
डॉ. अमरेन्द्र नाथ त्रिपाठी
डॉ. अमरेंद्र नाथ त्रिपाठी. शिक्षक और अध्येता. लोक में खास दिलचस्पी, जो आपको यहां दिखेगी. अमरेंद्र हर हफ्ते हमसे रू-ब-रू होते हैं. 'देहातनामा' के जरिए. पेश है इसकी अठारहवीं किस्त:
डॉ. अमरेंद्र नाथ त्रिपाठी. शिक्षक और अध्येता. लोक में खास दिलचस्पी, जो आपको यहां दिखेगी. अमरेंद्र हर हफ्ते हमसे रू-ब-रू होते हैं. 'देहातनामा' के जरिए. पेश है इसकी अठारहवीं किस्त:
बाबुल मोरा नैहर छूटो ही जाय चार कहार मिल डोलिया उठाये मोरा अपना बेगाना छूटो ही जाय!
नवाब वाजिद अली शाह की लिखी इस ठुमरी को राग भैरवी में आदरणीया गिरिजा देवी की आवाज़ में मैंने कई बार सुना है, लेकिन आज सुनते हुए 'छूटो ही जाय' की कसक दिल में घर कर गई!
हिंदुस्तानी संगीत-प्रेमियों की 'अप्पा जी' गिरिजा देवी दो दिन पहले इहलोक से परे सुर के उस विराट संसार में चली गईं, जिसे अब तक वे अपनी सुर साधना से निखारती रहीं. उन्हें लोगों का खूब प्यार मिला, सम्मान मिला. अप्पा जी को पाकर पद्मश्री, पद्मभूषण और पद्मविभूषण जैसे सम्मान सम्मानित हुए. वे सौभाग्यशाली हैं, जिन्होंने उन्हें प्रत्यक्ष सुना है. अप्पा जी के बहाने उन्होंने उस समृद्ध परंपरा को सुना, जिसमें संगीत के सैकड़ों सालों और अनेक पंडितों-उस्तादों की संगीत कला फूली-फली थी.
स्त्रियों के आगे बढ़ने के लिहाज से समस्याओं से भरे इस समाज से किसी स्त्री ने इतनी बड़ी गायिका का मुकाम हासिल किया, ये आसान नहीं. इंटरव्यू के दौरान कई जगहों पर उन्होंने जो बताया है, उससे ये समझा जा सकता है. बनारस के एक गांव से आगे निकलकर संगीत में महारथ पाना संभव नहीं होता, अगर उनके पिता के भीतर संगीत और अपनी बेटी के प्रति इतना लगाव न होता. पांच वर्ष की कम उम्र से ही उन्होंने उन्हीं गुरुओं से गिरिजा देवी को भी संगीत शिक्षा दिलवाई, जहां से वो खुद सीखते थे. पं. सरजू प्रसाद मिश्र और पं. श्रीचंद मिश्र के यहां. संगीत के प्रति उनका समर्पण फिर आगे-आगे सफलता की राह निकालता गया.
जब अप्पा जी का ध्यान होता है, तब उनकी एक छवि आंखों में खिंच आती है. 'सबसे यंग आर्टिस्ट हमीं हैं, जो कहो सब सुनाएं...' सामने सुनैया लोगों की भीड़ है और आदरणीया गिरिजा ऐसा कहते हुए अपने खास अंदाज में हंसे जा रही हैं. ये छवि कभी भूलने की नहीं. हास का ये उजास कम ही कलाकारों के पास होता है. सुर-संचित उजास. बड़े कलाकार में सहजता के बड़प्पन की तरह. सही मानों में एक साधक में दिखने वाला पारदर्शी भाव, जिसे अहंकार छू भी न सका हो.
शास्त्रीय और उप-शास्त्रीय गायक तो बहुत से हुए हैं, लेकिन सभी लोगों के दिलों तक पहुंचे हों, ऐसा बहुत कम हुआ है. लोकजीवन और देहात की बात करूं, तो वहां शास्त्रीय गायन का उतना आस्वाद नहीं किया जाता, जितना कला मर्मज्ञों की दुनिया में. वो कठिन लगता है उन्हें. देहातियों के लिए शास्त्रीय गायन तो ख़ास तौर पर कोई अबूझ-सी चीज़ ही है. उप-शास्त्रीय गायन भी देहात में स्वीकृत हो, ज़रूरी नहीं. लोक-संगीत देहात का संगीत है. वही उप-शास्त्रीय संगीत गांवों में पहुंचा, जिसने लोक-संगीत के साथ अपने को मिलाया. जिसने लोकजीवन से मिलने की कोशिश और लोक-संगीत से दोस्ती की.
शास्त्रीय संगीत में जहां ध्वनि के संसार को रचा जाता है, वहीं लोक संगीत में अर्थों का संसार जिया जाता है. लोक संगीत में शब्दों के अर्थ महत्व रखते हैं. यहां राग के 'ग्रामर' को ध्वनि से, उसके उतार-चढ़ाव से पूरा कर देना काफी नहीं है. जिस संगीत में शब्द अर्थों और भावों से नहीं जुड़ेंगे, तो वो लोकसंगीत नहीं हो सकेगा. गिरिजा अप्पा की शास्त्रीय संगीत में कुशलता जगजाहिर है, फिर भी उन्होंने लोकसंगीत के महत्व को समझा है. अपने गायन में इसे जगह दी है. इससे उनकी गायकी व्यापक हुई. दूर देहातों तक गई.
गिरिजा जी के गायन की ये खासियत उन्हें दूसरे गायकों से अलग करती है कि उन्होंने अपनी गायकी में शब्दों और भावों को जानबूझकर, कोशिश करके, अहमियत दी. वे खुद कहती है, 'मैंने ये रिसर्च ठुमरी में ज़रूर की कि बड़ों की बंदिशें लेकर उसमें भावना मैंने अपनी डाली.' ये भावना डालने का काम वही था, जिसमें लोग जान सकें कि जो गाया जा रहा है, वो उनसे कुछ 'बोल' भी रहा है. चूंकि बोल रहा है, तो उसके साथ बतियाया-सा जाए. दूर-दूर से सुना-सा बर्ताव न किया जाए. ये 'बोलना' सुनने वालों को दिल के काफी करीब लगा. 'भावना डालने' का फल ये हुआ कि वही 'रस के भरे तोरे नैन' सुनैया पर अलग असर डालने लगे.
गांव में जब किसी ने बेगम अख्तर साहिबा की गाई 'हमरी अटरिया पे आ जा संवरिया, देखा देखी तनिक हुइ जाय रे' सुना होगा, तो उसी के बाद गिरिजा जी की 'पिया नहीं आए' ठुमरी को भी गुनगुना लिया होगा. ये जीवन को उतारने की कोशिश है, जिसमें भावों की दुनिया है. ये भाव नृत्य में अभिनय से जाहिर हो जाता है, लेकिन यही संगीत में सुर से कैसे आए, ये संभव करने का काम गिरिजा जी ने किया.
वे कहती हैं कि 'बंसुरिया कैसी बजाई श्याम' को इस ढंग से गाया जाए कि इसमें जो 'सवाल' है, उसके उत्तर पाने की कोशिश दिखे. जैसे मैंने नहीं, तुमने सुना कि श्याम ने बंशी कैसे बजाई? जब सुन लिया है, तो बता दो. अरे किसी ने सुना हो, तो वो ज़रा बताए तो सही! सुर से परिवेश रचने की कोशिश संगीत प्रेमियों को काफी पसंद आई. यही था वो बोल-बनाव, जिसकी इतनी तारीफ हुई. अप्पा जी कहती हैं, 'ऐसा करते हुए मेरी चाह नहीं थी कि लोग तारीफ़ करें.' कहना न होगा कि एक कलात्मक साध के रूप में उन्होंने इसे साधा.
पूरब अंग की गायकी, बोल-बनाव की ठुमरी लखनऊ में खिलखिलाकर नहीं खिल सकी. लेकिन बनारस में और खासकर गिरिजा के यहां, क्या खूब खिली. एकदम खिलखिलाकर. इस खिलखिलाहट के लिए जो लोक-सुलभ या ग्राम-सुलभ जिंदादिली और खिलंदड़पन चाहिए था, वो लखनौवा संस्कारों में मुमकिन नहीं था. यहां की नज़ाकत-नफ़ासत की आत्म-मुग्धता में लोक का सहज स्पंदन आता भी तो कैसे आता. इसलिए यहां का पूरबी अंग पछाह की ओर मुंह खोले चुपचाप पड़ा रह गया. इसके बरअक्स बनारस का पूरबी अंग खिलता ही गया. प्रयोगों के साथ. यहां तक कि पंजाब से आई टप्पा गायकी अप्पा जी के यहां 'कहन' और 'बोल-बनाव' का सुंदर निखार लिए सामने आती है: 'मियां नजरें नहीं आंदा'!
जिन्हें रामनरेश त्रिपाठी ग्रामगीत बोलते हैं, वैसे गीत भी गिरिजा देवी ने गाए हैं. इन्हें सुनते हुए आप भूल जाएंगे कि कोई शास्त्रीयता में पारंगत गायिका ये गीत गा रही है. और रागों का खूबसूरत निबाह भी रहेगा. कजरी, चैती, झूला, होरी जैसे अनेक प्रकार के गीत अप्पा जी की आवाज़ में इसका प्रमाण हैं. ऐसे कई लोकगीत हैं, जो उनके गायन से अपना जबर्दस्त असर पैदा करते हैं:
सिया संग झूमैं बगिया में राम ललना, जहां पड़ा हिन्डोला आठों याम ललना. राम सिया झूलैं लखन झुलावैं मुनि मन भयो है निहाल ललना!
शादी-ब्याह के मौके के लोकगीत भी अप्पा जी ने गाए हैं:
राम पहिरे फूलन को सेहरा सजी बरात चली मिथिला को गरजत आयो बरसि गयो बदरा!
अप्पा जी ने सचेत होकर साहित्यिकता को अपनी गायकी में शामिल किया है. उनके कंठ में साहित्य और संगीत दोनों का वास है. दोनों एकमेक होते हैं. शब्द और भाव को लेकर जो उनकी संगीत-चेष्टा है, वो उनकी साहित्यिक रुचि से जुड़ती है. भक्तिकालीन संतों के पदों के साथ-साथ भारतेंदु हरिश्चंद्र सरीखे साहित्यकारों की रचनाओं को जिस खूबसूरती से उन्होंने गाया है, वो अनूठा है. भारतेंदु का रचा 'कहनवा मानो ओ राधा रानी' जाने कितनी बार सुन चुका हूं. कविमना यतींद्र मिश्र इसके प्रभाव को इस रूप में देखते हैं:
'उन्होंने सहज ही भारतेंदु हरिश्चंद्र की 'दिलजानी 'को अपनी चपल, हीरे की कनी-सी आवाज़ से रिझाकर 'राधारानी' बना डाला फ़िर क्या था! कुछ बहुत सुंदर और शालीन हुआ इस तरह कहनवा मानो ओ राधारानी! निशि अंधियारी कारी बिजुरी चमकत रूम-झूम बरसत पानी तुम्हीं अकेले बिदेस जवैया हरिचन्द सैलानी गिरिजा देवी को जैसे भारतेन्दु में जयदेव मिल गए!'
गिरिजा-गायन में एक खांटीपन है. इस खांटीपन में बनारस है, उनका अपना संघर्ष है, साधना है, अनौपचारिक अल्हड़पन है, अर्थों और भावों की चिन्ता है, ग्राम्यता है और लोकजीवन के रंग हैं. ये उन्हें विशिष्ट बनाता है. जगत के कर्कश-कोलाहल से दूर संगीत की उदात्त दुनिया में ले जाने वाला उनका गायन रंजन मात्र नहीं करता, बल्कि सचेत भी करता है. अपनी तमाम खूबियों के साथ गिरिजा-गायन सुर की दुनिया में सदैव बना रहेगा. 'बना रहे बनारस' को और संगीत-मय करता हुआ!