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बिहार में वोट डाला, अब नौकरी के लिए बाथरूम के गेट पर बैठ लौटने को मजबूर प्रवासी

बिहार में चुनाव खत्म होते ही migrant workers दोबारा परदेस लौटने लगे, क्योंकि रोजगार का कोई भरोसा नहीं दिखा. समस्तीपुर स्टेशन पर overcrowd, window-boarding और bathroom-toilet जैसी हालतें फिर पलायन की सच्चाई बता रही हैं.

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वोट देकर लौटे थे उम्मीद लेकर... अब ठूंस-ठूंस कर ट्रेन पकड़ रहे मजदूर
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जहांगीर आलम

चुनाव का शोर बैठ चुका है. नतीजे आ चुके हैं. जीत-हार का हिसाब लग गया. नीतीश जी की कुर्सी पक्की मानी जा रही है, तेजस्वी यादव अपनी-अपनी तैयारी में हैं. लेकिन इस पूरे खेल से बाहर एक कुनबा है प्रवासी मजदूर. जिनका जीवन चुनावी मौसम से ना शुरू होता है, ना खत्म होता है.

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समस्तीपुर में तस्वीर वही है, जो हर चुनाव के बाद दिखती है.

वोट देकर लौटे थे उम्मीद लेकर… और अब काम की तलाश में फिर से परदेस जाने को मजबूर!

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ट्रेनों में ठूंस-ठूंस कर भीड़ – खिड़की से घुसते यात्री, बाथरूम में खड़े होकर सफर

स्वतंत्रता सेनानी एक्सप्रेस समस्तीपुर स्टेशन पर लगी तो लगा जैसे पूरा डिब्बा पहले से ही हाउसफुल था. जनरल में भीड़… स्लीपर में भीड़… गेट पर बैठे लोग… खिड़की से अंदर जाते यात्री… और बाथरूम में बैग टांगकर सफर करते प्रवासी मजदूर.  स्टेशन पर खड़े लोग देखकर पूछ रहे थे

ये ट्रेन है या कोई भागती हुई राहत कैंप की ट्रॉली?

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बिहार की ट्रेनों में प्रवासी मजदूरों की भीड़ (फोटो- आजतक)

विकलांग यात्रियों के लिए बनाई गई बोगी भी भीड़ से बच नहीं पाई. मजबूरी ऐसी कि मजदूर वहीं चढ़ गए. जीआरपी वालों ने हटाने की कोशिश की, लेकिन मजदूरों की दिक्कत सुनकर पुलिस भी नरम पड़ गई. एक यात्री बोला

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भैया, पैर रखने तक की जगह नहीं है. गेट पर बैठकर दिल्ली तक का सफर करना है.

प्रवासी मजदूरों का दर्द – ‘वोट तो दिया, रोजगार नहीं मिला’

बातचीत में कई मजदूरों ने साफ कहा,

मोदी को वोट किया था, सोचा इस बार कुछ होगा…तेजस्वी यादव पर भरोसा था कि नौकरी-रोजगार लाएंगे…

पर नतीजे आने के बाद भी किसी तरफ से कोई ठोस आश्वासन नहीं… कोई रोडमैप नहीं… कोई योजना का जिक्र तक नहीं और इन सबसे पहले ट्रेन की सीटी. इस सीटी का मतलब- "चलो भाई, फिर परदेस…"

“8–10 फैक्ट्री से कुछ नहीं होगा, बिहार को 200 फैक्ट्री चाहिए” - मजदूरों की मांग

एक मजदूर ने आजतक से बात करते हुए कहा,

साहब, जब तक 8–10 नहीं, कम-से-कम 200 फैक्ट्री बिहार में नहीं लगेंगी, तब तक पलायन रुकने वाला नहीं.

वोटर ही सबसे ज्यादा घाटे में

ये शिकायत नहीं, बिहार का ज़मीनी सच है. राजधानी से लेकर गांव तक यही दर्द है. सिस्टम में उम्मीद कम, मजबूरी ज्यादा. चुनाव के बाद सबसे पहले कौन भागता है? जवाब बड़ा सीधा सा है, वही जिसने सबसे ज्यादा वोट दिया होता है.

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राजनीति का टाइमटेबल अलग होता है. जनता का टाइमटेबल अलग. राजनेता अपनी सीट बचाने में लगे रहते हैं. और जनता अपनी रोज़ी बचाने में. चुनाव बीतते ही सबसे पहले दौड़ती है ट्रेन… और उसी ट्रेन से सबसे पहले लौटते हैंवही लोग जिन्हें हर पार्टी अपना परिवार बताती है.

परदेस जाने वाले मजदूरों के चेहरे पर एक ही बात दिख रही थी, “अगले साल फिर चुनाव आएगा… फिर वादा आएगा… पर क्या रोजगार आएगा?”

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ट्रेनें खचाखच भरी हैं (फोटो- एएनआई)
पिक्चर अभी बाकी है मेरे दोस्त…

समस्तीपुर से तस्वीरें साफ कह रही हैं. चुनाव का मौसम भले ही खत्म हो गया हो, मगर आम आदमी अभी भी भीड़ की धक्कामुक्की में ही फंसा है. सरकार किसी की भी बने, धक्का खाने वाला वही है. आम आदमी. प्रवासी. मजदूर. 

यही है बिहार की चुनाव बाद की असल कहानी.

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