ये कहानी 1980 के दशक की है. बांग्लादेश पर सैन्य शासन चल रहा था. बागडोर हुसैन मोहम्मद इरशाद के हाथों में थी. सरकार के ख़िलाफ़ बोलना देशद्रोह के बराबर था. अभिव्यक्ति की आज़ादी का नामोनिशान तक नहीं था. इसी दौर में एक अख़बार चर्चा में आया, डेली संग्राम. ये अख़बार इरशाद सरकार का मुखर आलोचक था. उन दिनों अब्दुल क़ादिर मुल्ला डेली संग्राम के एग्जीक्यूटिव एडिटर हुआ करता था. उसका लिखा लोग बड़े चाव से पढ़ा जाता था. अख़बार चलाने से पहले मुल्ला की एक कुख्यात पहचान थी. 1971 में बांग्लादेश के मुक्ति संग्राम में उसने पाकिस्तान का साथ दिया था. ढाका यूनिवर्सिटी में वो जमात-ए-इस्लामी (JEI) के स्टूडेंट विंग इस्लामी छात्र संघ का प्रेसिडेंट था. उसी दौरान उसने अल-बद्र गुट की स्थापना की. ये पाकिस्तान आर्मी का प्रॉक्सी गुट था. इसने कई स्वतंत्रता सेनानियों की हत्या में अहम भूमिका निभाई थी. मुल्ला को मीरपुर के कसाई के तौर पर जाना गया.
जमात-ए-इस्लामी बांग्लादेश को बड़ा झटका क्यों लगा?
सुप्रीम कोर्ट ने बैन बरकरार क्यों रखा?

फिर 16 दिसंबर 1971 को बांग्लादेश नया मुल्क बन गया. शेख़ मुजीबुर रहमान राष्ट्रपति बने. उन्होंने जमात-ए-इस्लामी पर बैन लगा दिया. मुल्ला की पोलिटिक्स को गहरी चोट पहुंची. हालांकि, उसको कोई आंच नहीं आई. इस बीच 15 अगस्त 1975 की सुबह आ गई. ढाका के धनमंडी के एक घर में नरसंहार हुआ. तत्कालीन प्रधानमंत्री शेख़ मुजीब और उनके पूरे परिवार की हत्या कर दी गई. उसके बाद सैन्य शासन शुरू हुआ. मिलिटरी सरकार ने जमात-ए-इस्लामी पर लगा बैन हटा दिया. मुल्ला के वारे-न्यारे हो गए. वो पार्टी के मुखपत्र डेली संग्राम का संपादक बना. पार्टी में कई अहम पदों पर रहा. सरकार में भी उसकी चलती रही.
मगर 2007 में कहानी बदल गई. उसके ऊपर 1971 में किए कुकर्मों की गाज गिरी. मुकदमा हुआ. गिरफ़्तारी हुई. अदालत ने मौत की सज़ा सुनाई. 13 दिसंबर 2013 की रात ढाका सेंट्रल जेल में मुल्ला को फांसी पर चढ़ा दिया गया. ये 1971 के मुक्ति-संग्राम में वॉर क्राइम के दोषी को फांसी दिए जाने का पहला मामला था. ऐसा गुनाह के 42 बरस बाद हुआ था. पाकिस्तान, क़तर और तुर्किए समेत कई देशों ने इसकी निंदा की. कहा, ये ग़लत है. इससे माहौल बिगड़ सकता है. मगर बांग्लादेश सरकार नहीं मानी. आने वाले समय में जमात-ए-इस्लामी के कई और दिग्गज नेताओं को सज़ा हुई. कुछ अहम नाम जान लीजिए -
> मोहम्मद कमरूज़्ज़मान – जमात-ए-इस्लामी के महासचिव रहे. 11 अप्रैल 2015 को ढाका की सेंट्रल जेल में फांसी दी गई
> अली अहसन मोहम्मद मुजाहिद – 2001 से 2007 के बीच बांग्लादेश के सोशल वेलफ़ेयर मिनिस्टर थे. 22 नवंबर 2015 को मौत की सज़ा हुई.
> मतिउर रहमान निज़ामी. दो बार के केंद्रीय मंत्री. 2001 से 2003 तक कृषि और 2006 तक उद्योग मंत्रालय का ज़िम्मा संभाला. 11 मई 2016 को उन्हें भी फांसी पर चढ़ा दिया गया.
ये जमात-ए-इस्लामी के कुछ बड़े लीडर्स थे, जिनके नाम चर्चा में आ पाए. इनके अलावा भी सैकड़ों कारकून ऐसे थे, जिन्हें अलग-अलग आरोपों में जेल हुई. कइयों को फांसी भी दी गई. इन सबके बावजूद पार्टी की ताक़त खत्म नहीं हुई. जमात-ए-इस्लामी आज भी बांग्लादेश की राजनीति में अहमियत रखती है. और, उसके एक इशारे पर मुल्क थम जाता है.
लेकिन जमात-ए-इस्लामी की चर्चा क्यों?
क्योंकि बांग्लादेश की सर्वोच्च अदालत ने पार्टी की नियति तय कर दी है. उसपर लगा बैन बरकरार रखा है. दरअसल, 2013 में हाईकोर्ट ने चुनाव में हिस्सा लेने और चुनाव चिह्न का इस्तेमाल करने पर रोक लगा दी थी. इसके ख़िलाफ़ सुप्रीम कोर्ट में अपील की गई. 18 नवंबर 2023 को सुप्रीम कोर्ट ने अपील खारिज कर दी. यानी, वो 07 जनवरी 2024 को होने वाले आम चुनाव में हिस्सा नहीं ले पाएगी.
तो, आइए जानते हैं,
- जमात-ए-इस्लामी की पूरी कहानी क्या है?
- सुप्रीम कोर्ट ने बैन हटाने से मना क्यों किया?
- और, इस कवायद का भारत पर क्या असर होगा?
ये बात है आज़ादी से पहले की. आज़ाद भारत में मुसलमानों की क्या भूमिका होगी? उनका मुस्तकबिल कौन तय करेगा? इस तरह की चर्चा बहुत आम थी. इस मुद्दे को चर्चा में रखने वाले नेताओं की भी कमी नहीं थी. ऐसे ही रहनुमा बनने की होड़ में एक तरफ मोहम्मद अली जिन्ना की मुस्लिम लीग थी. वे मुसलमानों के लिए अलग मुल्क की मांग कर रहे थे. दूसरी तरफ मुत्तहिद क़ौमियत की बात करने वाली जमीयत-अल-उलेमा-ए-हिंद थी, उनके लीडर हुसैन अहमद मदनी थे. मदनी, मुत्तहिद क़ौमियत की फ़िक्र रखते थे, अंग्रेजी में कहें तो 'कॉम्पोजिट नैशनलिज़्म'. यानी हिंदुस्तान विभाजित न हो, लेकिन हिंदुओं और मुसलमानों के लिए अलग-अलग संस्थान, नियम और व्यवस्थाएं हों.
इसी तरह का विचार रखने वाले एक और शख़्स थे, अबुल आ’ला मौदूदी. हैदराबाद में पैदा हुए मौदूदी पहले इंडियन नेशनल कांग्रेस के साथ थे. मगर हिंदू महासभा का दखल बढ़ने के बाद अलग हो गए. उन्होंने एक अलग विचार का प्रचार किया. हकीमिया. उनका मानना था कि संप्रभुता की चाबी अल्लाह के पास है, इंसानों के पास नहीं. इसलिए, पूरी दुनिया में इस्लामी सरकार की स्थापना होनी चाहिए. मौदूदी लोकतंत्र और पंथनिरपेक्षता के भी खि़लाफ़ थे.
फिर 1940 में लाहौर में मुस्लिम लीग की बैठक हुई. उसमें मुस्लिमों के लिए एक अलग मुल्क बनाने का प्रस्ताव पास किया गया. मौदूदी ने इसका विरोध किया. उनका विचार था कि विभाजन नहीं होना चाहिए, वो मुस्लिम लीग के भी ख़िलाफ़ थे. 26 अगस्त 1941 को उन्होंने एक नया संगठन बनाया. नाम रखा जमात-ए-इस्लामी. संगठन इस्लामी तर्ज पर समाज बनाने की बात करता था. विचारधारा ये थी कि इस्लाम बस उनके लिए नहीं है, जिन्होंने मुसलमान परिवार में जन्म लिया है. इस्लाम सबके लिए है और इसके लिए प्रसार होना चाहिए. ये प्रसार किसी आंदोलन से नहीं किया जाएगा. इस्लाम का प्रसार होगा समाज के नेताओं और बड़े लोगों को क़ुरआन और हदीस की तालीम देकर. साथ ही ऊंचे पदों पर जमात के लोगों को बैठाकर. इसका अंतिम मकसद पूरे हिंदुस्तान में इस्लाम का प्रसार करना था.
संगठन बनने के महज़ 6 साल बाद भारत का विभाजन हो गया. मौदूदी पाकिस्तान चले गए. वहां बनी, जमात-ए-इस्लामी पाकिस्तान. मुख्यालय लाहौर में बना. भारत में बनी जमात ए इस्लामी हिन्द, 1948 में इलाहाबाद में इसकी शुरुआत हुई. इसके पहले प्रेसिडेंट बने, मौलाना अबुल लाइस नदवी.
समय के साथ दोनों देशों में परिस्थियां बदली. संगठनों का मकसद भी बदला. काम करने के तरीके में भी बदलाव आया और कई वैचारिक मतभेद भी हुए. जहां मौदूदी पहले लोकतंत्र और धर्मनिरपेक्षता को ग़लत मानते थे, उन्हीं की जमात चुनावों में हिस्सा लेने लगी. शुरुआती दौर में पाकिस्तान भारत के पश्चिम में भी था और पूरब में भी. पूर्वी पाकिस्तान में बांग्ला बोलने वाले बहुमत में थे. लेकिन सत्ता का केंद्र पश्चिमी पाकिस्तान माने मौजूदा पाकिस्तान में था. वे अपनी भाषा और संस्कृति पूर्वी पाकिस्तान पर थोपना चाहते थे.
मार्च 1971 में पूर्वी पाकिस्तान के सबसे बड़े नेता शेख़ मुजीबुर रहमान को अरेस्ट कर लिया गया. आम लोगों का नरसंहार हुआ. फिर भारत के साथ लड़ाई शुरू की. पाकिस्तान को करारी हार झेलनी पड़ी. आख़िरकार, 16 दिसंबर 1971 को पूर्वी पाकिस्तान ने आज़ादी की घोषणा कर दी. बांग्लादेश नाम से नए मुल्क की स्थापना हुई. अवामी लीग के शेख़ मुजीब पहले राष्ट्रपति बने.
जमात का बांग्लादेश पर क्या रुख था?
मौदूदी के समर्थक पूर्वी और पश्चिमी पाकिस्तान दोनों जगह मौजूद थे. जमात नहीं चाहती थी कि पाकिस्तान का बंटवारा हो. वे इसे इस्लाम के लिए एक दंश मानते थे. और, मुसलमानों के बीच फूट के रूप में देखते थे. इसलिए, जमात ने पश्चिमी पाकिस्तान की सेना के साथ खुद को जोड़ लिया. और, बांग्लादेश की स्थापना के ख़िलाफ़ कैंपेन शुरू कर दिया. पाक सैनिकों और क्रांतिकारियों के बीच 9 महीनों तक जंग चली. बांग्लादेश कहता है कि इस लड़ाई में 30 लाख लोगों की जान गई, 2 लाख औरतों के साथ बालात्कार हुए और 10 लाख से ज़्यादा लोग देश छोड़कर चले गए. जमात के लीडर्स पर वॉर क्राइम के आरोप लगे. शेख़ मुजीब ने राष्ट्रपति बनते ही कहा कि देश और धर्म अलग-अलग रहेंगे. जमात पर रोक लगा दी गई. 1975 में सेना ने मुजीब की हत्या कर दी. सत्ता अपने हाथों में ले ली. फिर जमात पर लगा बैन भी हटा दिया गया. हालांकि, जमात ने इस्लामी राष्ट्र बनाने के लिए सेना की मुख़ालफ़त भी की.
1991 के चुनाव में उन्होंने बांग्लादेश नेशनलिस्ट पार्टी (BNP) से हाथ मिलाया. BNP ने चुनाव जीता. ख़ालिदा ज़िया प्रधानमंत्री बनीं. 1996 में उनकी सरकार गिर गई. 2001 में वापसी हुई. उस वक़्त भी जमात BNP के साथ रही.
2006 के बाद अगला चुनाव 2008 में हुआ. सभी पार्टियों को रजिस्ट्रेशन कराने के लिए कहा गया. जमात ने भी पर्चा भरा. चुनाव में तीन सीटें भी मिलीं. हालांकि, बहुमत अवामी लीग को मिला. शेख हसीना प्रधानमंत्री बनीं. उन्होंने वॉर क्राइम के दोषी जमात के नेताओं को जेल में डालने का वादा किया. जमात उनके ख़िलाफ़ थी. जमात देश का इस्लामीकरण करना चाहती थी, और देश में इसके लिए माहौल भी बना रही थी. शेख हसीना इस बात को भांप गई थी. उन्होंने शिकंजा कसने के लिए वॉर क्राइम्स के पुराने केस खोल दिए. इंटरनैशनल क्राइम्स ट्रिब्यूनल्स (ICT) की स्थापना की. पश्चिमी देशों ने ICT का समर्थन नहीं किया, कहा कि इंटरनैशनल मानकों का पालन नहीं हो रहा. लेकिन ICT ने काम करना बंद नहीं किया. इसके तहत जमात के कई बड़े नेताओं को मौत की सज़ा दे दी गई. इसी दौरान जमात के कई लीडर्स भागकर पाकिस्तान चले गए.
2009 में जमात के ख़िलाफ़ अदालत में पिटीशन दायर किया गया. कहा गया, उनका रजिस्ट्रेशन खारिज किया जाए. 04 तर्क दिए गए.
- नंबर एक. जमात शक्ति का स्रोत लोगों को नहीं मानती. इसलिए, संसद के द्वारा बनाए गए कानूनों का विरोध करती है.
- नंबर दो. जमात एक सांप्रदायिक पार्टी है.
- नंबर तीन. कोई रजिस्टर्ड पार्टी धर्म या लिंग के आधार पर भेदभाव नहीं कर सकती. मगर जमात का चार्टर महिलाओं और गैर-मुस्लिमों को पार्टी में पद लेने से रोकता है.
- नंबर चार. जमात विदेशी संगठन का हिस्सा है. इसकी पैदाइश भारत में हुई थी. और, इसकी इकाइयां पूरी दुनिया में फैली है.
हाईकोर्ट ने चुनाव आयोग को नोटिस भेजा. पूछा कि पार्टी का रजिस्ट्रेशन क्यों ना रद्द कर दिया जाए? मगर सुनवाई टलती गई. आख़िरकार, 2013 में फ़ैसला आया. कोर्ट ने पार्टी का पंजीकरण रद्द किया. पार्टी के प्रतीकों का उपयोग करने पर भी रोक लगा दी. हालांकि, इसके राजनीति में हिस्सा लेने पर रोक नहीं लगाई थी. लेकिन जमात एक दल के रूप में चुनाव नहीं लड़ सकती थी.
जमात 10 सालों से सुप्रीम कोर्ट का दरवाज़ा खटखटा रही है. इस उम्मीद में कि उनपर लगा ये प्रतिबंध हट जाएगा और वो वापस चुनाव लड़ सकेगी. बांग्लादेश में 7 जनवरी 2024 को चुनाव होने वाले हैं, इसलिए जमात ने फिर से इस प्रतिबंध को खत्म करने के लिए याचिका दायर की हुई थी. पर अब सुप्रीम कोर्ट ने जमात की याचिका खारिज कर दी.
क्या कहा कोर्ट ने?
बांग्लादेश के चीफ़ जस्टिस ओबैदुल हसन की अगुआई में 5 सदस्यों वाली बेंच जमात की याचिका की सुनवाई हुई जमात के मुख्य वकील कोर्ट में ग़ैर-हाज़िर रहे. उन्होंने 6 हफ़्तों के लिए सुनवाई टालने की अपील की थी. मगर कोर्ट ने उनकी दरख़्वास्त और पार्टी की ओर से दायर अपील, दोनों को खारिज कर दिया. एक और ज़रूरी बात, बैन के बावजूद जमात बांग्लादेश में राजनैतिक रूप से सक्रिय रही है. वो BNP का समर्थन करती आई है. BNP बांग्लादेश में विपक्ष की भूमिका में है. शेख हसीना को सबसे ज़्यादा चुनौती इसी पार्टी से मिलती रही है. कहा जा रहा था कि जमात भले ही चुनाव में न उतरे लेकिन वो इसपर असर पूरा डालेगी.