"देश बदल रहा है... लेकिन कुछ स्कूल इतने 'प्राइवेट' हो गए हैं कि वहां बस एक स्टूडेंट बचा है!" ये मज़ाक नहीं है, गुजरात के डांग जिले के भुरभेंडी गांव की सच्ची कहानी है. यहां एक सरकारी स्कूल है, जिसमें पढ़ने आता है सिर्फ एक बच्चा. और उसे पढ़ाने के लिए तैनात हैं - पूरे दो सरकारी शिक्षक. शोले का गब्बर होता तो कहता तो कहता- ‘बहुत नाइंसाफी है…’
एक छात्र के लिए चलता है पूरा स्कूल - तीन क्लासरूम, दो टीचर, ऐसा भी होता है गुजरात में!
Gujarat village school: गुजरात के डांग जिले में एक सरकारी स्कूल है जहां सिर्फ एक छात्र पढ़ता है. उसे पढ़ाने के लिए दो शिक्षक तैनात हैं, स्कूल में तीन कमरे भी हैं. कभी यहां बच्चों की भीड़ थी, पर अब पलायन के बाद बस एक छात्र बचा है. बाकी जिले में शिक्षक कम हैं, लेकिन इस स्कूल में "टीचर ओवर, स्टूडेंट अंडर" है!

भुरभेंडी गांव की आबादी मुश्किल से 200 के आसपास है. लेकिन यहां के स्कूल की कहानी सीधी-सादी नहीं, काफी दिलचस्प है. गांव के तीन कमरों वाले इस सरकारी स्कूल में अब सिर्फ एक छात्र बचा है - निशांत वघेला, जो कक्षा 5 में पढ़ता है. बाकी दो शिक्षक हैं - दिलीप पटेल और उनके एक सहयोगी.
इंडियन एक्सप्रेस की रिपोर्ट बताती है कि स्कूल के मुख्य कमरे में दाखिल होते ही ज़मीन पर एक बच्चा पढ़ते हुए दिखता है. सामने शिक्षक खड़े होकर पूरे समर्पण से उसे पढ़ा रहे हैं. दूसरे शिक्षक भी स्कूल में मौजूद रहते हैं - शायद इस डर से कि एक भी टीचर छुट्टी पर चला गया तो पूरे स्कूल की अटेंडेंस गायब हो जाएगी!
कभी इस स्कूल में बच्चों की संख्या ठीक-ठाक हुआ करती थी. गांव के खेतों में काम करने वाले मजदूरों के बच्चे यहीं पढ़ते थे. लेकिन जैसे-जैसे रोज़गार की तलाश में गांव से लोगों का पलायन शुरू हुआ, वैसे-वैसे स्कूल खाली होता गया. अब हाल ये है कि इस पूरे स्कूल में सिर्फ एक बच्चा रह गया है - लेकिन स्कूल अब भी रोज़ खुलता है, घंटी बजती है, और दो शिक्षक पूरी लगन से अपना काम करते हैं.
बाकी जिले का हाल क्या कहता है?भुरभेंडी का यह स्कूल जितना अनोखा है, डांग जिले की बाकी शिक्षा व्यवस्था उतनी ही असंतुलित नजर आती है. जिले में कुल 377 सरकारी प्राथमिक स्कूल हैं जिनमें करीब 39,000 छात्र पढ़ते हैं. प्राथमिक (कक्षा 1-5) खंड में 1,107 शिक्षक कार्यरत हैं, और उच्च प्राथमिक (कक्षा 6-8) में 508.
लेकिन ज़मीनी सच्चाई यह है कि जिले में अभी भी 150 से अधिक शिक्षकों की कमी है. ऐसे में सवाल उठता है कि जहां ज़रूरत है वहां शिक्षक नहीं हैं, और जहां छात्र नहीं हैं वहां शिक्षक तैनात हैं - क्या यही है सरकारी योजनाओं की कुशल मैनेजमेंट?
एक ओर सरकार कहती है कि छात्र कम हैं, इसलिए स्कूलों का मर्जर किया जा रहा है. वहीं दूसरी ओर, ऐसे स्कूल भी हैं जहां शिक्षक छात्र से दुगुने हैं. अब इसे शिक्षा का अधिकार कहें या शिक्षकों की नियुक्ति में अद्भुत संतुलन, फैसला आप करें.
क्या यह व्यवस्था उस एक बच्चे के प्रति संवेदनशील है या फिर बाकी हज़ारों बच्चों की उपेक्षा कर रही है? क्या यह स्कूल 'नैतिक सफलता' है या 'प्रशासनिक विफलता'?
क्लाइमैक्स क्या है?जब पूरा देश PISA टेस्ट, डिजिटल क्लासरूम और NEP-2020 की बात कर रहा है, तब भुरभेंडी में एक बिल्कुल अलग ही मॉडल चल रहा है - "वन स्टूडेंट, टू टीचर्स". यहां अटेंडेंस भी 100% है और शिक्षक-अटेंशन भी!
एक तरह से देखें तो यह शिक्षा के प्रति समर्पण की मिसाल है, लेकिन दूसरी नजर से यह सरकारी सिस्टम का व्यंग्यचित्र भी है - जिसमें जहां ज़रूरत है वहां लोग नहीं, और जहां लोग नहीं हैं, वहां सब तैनात हैं.
आपकी राय क्या है?- क्या ऐसे स्कूलों को चलाना व्यावहारिक है?
क्या यहां पोस्टेड शिक्षकों को उन स्कूलों में ट्रांसफर नहीं किया जाना चाहिए जहां 40 बच्चों पर एक शिक्षक है?
या फिर भुरभेंडी के इस बच्चे को मिल रहा है देश का सबसे बेहतरीन “Private Government School” एक्सपीरियंस?
जवाब के बारे में एक बार सोचिएगा जरूर…
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