
डॉ. अमरेन्द्र नाथ त्रिपाठी
डॉ. अमरेंद्र नाथ त्रिपाठी. शिक्षक और अध्येता. लोक में खास दिलचस्पी, जो आपको यहां दिखेगी. अमरेंद्र हर हफ्ते हमसे रू-ब-रू होते हैं. ‘देहातनामा’ के जरिए. पेश है इसकी चौबीसवीं किस्त:
डॉ. अमरेंद्र नाथ त्रिपाठी. शिक्षक और अध्येता. लोक में खास दिलचस्पी, जो आपको यहां दिखेगी. अमरेंद्र हर हफ्ते हमसे रू-ब-रू होते हैं. ‘देहातनामा’ के जरिए. पेश है इसकी चौबीसवीं किस्त:
वह स्त्री है. कई स्त्रियों का दर्द उस 'वह' में देख सकते हैं. वह में वे सब हैं. सर्वनाम में ढेर सारी संज्ञाएं. ग्रामगीतों में 'वह' का दर्द बिखरा-बुना हुआ है. जन्म के पहले से लेकर जन्म के बाद तक. बचपन से लेकर वृद्धावस्था तक. आंगन से लेकर दुआर तक. दुआर से लेकर खेत तक. खेतों से गुज़रती राह और पनघट तक. दूर-दूर तक. अपनों से लेकर गैरों तक. जन्म से लेकर मृत्यु तक.
पुराने समय में जब वह कपड़ा बनवाने जाए, तो दर्जी की लोलुप निगाहें उस पर टिक जाएं. नदी पार करनी हो, तो केवट (नाविक) उसके साथ मौका तलाशने लगे. बाबा बनकर आया ब्राह्मण अपनी घात ढूंढ़ता रहे. राजपूत उसे पनघट पर देख ले, तो बौरा जाए और उसे पाने का हर तरीका निकालने लगे. वह इन सब जीवन स्थितियों के बीच कहीं होशियारी से बचे, कहीं प्रतिरोध करे, कहीं जान दे दे, तो कहीं चुपचाप सब सहन करती पड़ी रहे.
कपड़े सिलाने के लिए वह दर्जी के यहां गई, तो दर्जी फुसलाने लगा-
तोहरी चोलिअवा धना सेतिन मा सीबइ भला एक दिन आउतिउ सेजरिया मा.
(ए स्त्री, तुम्हारी चोली तो मैं मुफ्त में सिल दूंगा, बस तुम एक दिन मेरे साथ सेज पर सो जाओ.)
वह इस बात पर नाराज हो गई. बोली-
अगिया लगउबय दर्जी तोहरी सेजरिया मोरे घरे अहइ सुन्दर छयलवा.
(ए दर्जी, तुम्हारी सेज में तो मैं आग लगा दूंगी. घर में मेरा पति है.)
वह यमुना नदी पार करना चाहती है. ज़रूरी है उस पार उतरना. केवट उसके सामने है. उसे शरारत सूझती है. कहता है कि मुझे पार उतारने का कितना पैसा दोगी? स्त्री ने कहा कि मैं हाथ की अंगूठी दे दूंगी. वह नहीं मानता. वह कहती है कि गले की तिलड़ी दे दूंगी. वह इस पर भी तैयार नहीं होता. वह कहती है कि मुझे पार उतार दो, मैं गजमुक्ता का यह हार तुम्हें दे दूंगी.
केवट अपने नापाक इरादे को साफ करते हुए कहता है-
अगिया लगाऊं तोरी मुंदरी बजर परे तिलरी तिरिया आज रैन बसि लेतिउ त परवा उतारौं.
(ए स्त्री, आग लगे तुम्हारी अंगूठी में. बज्र गिरे तुम्हारी तिलरी पर. अगर आज की रात तुम मेरे यहां रुको, तो मैं पार उतारूं.)
यह सुनकर वह क्रोध से लाल हो गई. बोली-
चांद सुरुज अस पियवा मैं सोवत छोड़ेउं केवटा के तोर मति हरि लीन्ह पाप मन व्यापेउ.
(ए केवट, चांद और सूर्य की तरह सुंदर मेरा पति घर में सो रहा है, जिसे मैं छोड़कर आई हूं. क्या तुम्हारी बुद्धि किसी ने हर ली है? तुम्हारे मन में पाप समा गया है?)
ऐसा कहकर उसने घाघरे को सिर में लपेट लिया. ओढ़नी को पहन लिया. नदी में खुद कूद पड़ी और तैरकर नदी पार कर गई. हक्का-बक्का केवट देखता रह गया.
जब वह घर जा रही थी, तब तो अकेली थी. आज वह लौट रही थी, तो उसके साथ उसका भाई भी था. लौटानी में उसने केवट से कहा कि जो बद्तमीज़ी उस दिन तूने की थी जब मैं अकेली थी, अब मेरे मन में आता है कि तेरी खाल खिंचवा लूं. उसमें भूसा भर दूं-
जात की दइयां अकेलिनि लौटत बिरन संग केवटा खलवा कढ़ाय भूसा भरतिउं जौन मुख भाखेउ.
रास्ते में एक कुंआ है. वह उस पर पानी भरने गई है. घोड़े पर चढ़ा एक राजपूत उधर से गुज़रता है. राजपूत उसे देखकर पलझाने की कोशिश करता है. कहता है कि इस जेठ की दुपहरी में किसने तुम्हें पानी भरने भेज दिया है. इतनी सुंदर हो कि तुम मेरी हो जाओ, तो मैं पलकों और दिल में छिपाकर रखूं. स्त्री का स्वाभिमान आहत होता है और वह राजपूत को ठिकाने लगा देती है-
अस राजपुतवा जो पाइत चाकर हम राखित हो अपने पिय के पायं कै पनहिया तोसे ढोवाइत हो.
(ए राजपूत, तेरे जैसे को मैं पाऊं, तो अपना नौकर बनाकर रखूं और तुझसे अपने प्रिय के पांव के जूते ढोवाऊं.)
वह जब छोटी थी, तब एक योगी या ब्राह्मण आया था. उसकी उमर तकरीबन बारह साल की थी. उसे घर में अकेला पाकर बाबा अपनी जुगत लगा रहा था. तरह-तरह के प्रलोभन देकर बहका रहा था. लेकिन उसने आवाज़ दे दी, बाबा को ही चकमा दे दिया. बाबा मुंह की खा गया. बोल पड़ा-
देस-देस मइं फिरउं, देसवा कइ पानी पियउं हो न। रामा बारा बरिसिया कइ तिरियवा, तउ बतिया छलि लइ गइ हो न॥
(मैं अनेक देश गया हूं, अनेक देश का पानी पिया है, लेकिन इस बारह साल की लड़की ने अपनी बातों से मुझे चक्कर में डाल दिया. मुझे बेवकूफ बना डाला.)
वह सोलह बरस की 'लाची सोनारिन' में दिखी. लोकगाथा में इस तरह-
सोरहै बरस कै लचिया सोनरिया रे ना। लचिया खिड़की बैठि लेय बयरिया रे ना। घोड़ा चढ़ि चलि आवै रजपुतवा रे ना। रामा परिगै लाची पे नजरिया रे ना। चला गवा घोड़वा खिरिकिया रे ना। रामा बांधे राजा कदम की डरिया रे ना। राजा चले गये कुटनी पंच महलिया रे ना। देबै कुटनी तोहैं पांच मोहरिया रे ना। कुटनी लचिया भोरे महला लै आवौ रे ना।
(सोलह वर्ष की लाची (नामक) सोनारिन खिड़की पर बैठी बयार (हवा) ले रही है. उसी समय घोड़े पर सवार एक राजकुमार/राजा/राजपूत वहां आ जाता है. हे राम, उसकी नजर लाची पर पड़ जाती है. घोड़ा धीरे-धीरे खिड़की की ओर बढ़ जाता है. राजा घोड़े को समीपस्थ कदंब के पेड़ की एक डाल में बांध देता है. वह वहां से सीधे कुटनी (स्त्रियों को बहला-फुसलाकर उन्हें परपुरुष से मिलाने का पेशा करने वाली वाली स्त्री) के घर की ओर चल देता है. वह कुटनी को पांच मोहरें देने की बात करता है और कहता है कि कल भोर ही लाची को मेरे महल में ले आना.)
लोकगाथा में वह लाची सोनारिन अपने प्राण त्याग देती है. अपने ईमान की रक्षा करती है. लोकगाथा राजा की निंदा करती है. उस जालिम को धिक्कारती है. लाची के त्याग को गाती है. जाने कितनी लाचियों को सामंतवाद और पितृसत्ता ने अपना शिकार बनाया होगा. लोकवाणी की एक-एक पंक्ति में महाकाव्य-पीड़ा छुपी हुई है. जाने कितने अकल्पनीय दुखों को नारियां लोकगीतों में लाने की हिम्मत भी न जुटा सकी होंगी.
दर्द, दु:ख और दुर्भाग्य का चरम है बलात्कार. हाल-फिलहाल तक आती हुई ये बलात्कार की दहला देने वाली खबरें चैन से बैठने नहीं देतीं. इन खबरों से वह (स्त्री) तो बिल्कुल घबराई, उदास और मरणासन्न-सी है. वह इतिहास को देखती है, तो निराश होती है. धर्म को देखती है, तो बेसहारा हो जाती है. वर्तमान को देखती है, तो हज़ार खाने भीतर कहीं खुद को छिपा लेना चाहती है.
जब ये लोकगीत रचे गए, तब लोकशाही नहीं थी. राजशाही थी. शाही बदली, लेकिन उसके दिन न बहुरे. उल्टे अब लोकशाही में कामयाब और चुने हुए लोग उसके साथ ज़्यादती कर रहे हैं. उसके लिए न पुलिस सुरक्षा दे पा रही और न नागरिक समाज. कई जगहों पर गुंडों और पुलिस की मिलीमार उस पर कहर बनकर टूट रही है. सबसे ज्यादा परेशान तो वह उन व्यक्तित्वहीन महिलाओं से है, जो मर्दों के हाथ का चाबुक बनकर उसकी आत्मा तक घाव दिए जा रही हैं.