इंदौर बेस्ड कंपनी EKI (Enking Energy Services) और नीदरलैंड्स की दिग्गज आयल कंपनी Royal Dutch Shell एक जॉइंट वेंचर शुरू कर रही हैं. इस संयुक्त उपक्रम में डच कंपनी Shell अगले पांच सालों में 12 हज़ार 107 करोड़ रूपए से ज्यादा का इन्वेस्टमेंट कर रही है. शेयर्स की बात करें तो EKI का स्टेक 51 फ़ीसद रहेगा, जबकि Shell का 49 फ़ीसदी. इनका टारगेट है भारत के अन्य उद्योगों को नेचर-बेस्ड सॉल्यूशंस देना और 11.5 करोड़ कार्बन क्रेडिट कमाना.सोचने वाली बात है कि कंपनियां तो करेंसी में मुनाफ़ा कमाने के लिए खोली जाती हैं. फिर चाहें वो करेंसी डॉलर हो, यूरो हो या रुपया. फिर ये लोग कार्बन क्रेडिट क्यों कमाना चाह रहे हैं? कार्बन क्रेडिट क्या है और हवा साफ़ करने का ये व्यापार चलता कैसे है ये समझेंगे, लेकिन पहले जान लेते हैं कि ये एयर-पॉल्यूशन को कम करने का मिड-वे कैसे बना. #हवा की खराबी का इलाज कार्बन क्रेडिट- रसायन की भाषा में कहें तो हर उस जीवित चीज़ के अंदर कार्बन है, जो इस यूनिवर्स में पाई जाती है. और पेट्रोल-डीज़ल, कोयला-ये फॉसिल फ्यूल्स कहे जाते हैं, यानी जीवाश्मीय ईंधन. केमिस्ट्री कहती है कि सभी फॉसिल फ्यूल्स असल में हाइड्रोकार्बन हैं, माने हाइड्रोजन और कार्बन के अलग-अलग कम्पोजीशन वाले कंपाउंड्स. करोड़ों साल मृत पौधे और समुद्री जीव-जंतु जब समुद्र की तलछट में दबे रहते हैं तो फॉसिल फ्यूल्स में बदल जाते हैं, ऐसे समझिए कि ये मृत पौधे और जीव-जंतु वही कच्चा तेल हैं जिसे रिलायंस की रिफाइनरीज़ समुद्र से निकालती हैं. इसी तरह कोयला भी करोड़ों साल से मिट्टी में दबी हुई लकड़ियां और जानवरों के अवशेष ही हैं. यानी कोयले में भी हाइड्रोजन और कार्बन है. जो कभी भी समाप्त नहीं होते, तब भी नहीं जब इनका इस्तेमाल ईंधन की तरह जलाने में किया जाता है. साफ़ है कि पारंपरिक फॉसिल फ्यूल्स जब जलेंगे तो कार्बन रिलीज़ होगा. लेकिन किस शक्ल में? जवाब है -ग्रीन हाउस गैसेज़- डाईआक्साईड, कार्बन मोनो ऑक्साइड, नाईट्रस ऑक्साइड वगैरह. ये गैसें ही हमारी पृथ्वी की हवा बेहद खराब कर रही हैं. इतनी कि कई देशों में बच्चों को पानी की बोतल के साथ-साथ ऑक्सीजन की केन लेकर स्कूल जाना पड़ रहा है. इस स्थिति के लिए हम सब ज़िम्मेदार हैं लेकिन सबसे ज्यादा ज़िम्मेदार हैं इंडस्ट्रीज़ की वो चिमनियां जो कार्बन वाला काला धुंआं फेंक रही हैं.
इन उद्योग-धंधों की वजह से बढ़ते 'एयर पॉल्यूशन’ को रोकने के तीन तरीके हैं, इनमें पहला ये कि इंडस्ट्रीज़ पूरी तरह बंद कर दी जाएं. लेकिन ये कुछ वैसा ही है कि किसी उपलब्ध संसाधन का इस्तेमाल ही न किया जाए, ताकि वो हमेशा सर्वसुरक्षित बना रहे. ऐसा संभव भी नहीं है. क्योंकि जिस तरह की दुनिया हम इंसानों ने रच दी है, उसमें उद्योगों के बिना काम चलाना मुश्किल है.
दूसरा तरीका है कि उद्योगों को पूरी तरह ऐसे फ्यूल्स पर ले आया जाए, जिनसे प्रदूषण नहीं फैलता. यानी सारे उद्योगों को अक्षय ऊर्जा संसाधनों से चलाया जाए (माने सोलर एनर्जी और विंड एनर्जी से). ऐसे में कार्बन एमिशन जीरो किया जा सकता है. लेकिन ये फ़िलहाल दूर की कौड़ी है. आनन-फानन में ये नहीं हो सकता कि दुनिया के सारे देश भूटान की तरह नेगेटिव कार्बन एमिशन करने लगें. PM मोदी ने नवंबर 2021 में UNFCCC के तहत हुई COP 26 कांफ्रेंस में कहा था कि हम 2070 तक जीरो कार्बन एमिशन का लक्ष्य पूरा कर पाएंगे.

ग्लास्गो में COP26 समिट के दौरान UK प्रेजिडेंट बोरिस जॉनसन और PM मोदी (फोटो सोर्स -आज तक )
ऐसे में मध्य मार्ग बचता है. और वो है कार्बन क्रेडिट. इस तरीके से न डेवलपमेंट रुकेगा और न ही हवा और बदतर होगी. लेकिन कैसे? आइए समझते हैं. #कार्बन क्रेडिट- UNNFCC यानी ‘यूनाइटेड नेशंस फ्रेमवर्क कन्वेंशन ऑन क्लाइमेट चेंज’ ने साल 1997 में क्योटो प्रोटोकॉल बनाया. तय हुआ कि क्योटो प्रोटोकॉल साइन करने वाले देश ग्रीनहाउस गैसेज़ के उत्सर्जन पर बनाए गए रूल्स को फॉलो करेंगे. करेंगे माने खुद करेंगे और अपने यहां की इंडस्ट्रीज़ से करवाएंगे. बाद में 2015 के पेरिस समझौते में भी जलवायु परिवर्तन को लेकर कुछ रूल्स बनाए गए, जिन पर दुनिया के 195 देश सहमत भी हुए. ये रूल्स या नॉर्म्स कुछ यूं थे कि कोई देश या इंडस्ट्री एक 'तय लिमिट' से ज्यादा कार्बन डाई-ऑक्साइड या उसके ही बराबर किसी दूसरी ग्रीन हाउस गैस का उत्सर्जन नहीं कर सकते. और ये लिमिट तय हुई कार्बन क्रेडिट से. एक कार्बन क्रेडिट बराबर रखा गया एक टन कार्बन डाई-ऑक्साइड या इसी के जैसी किसी दूसरी ग्रीन हाउस गैस के. और शर्त रखी गई कि कोई भी देश उतने ही टन ग्रीन हाउस गैस एमिट कर सकता है जितने उसके पास कार्बन क्रेडिट होंगें.
अब अगर सारे देश और उनकी इंडस्ट्रीज़ ये लिमिट वाली शर्त मानते और उतने ही टन ग्रीन हाउस गैस एमिट करते जितने उनके पास कार्बन क्रेडिट हैं तो तीन काम नहीं होते, एक न तो प्रदूषण की समस्या बढ़ती, दूसरा इंडस्ट्रीज़ को एक्स्ट्रा कार्बन क्रेडिट न कमाने पड़ते और तीसरा कार्बन क्रेडिट के लेनदेन का व्यापार न शुरू होता.
लेकिन हम सब जानते हैं कि दुनिया के लिए डेवलपमेंट ज़रूरी है, सीमाएं और शर्तें तो टूटने के लिए ही होती हैं, और कार्बन एमिशन की शर्तों के टूटने से शुरू हुआ कार्बन क्रेडिट कमाने और उनका लेनदेन करने का बिज़नेस. जिसका दूसरा नाम है- कार्बन ट्रेडिंग. इसे समझते हैं. #कार्बन क्रेडिट कैसे कमाते हैं? उदाहरण के लिए मान लीजिए कि अमेरिका ने क्योटो प्रोटोकॉल पर साइन किया और उसे कार्बन एमिशन के लिए लिमिट के तौर पर 5 कार्बन क्रेडिट मिले. यानी अमेरिका 5 टन कार्बन डाई-ऑक्साइड एमिट कर सकता है उससे ज्यादा नहीं. लेकिन अगर अमेरिका का कार्बन एमिशन इससे ज्यादा है तो अमेरिका और वहां की कंपनीज़ के पास दो रास्ते बचते हैं. एक या तो वो कुछ ऐसी नई तकनीक विकसित करें, जिससे उसका इंडस्ट्रियल कार्बन एमिशन कम हो जाए और कार्बन क्रेडिट की उनकी लिमिट न टूटे. इस तरह उनकी इंडस्ट्री समान्य तौर पर चलती रहेगी. लेकिन अगर अमेरिका ऐसा करने में असफल रहता है तो उसे दूसरा रास्ता अपनाना पड़ेगा. और दूसरा रास्ता ये है कि वो दूसरे किसी देश में ऐसी कोई टेक्नोलॉजी डेवेलप कर दे ताकि उस दूसरे देश में ग्रीन हाउस गैसों का एमिशन कम हो जाए. माने वो दूसरे किसी देश में सोलर पैनेल लगवा दे, विंड एनर्जी प्लांट शुरू कर दें या पेड़ पौधे लगाने का काम करे. साफ शब्दों में कहें तो वो दूसरे देश में जाकर ग्रीन हाउस गैस एमिशन कम करने वाले किसी प्रोजेक्ट में इन्वेस्ट कर दे.

पौधे लगाकर कार्बन एमिशन को कम किया जा सकता है (प्रतीकात्मक फोटो - आज तक)
अब इंवेस्टमेंट किया है तो बदले में फायदा चाहिए. मान लीजिए अमेरिका से कोई कंपनी आई और उसने हमारे यहां किसी ऐसे प्रोजेक्ट में इन्वेस्ट किया जिससे ग्रीनहाउस गैस एमिशन कम होता है. इन्वेस्टमेंट के बाद प्रोजेक्ट ने काम किया और हमारे यहां 1 टन कार्बन डाई-ऑक्साइड एमिशन कम हुआ. तो रेश्यो के मुताबिक इन्वेस्टमेंट करने वाली कंपनी को 1 टन कार्बन डाई-ऑक्साइड एमिशन कम करने के बदले 1 कार्बन क्रेडिट मिल जाएगा. इसी तरह अगर 100 टन कार्बन डाई-ऑक्साइड एमिशन कम हुआ होता तो 100 कार्बन क्रेडिट मिल जाते. और चूंकि देश भले एक हों, पृथ्वी तो एक ही है और उसकी हवा भी एक. तो अब ये अमेरिकी कंपनी जिसने हमारे यहां 100 टन हवा साफ़ करके 100 कार्बन क्रेडिट कमाए हैं, इनका इस्तेमाल वो अपने देश में कर सकता है. यानी उसे अब अपने देश में किसी दूसरे प्रोजेक्ट में 100 टन कार्बन ज्यादा उत्सर्जन करने का परमिट मिल गया है. यहां तक तो बात सिर्फ इतनी है कि कोई कंपनी कार्बन क्रेडिट कैसे कमाती है और उनका इस्तेमाल किस तरह अपने बिज़नेस को चलाते रहने के लिए कर सकती है. लेकिन कुछ कंपनियों ने इस कार्बन क्रेडिट कमाने और उसे ऐसे देशों या कंपनियों को बेचना शुरू कर दिया है जिन्हें इसकी ज़रूरत है. इसी कार्बन क्रेडिट के प्रोडक्शन और बिक्री के बिज़नेस को कार्बन-ट्रेडिंग कहते हैं. #कार्बन ट्रेडिंग शुरुआत में हमने आपको नीदरलैंड्स की कंपनी रॉयल डच शेल और हमारे यहां इंदौर की EKI के जॉइंट वेंचर की खबर बताई. उनका टारगेट है 11.5 करोड़ कार्बन-क्रेडिट कमाना. कैसे कमाएंगे? साफ़ है कि ऐसे कुछ प्रोजेक्ट्स शुरू करके जिनसे कार्बन या उसके जैसी ही दूसरी गैसों का एमिशन कम होता हो. ऐसे प्रोजेक्ट्स कई हैं जैसे बायो-मेथेनेशन प्लांट्स, बड़े पैमाने पर पौधारोपण, बायो-फ़र्टिलाईजर प्रोजेक्ट्स, इलेक्ट्रिक व्हीकल्स, यहां तक कि ऐसे बल्ब या लाइटिंग प्रोजेक्ट्स जो एनर्जी एफ़ीशिएंट हों. इन प्रोजेक्ट्स को कार्बन-क्रेडिट प्रोग्राम में VCS यानी Verified Carbon Standard के तहत रजिस्टर कराना होता है.
EKI और शेल मिलकर कार्बन-क्रेडिट कमाने और उन्हें दूसरी कंपनियों को बेचने का ही काम कर रही हैं. EKI साल 2009 से इस बिज़नेस में है और उन कंपनियों को कार्बन-क्रेडिट बेचती है जो अपनी लिमिट से ज्यादा कार्बन या कार्बन ऑफसेट्स का एमिशन कर रहे हैं. दुनिया के 40 देशों में EKI के करीब 2500 क्लाइंट्स हैं, जो इससे कार्बन-क्रेडिट्स खरीदते हैं. इनमें कुछ बड़े नाम हैं- वर्ल्ड बैंक, इंडियन रेलवेज़, NTPC, अडानी ग्रुप, जापान का सॉफ्टबैंक ग्रुप, आदित्य बिरला ग्रुप और NHPC वगैरह.

EKI और Shell के प्रतीक लोगो (फोटो सोर्स - ट्विटर)
#एक अच्छा बिज़नेस आईडिया ये तो बड़े स्तर की बात हो गई, छोटे स्तर पर भी हमारी पृथ्वी की हवा साफ़ की जा सकती है. कुछ आर्गेनाईजेशन ये काम कर भी रहे हैं और बदले में मुनाफा कमा रहे हैं. देश का सबसे स्वच्छ शहर कहे जाने वाले इंदौर का म्युनिसिपल कॉर्पोरेशन पहली सिविक बॉडी है, जिसने साल 2020 में बायो-मीथेशन प्लांट्स लगाए और 1.7 टन कार्बन एमिशन रोका. बदले में इंदौर म्युनिसिपल कॉर्पोरेशन ने 50 लाख रूपए कमाए.
चेन्नई कॉर्पोरेशन और चेन्नई स्मार्ट सिटी लिमिटेड भी इसी रास्ते पर हैं. The New Indian Express के मुताबिक चेन्नई कॉर्पोरेशन के एक ऑफिसर कहते हैं,
'चेन्नई कॉर्पोरेशन Miyawaki Urban Forests जैसे कई ग्रीन इनिशिएटिव प्रोजेक्ट्स चला रहा है, जो कार्बन-एमिशन को कम करते हैं और कार्बन ट्रेडिंग के लिए एलिजिबल हैं. इससे होने वाले मुनाफे का इस्तेमाल हम शहर के दूसरे इंफ्रास्ट्रक्चर प्रोजेक्ट्स में करेंगे.'इसी साल DMRC यानी दिल्ली मेट्रो रेल कॉर्पोरेशन ने करीब 3.5 मिलियन कार्बन क्रेडिट्स की बिक्री से 19.5 करोड़ रुपये की कमाई की है. ये तो रही कार्बन-क्रेडिट के बिज़नेस मॉडल की बात. लेकिन ये बड़ी हैरानी और दुर्भाग्य की बात है कि क्योटो प्रोटोकॉल के तहत 2009 में शुरू किए गए इस प्लान को लेकर आम तौर पर न सिर्फ जागरूकता की कमी है, बल्कि देश-विदेश में कई बार इसे अनसस्टेनेबल भी बता दिया जाता है. कुछ समस्याएं भी हुईं, संक्षिप्त में जान लेते हैं...
# क्योटो प्रोटोकॉल के तहत कार्बन एमिशन में कटौती करने के लिए सिर्फ विकसित देश बाध्य थे, हालांकि पेरिस समझौते में किसी भी देश पर इसकी बाध्यता नहीं थी. फिर भी क्योटो के तहत भारत जैसे कई विकसित देशों ने लाखों कार्बन-क्रेडिट कमाए, जिसे बहुत से विकसित देशों को खरीदना पड़ा. क्योंकि वे खुद कार्बन एमिशन कंट्रोल करने में फेल हुए. इस वजह से क्योटो प्रोटोकॉल पर आम राय नहीं बन सकी.बहरहाल, समस्याएं जो भी हों, रास्ता कोई भी निकले, लेकिन क्लाइमेट चेंज को लेकर बात अब व्यापार और आपसी विवादों से आगे बढ़ जानी चाहिए. क्योंकि देशों की सीमाएं बांट देने से प्राकृतिक आपदाएं और महामारियां नहीं बंटा करतीं.
# कई विकसित देशों ने खुद को क्योटो प्रोटोकॉल से अलग कर लिया, और उनके लिए एमिशन में कमी करना अनिवार्य नहीं रह गया, ऐसे में विकासशील देशों के कार्बन-क्रेडिट्स नहीं बिक पाए. भारत के पास करीब 750 मिलियन कार्बन-क्रेडिट्स हैं जिनकी बिक्री नहीं हुई.
# कार्बन क्रेडिट्स ट्रेडेबल हैं. एक ही कार्बन-क्रेडिट को कई बार ट्रेड किया जा सकता है, जिसके चलते इनकी गिनती में समस्या आई.
# विकासशील देशों की अपनी मांगें हैं, वे चाहते हैं कि उन्होंने कार्बन एमिशन में कमी की है, तो उन्हें क्रेडिट्स बेचने के बाद भी एमिशन में कमी दिखाने का अधिकार दिया जाए.