बिजली सुधारने वाले
'एक बार फिर जग-मग हो जाती है हर एक घर की आंख'
एक कविता रोज़ में आज राजेश जोशी की एक कविता.

अक्सर झड़ी के दिनों में जब सन्नाट पड़ती है बौछार और अंधड़ चलते हैं आपस में गुत्थम-गुत्था हो जाते हैं कई तार
या बिजली के खम्बे पर कोई नंगा तार पानी में भीगता चिंगारियों में चटकता है. एक फूल आग का बड़े तारे–सा झरता है अचानक उमड़ आई अंधेरे की नदी में.
मोहल्ले के मोहल्ले घुप्प अंधेरे में डूब जाते हैं
वे आते हैं बिजली सुधारने वाले.
पानी से तर-ब-तर टोप लगाए पुरानी बरसातियों की दरारों और कालर से रिसता पानी अन्दर तक भिगो चुका होता है उन्हें. भीगते -भागते वे आते हैं अंधेरे की दीवार को अपनी छोटी-सी टार्च से छेद हुए.
वे आते हैं हाथों में रबर के दस्ताने चढ़ाए साइकिल पर लटकाए एल्युमीनियम की फोल्डिंग नसेनी लकड़ी की लम्बी छड़ और एक पुराने झोले में तार,पेंचकस,टेस्टर और जाने क्या-क्या भरे हुए.
वे आते हैं खम्बे पर टिकाते हैं अपनी नसेनी को लंबा करते हुए और चीनी मिट्टी के कानों को उमेठते एक-एक कर खींचते हैं देखते हैं परखते हैं और फिर कस देते हैं किसी में एक पतला-सा तार.
एक बार फिर जग-मग हो जाती है हर एक घर की आंख.
वे अपनी नसेनी उतारकर बढ़ जाते हैं अगले मोहल्ले की तरफ़ अगले अंधेरे की ओर
अपनी सूची में दर्ज शिकायतों पर निशान लगाते हुए.
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