हिंदू धर्म से जुड़ी एक मान्यता आपने सुनी होगी कि सती ने जब प्रजापति दक्ष के दरबार में ख़ुद को अग्निकुंड में समाहित कर दिया था, तो शिव उनका शव लिए दुनियाभर में विचरण कर रहे थे. विष्णु से शिव की ये पीड़ा देखी नहीं गई तो अपने चक्र से सती के शव के 51 टुकड़े कर दिए. ये टुकड़े जहां-जहां गिरे, उन्हें हिंदू मान्यता में 51 शक्तिपीठ कहा जाता है, माना जाता है. 51 शक्तिपीठों में से जहां सती का हिंगोल यानि सिंदूर लगा माथा गिरा, उस जगह को हिंगलाज मंदिर के रूप में पूजा जाता है.
हिंगलाज की गुफा से लेकर गोरखनाथ मंदिर तक, पाकिस्तान में हिंदू मंदिरों का हाल कैसा है?
Pakistan के उत्तरी हिस्से मेंं Hindu Temples को Sindh या Balochistan से कहीं ज्यादा भेदभाव और राजनीति झेलनी पड़ी है.

साथ ही सती वियोग में शिव के आंसू जहां-जहां गिरे, मान्यता है कि उनसे पनपे पुष्कर कुंड और कटास कुंड. 1947 में भारत से विभाजित होकर पाकिस्तान बना. और कटासराज, हिंगलाज जैसे कई हिंदू प्रार्थना स्थल पाकिस्तान में चले गए. लेकिन पाकिस्तान में धार्मिक सहिष्णुता का जो हाल है, उसके बीच ये मंदिर आज किस स्थिति में हैं? इतने वर्षों में इन मंदिरों को क्या-क्या सहना पड़ा, किस तरह इन्होंने अपना अस्तित्व बचाकर रखा है? ये सवाल मंदिरों के ज़िक्र के साथ ज़ेहन में आते हैं.

हिंगलाज माता मंदिर कराची से मकरान कोस्टल हाइवे पर हिंगोल नेशनल पार्क की गोद में है. बीहड़ की मिट्टी के टीले सरीखे ज़र्द पहाड़ों और नेशनल पार्क के जंगल से घिरा ये स्थान बलूची जमीन पर हज़ारों बरस से हिंदुओं के लिए आस्था का केंद्र है. अगर हिंगलाज किस्सों में महाभारत काल यानि 5000 वर्ष से शामिल हुआ तो 1000 साल से ज्यादा पहले से इसके ऐतिहासिक प्रमाण भी मिलते हैं. जैसे भारत में केदारनाथ, उत्तराखंड के दुर्गम पहाड़ों में स्थित है, वैसे ही हिंगलाज, बलूचिस्तान के दुर्गम क्षेत्र में है.
हिंगलाज मंदिर की ऐतिहासिकता के बारे में जर्गेन स्काफ्लेखनर अपनी किताब ‘हिंगलाज देवी : आइडेंटिटी, चेंज एण्ड सॉलिडीफिकेशन एट ए हिंदू टेंपल इन पाकिस्तान’ में लिखते हैं
हिंगलाज की प्रामाणिकता धार्मिक ग्रंथों के आधार पर काफी पुरानी है. लेकिन कुछ ग्रंथ जो ऐतिहासिकता की कसौटी पर खरे हैं, उनमें से पीठनिर्णय और तांत्रिक चूड़ामणि में हिंगलाज माता का ज़िक्र 51 शक्तिपीठों में पहले स्थान पर मिलता है. इसे सती के ब्रह्मरंध्र यानी सिर के अग्र भाग के रूप में चिह्नित किया गया है.
पाकिस्तान के खत्री, भाटिया और लोहाना समुदाय के लोगों ने हिंगलाज मंदिर को लोकप्रिय बनाने में बहुत योगदान दिया. पाकिस्तान के सिंध-बलूच इलाके में हिंदुओं में ज्यादातर गरीब थे. इसलिए बंटवारे में ये लोग यहीं के होकर रह गए. लसबेला जिले के सिंधी हिंदुओं में लोहाना समुदाय के लोगों ने ही हिंगलाज सेवा मंडली के तहत इसके वर्तमान रूप को बरकरार रखा है. इसी मंडली के वसरूप चंद तुलसी ने हर साल चैत्र/अप्रैल में तीर्थ यात्रा का विचार देकर हिंगलाज को समूचे पाकिस्तान के हिंदुओं के बीच लोकप्रियता दिलाई.

सिंध-बलूचिस्तान प्रदेश के मुसलमान भी इस स्थान को ‘पीर बीबी नानी’ के मंदिर के रूप में पूजते आ रहे है. चार्ल्स मैसन ने 1842 में अपने लिखे में इसका जिक्र सबसे पहले किया. अंग्रेज भूगोलवेत्ता थॉमस होल्डिच ने 1910 में लिखी अपनी किताब ‘दी गेट्स ऑफ इंडिया’ में हिंगलाज को हिंदू और मुस्लिम, दोनों के लिए एक पवित्र स्थान के रूप में दर्ज किया है. अतीत में हड़प्पा संस्कृति फिर सिंधी और सूफी प्रभाव में पली-बढ़ी इस जगह को यहां के ही लोगों ने कम से कम हिंदू-मुस्लिम की बंदरबांट से दूर रखा.
अब रुख करते है पाकिस्तान के उत्तरी सिरे की तरफ. यहां के हिंदू मंदिरों को सिंध या बलूचिस्तान से कहीं ज्यादा भेदभाव और राजनीति झेलनी पड़ी है. साल्ट रेंज के उत्तर में है कटास, आज के चकवाल जिले का हिस्सा है. पहले झेलम जिले का हिस्सा था. यहां कटासराज कॉम्प्लेक्स नाम का हिंदू मंदिर समूह है. कटासराज कॉम्प्लेक्स में शिव जी का मंदिर और अमृत कुंड समेत कई मंदिर हैं. सात घरा यानि सात मंदिरों में से पुराने मंदिरों में सिर्फ अब 3 शेष है. हनुमान और काली के मंदिर होने के साथ खंभों पर सांप और हाथी की आकृतियां भी देखी जा सकती हैं. हालांकि आज के दौर में राम मंदिर यहां का दूसरा मुख्य आकर्षण है.

भारत-पाकिस्तान के साझे इतिहास में ब्रितानी अफसर कनिंघम जब कटास आए तो उन्होंने यहां के मंदिरों को 7वीं सदी से 10वीं सदी के कश्मीर के कर्कोट और वर्मा वंशों के साथ जोड़ा. आज जिन्हें सात घर कहा जाता है, कनिंघम उन्हें कुल 12 मंदिर का समूह बताते है. इसके साथ ही यहां खालसा फौज की कमान संभालने वाले हरि सिंह नलवा की हवेली है जो कश्मीरी डोगरा वंश के शासन की तस्दीक देता है. लेकिन इसमें सबसे पुराना स्थान खंडहर हो चुका बुद्ध स्तूप है. कटासराज के अतीत का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि ह्वेनसांग ने 7वीं सदी में इसी बुद्ध स्तूप और इसके आस पास बुद्ध राज्य सिंहपुरा का वर्णन किया था. गांधार के पतन के बाद सिंहपुरा के अवशेष को कनिंघम ने कटासराज के रूप में दर्ज किया है.
1965 के युद्ध के बाद कई बार इस मंदिर को श्रद्धालुओं के लिए बंद किया गया. पूर्व उप-प्रधानमंत्री लाल कृष्ण आडवाणी की विजिट के बाद 2006 से इस मंदिर को फिर से जीवनदान मिला.
एक दिलचस्प किस्सा है कि 2017 में पाकिस्तान के सुप्रीम कोर्ट केस के मुताबिक बेस्टवे नाम की सीमेंट कंपनी के ग्राउंड वाटर के अंधाधुंध इस्तेमाल और फैक्टरी से निकले धुएं की मार कटासराज स्थित झील और इमारतों झेलनी पड़ी. सुप्रीम कोर्ट ने अच्छी लताड़ लगाई और मंदिर के रिनोवेशन के आदेश दिए.
कोर्ट ने श्री राम और हनुमान मंदिर में प्रतिमाएं न होने पर भी नाराजगी जाहिर की थी. 2018 में जिस सरकारी कंपनी ने काम का ठेका लिया था वही जड़ से फरार हो गई. तब से कल्चरल डिप्लोमेसी के नाम पर हर साल ,दो साल में भारत से सौ-सवा सौ हिंदुओं का जत्था कटासराज जाता है. इसके अलावा चकवाल में ही मलकाना में शिवगंगा मंदिर भी है. उसके भी हाल बेहाल है.
कुछ ऐसे मंदिर भी है जो अब अतीत में दर्ज हो चुके है. भारत ने नालंदा और विक्रमशिला जैसी हमारी धरोहरों के अवशेषों को न सिर्फ संभाला बल्कि बेहतर भी किया. वही पाकिस्तान में टीला जोगियां, मुल्तान का सूर्य मंदिर और कुछ अतीत की मार में उजड़े तो बचा खुचा काम पाकिस्तानी हुकूमत ने नजरंदाजी दिखा कर किया है.
शेख खुर्शीद हसन की लिखी ‘पाकिस्तान : इट्स ऐन्शिएन्ट हिंदू टेंपल्स एण्ड श्राइन्स’ में इससे जुड़ी अहम जानकारियां दी है. झेलम शहर के दक्षिण पश्चिम में 35 किलोमीटर दूर, योगी परंपरा से जुड़ा एक स्थान है टीला जोगियां. ये जगह बाबा गोरखनाथ के शिष्य बालानाथ का स्थान था. जैसे एक पीठ आज गोरखपुर में है. इसके अलावा यहां नानक देव के आगमन से जुड़ी एक गढ़ी और सनद भी मिलने से इसका महत्व बढ़ जाता है. खुद, झेलम डिस्ट्रिक्ट गजेटियर इसे उत्तर भारत के प्राचीनतम धार्मिक स्थलों में से एक मानता है. टीला जोगियां पर 1748 में अहमद शाह दुर्रानी का कहर सबसे महत्वपूर्ण घाव रहा. उसके बाद महाराजा रणजीत सिंह ने इसे दोबारा रिहायश में तब्दील किया. लेकिन विभाजन के चलते टीला जोगियां के बाशिंदे पाकिस्तान से भारत आने को मजबूर हुए. तबसे ये जगह राह तक रही है कि कभी तो दिन बदलेंगे.

सहवाग ने 309 रन बनाए थे, कहलाये थे मुल्तान के सुल्तान. लेकिन ये मुल्तान एक समय सूर्य मंदिर और शहरी शौकत के लिए मशहूर था. जब ह्वेन-सांग 641 में मुल्तान आया तो उसने लिखा
यहां सूर्य को समर्पित एक मंदिर हैं जो बहुत भव्य और अलंकृत है, सूर्य देव को सोने में ढाला गया है और कुछ रत्नों से उनका विवरण बेहतर किया गया है. पंच-देश के राज्य और राजा यहां रत्न-आभूषण समेत भेंट देना नहीं भूलते. आस पास के क्षेत्र से बहुत लोग आते है और हमेशा यहां हजारों लोग मौजूद रहते है.
अरब से जब मोहम्मद बिन कासिम मूलस्थान/मुल्तान आया तो उसके साथ आए अल मसूदी और अल इस्ताखरी ने अपनी तवारीखों ‘किताब मुरुज अल-धाहब व म’आदिन अल-जौहर’ और ‘किताब मसालिक-अल-ममालिक में मुल्तान के ऐश्वर्य का लेखा दर्ज किया. मुल्तान के मंदिर के तोड़े जाने का पहला जिक्र जियाउद्दीन बरनी की ‘किताब-अल-हिन्द’ में मिलता है. बरनी ने करामातियों को इसके लिए जिम्मेदार माना है. इसके कॉनट्रास्ट में, 17वीं सदी में फ्रेंच यात्री थेवनोट इसे 1666 में समृद्ध शहर और सूर्य मंदिर के होने की तसदीक करते हैं.
फिर कनिंघम की माने तो मुल्तान के सूर्य मंदिर को नेस्तनाबूत करने का काम औरंगजेब के हिस्से जाता है. हुआ जो भी हो लेकिन 18 वीं सदी से मुल्तान के सूर्य मंदिर के सिर्फ अवशेष मिलते है. उसके बाद से आज तक जर्जर अवशेषों को सिर्फ नजरंदाज किया गया है. सिद्धार्थ जोशी ने अपने आर्टिकल ‘दी वान्डरर’ से पाकिस्तानी सरकार की नजरंदाजी को बयां करते हुए इसे लाईमलाइट दी थी. फिलहाल ये जगह टीला जोगियां से भी बदतर हाल में है.

गुजरात के मोढ़ेरा और कोणार्क के सूर्य मंदिर सूर्य मंदिरों के जीते जागते उदाहरण है. कश्मीर का मार्तंड मंदिर भी सहेजने में हम सफल रहे है. लेकिन ये दुर्भाग्य है की इनसे बेहतर नहीं भी कहें तो मुल्तान कभी इनके बराबर समृद्ध तो रहा ही होगा. साल्ट रेंज के हिंदू मंदिर, नीलम घाटी का शारदा पीठ, कराची के पंचमुखी हनुमान और स्वामी नारायण मंदिर, इस्लामकोट का राम मंदिर, पेशावर का गोरखनाथ मंदिर जैसे कई मंदिर आज भी पाकिस्तान में मौजूद है. इन्हे संभालने का जिम्मा ईवैक्यूई ट्रस्ट प्रॉपर्टी बोर्ड के पास है. बोर्ड के आंकड़े खुद कहते है की कुल 14 मंदिर फंक्शनल है और 266 मंदिर नॉन-फंक्शनल हैं.
वीडियो: तारीख: पाकिस्तान में मौजूद हिंदू मंदिर आज किस हाल में हैं?