ युद्ध खत्म हो गया. सोवियत संघ को भी अफ़ग़ानिस्तान से निकलना पड़ा. फिर अफ़ग़ानिस्तान में नई लड़ाई शुरू हुई. मुजाहिदीन आपस में लड़ने लगे. पाकिस्तान ने उनको साधने की कोशिश की. वो अफ़ग़ानिस्तान में किंगमेकर की भूमिका हासिल करना चाहता था. बात नहीं बनी तो तालिबान बनाने में मदद की. 1996 में तालिबान ने काबुल पर कब्ज़ा कर लिया. तालिबान सुन्नी इस्लामी गुट है. उसने शिया मुस्लिमों को निशाना बनाना शुरू किया. इससे ईरान नाराज़ हुआ. उसने अहमद शाह मसूद के नॉदर्न अलायंस को सपोर्ट किया. मसूद को भारत का भी साथ मिला.
11 सितंबर 2001 की तारीख़ आई. अमरीका पर आतंकी हमला हुआ. अमरीका ने अफ़ग़ानिस्तान में वॉर ऑन टेरर शुरू किया. तालिबान को सत्ता से हटा दिया. इसमें पाकिस्तान भी शामिल हुआ था. उसको ख़ुद को तालिबान से अलग दिखाना पड़ा. इस घटनाक्रम ने ईरान, पाकिस्तान और अमरीका को एक क़तार में ला दिया. कुछ समय तक ईरान ने वॉर ऑन टेरर को भी सपोर्ट किया. मगर अमरीका के साथ उसकी पुरानी रंज़िश भारी पड़ी. ईरान अलग हो गया.
अगस्त 2021 में तालिबान की सत्ता में वापसी हुई. उसने वादा किया कि अपनी ज़मीन का इस्तेमाल आतंकी गतिविधियों के लिए नहीं होने देगा. इस बार भी तालिबान को पाकिस्तान का साथ मिला. मगर ये उसकी भूल थी. मसलन, तालिबान ने तहरीके तालिबान पाकिस्तान (TTP) के लीडर्स को शरण दी. तालिबान की वापसी का असर ईरान पर भी पड़ा है. अफ़ग़ानिस्तान के साथ उसकी 972 किलोमीटर लंबी सीमा है. ईरान के चरमपंथी संगठनों को अफ़ग़ानिस्तान में सुरक्षित पनाह मिल रही है. वे अफ़ग़ानिस्तान की ज़मीन का इस्तेमाल लॉन्चिंग पैड की तरह करते हैं. इसको लेकर कई बार झड़प हो चुकी है. इसमें कई ईरानी सैनिकों और तालिबानी लड़ाकों की मौत भी हुई है.
ईरान और पाकिस्तान एक दूसरे पर आतंकियों को पनाह देने के आरोप भी लगाते हैं. इसकी बड़ी वजह से बलोच आबादी. जो दोनों देशों में है. पाकिस्तान में बलूचिस्तान प्रांत और ईरान के सिस्तान-बलूचिस्तान में. पाकिस्तान वाले हिस्से में बलूचिस्तान लिबरेशन फ़्रंट (BLA), बलूचिस्तान लिबरेशन आर्मी (BLA), बलोच नेशनलिस्ट आर्मी (BNA) और बलोच रिपब्लिकन आर्मी (BRA) जैसे गुट एक्टिव हैं. पाकिस्तान का आरोप है कि इन्हें ईरान से पैसा और सपोर्ट मिलता है. ईरान वाले हिस्से में जन्दुल्लाह और जैश अल-अदल जैसे गुट काम करते हैं. ईरान का आरोप है कि उनको पाकिस्तान से साथ मिलता है.
जनवरी 2024 में दोनों देशों ने एक दूसरे पर मिसाइल से हमले किए थे. दोनों ने कहा कि हमने आतंकियों के अड्डों पर हमले किए हैं. पर दोनों ही साइड आम नागरिकों की मौत हुई थी. अप्रैल 2024 में ईरान के तत्कालीन राष्ट्रपति इब्राहीम रईसी पाकिस्तान गए थे. इस दौरे से दोनों देशों ने फिर दोस्ती करने की कोशिश की.
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