क्या केरल से लड़के या लड़कियों की ISIS में भर्ती की जा रही है? हां
क्या केरल में साम्प्रदायिक हिंसाएं हो रही हैं? हां
मूवी रिव्यू: दी केरला स्टोरी
'दी केरला स्टोरी' के साथ एक बड़ी दिक़्क़त है. ये फ़िल्म एक वक़्त पर सच्चाई दिखाने का दावा करती है. लेकिन आपको असल दिक़्क़त तब समझ में आती है, जब ये एक इस्लामोफ़ोबिक कंटेंट में तब्दील होती दिखती है.

ये दो सच हैं. लेकिन फ़िल्म एक क्राफ़्ट हैं. कई चीज़ों का सम्मेलन. तो इन दो सच्चाइयों के सापेक्ष हम 'द केरला स्टोरी' नाम की फ़िल्म पर बात करेंगे.
केरला स्टोरी ने अपनी आधिकारिक रिलीज़ से पहले ही काफ़ी सुर्खियां बटोर ली हैं. नेता-परेता फ़िल्म में दिए गए दावों को झुठलाने लगे हैं. माफ़ कीजिएगा, दावों को नहीं, दावों की संख्या को. और इसी पृष्ठभूमि में सारा बवाल हो रहा है. और बवाल को पोसने के तरीक़े भी हैं. जैसे फ़िल्म के आधिकारिक रिलीज़ के 3 दिन पहले इस फ़िल्म को JNU के कम्यूनिटी सेंटर में प्रीमियर किया जाना. इस प्रीमियर का आयोजन क़ायदे से दक्षिणपंथी छात्र संगठनों का था. और आयोजन कमिटी से जुड़े एक छात्र ने हमें बताया भी था -
“जब देश तोड़ने की बात करने वाले वामपंथी BBC की डॉक्युमेंट्री का प्रीमियर करा सकते हैं, तो हम लोग भी एक ऐसी फ़िल्म का प्रीमियर करा सकते हैं, जिसमें हमारी माँ-बहनों की सच्चाई दिखाई गई हो.”
किस सच्चाई की बात हो रही है? फ़िल्म शालिनी नाम की एक लड़की की कहानी है. शालिनी केरल के एक कॉलेज में दाख़िला लेती है. उसकी एक रूममेट है आसिफा, जो मुसलमान है. एक है निमाह, जो ईसाई है. और एक है गीतांजलि, जो अपनी धार्मिक आइडेंटिटी के आधार पर हिंदू है, लेकिन चूंकि उसके पिता वामपंथी हैं, तो वो धर्माचरण नहीं मानती है.
अब इनमें आसिफा इन तीनों को कन्वर्ट करने की साज़िशन कोशिश करती है. सफल होती है सिर्फ़ शालिनी के साथ. शालिनी को एक मुस्लिम से प्यार करवाया जाता है. वो लड़का उसे प्रेगनेंट करता है. और कहता है कि शादी करनी है तो मुसलमान बनाना होगा. शालिनी कन्वर्ट हो जाती है. फिर प्रेमी भाग जाता है. शालिनी की शादी दूसरे मुसलमान लड़के के साथ कराई जाती है. जो उसे अफ़ग़ानिस्तान ले जाता है. फिर उसे ISIS के कैंप में बटोर सेक्स स्लेव रखा जाता है, जहां से वो भागने में कामयाब होती है. और आख़िर में अफ़ग़ानिस्तान की किसी जेल में बंद है.
'दी केरला स्टोरी' के साथ एक बड़ी दिक़्क़त है. ये फ़िल्म एक वक़्त पर सच्चाई दिखाने का दावा करती है. कहती है कि ये हिन्दू महिलाओं पर हो रहे अत्याचारों की कहानी कहती है. लेकिन आपको असल दिक़्क़त तब समझ में आती है, जब ये फ़िल्म एक इस्लामोफ़ोबिक कंटेंट में तब्दील होती दिखती है.
मैं इस्लामोफ़ोबिक क्यों कह रहा हूं? फ़िल्म में एक भी मुस्लिम किरदार ऐसा नहीं है, जो सहृदय हो. इस फ़िल्म का हरेक मुस्लिम किरदार किसी न किसी साज़िश में शामिल है. तो ये फ़िल्म एक सवाल छोड़ती है. क्या इस देश का या इस देश के एक भूभाग का हरेक मुस्लिम एक साज़िश में शामिल है? वहां ग़ैर-साज़िशन ज़िंदगी बिताने वाला कोई मुस्लिम मौजूद नहीं है? या कोई ऐसा मुसलमान नहीं मौजूद है, जिसे इस ‘लव जिहाद” से कोई दिक़्क़त न हो? ये सवाल इसलिए भी ज़रूरी हैं क्योंकि फ़िल्म इसी बात को दर्ज करने की बेशर्म और बेवक़ूफ़ी भरी कोशिश करती है. खानापूरी के लिए एक किरदार पुलिस स्टेशन में दिखाई देता है, जो टोपी लगाए पीछे चुप बैठे हुए है. वही किरदार गीतांजलि की लाश को अस्पताल ले जाते हुए दिखता है. लेकिन यही फ़्लैश हैं. वो चुप है. आप इस देश की जनता को अतंकवाद के ऊपर मूवी बनाकर क्या किसी धर्म के साथ और किसी धर्म के ख़िलाफ़ खड़े देख रहे हैं?
पुलिस स्टेशन के ज़िक्र से एक और सीन ज़िंदा हो जाता है, और ये फ़िल्म किस हद तक राजनीतिक रूप से प्रेरित है, ये कहानी खुलती है. बड़े पुलिसिया अधिकारी के सामने निमाह खड़ी होकर चीख रही है -
“सर, हमारे एक्स-सीएम ने कहा है कि कुछ सालों में केरल इस्लामिक स्टेट बन जाएगा”.
और लचर-सा दिख रहा पुलिसवाला अपनी कार्रवाई के लिए माँगता है सबूत. कहता है कि दो बालिग़ साथ शादी कर रहे हैं तो इसमें क़ानून किस तरह कार्रवाई करे?
मुस्लिम किरदार के बाद इस फ़िल्म में पुलिस भी इतनी ही है. एक लाचार से सीन तक महदूद. और उस पुलिसवाले की सबूत जैसी वाजिब डिमांड पर निमाह जो कहती है, उसका लब्बोलुआब है कि उधर लड़कियों की ज़िंदगियाँ ख़तरे में हैं और आप हमसे सबूत माँग रहे हैं? गोया ये फ़िल्म ही सबूत के सारे रास्ते बंद करती हो. गोया ये फ़िल्म कहती हो कि सबूत न माँगो. ये बात तब और एविडेंट हो जाती है, जब थिएटर से बाहर मिले छात्र कहते हैं कि “केरल की डेमोग्राफ़ी बदल रही है, मुझे इंटरनेट से पता चला.” जैसे पाताल लोक का हाथीराम चौधरी कह रहा हो - “वेदों में लिखा है, मैंने ह्वाट्सऐप पर पढ़ा था”.
और ये फ़िल्म दिमाग़ में बिठा जाती है कि एक राज्य की पुलिस भी कमज़ोर है.
ये फ़िल्म अभिशप्त है एक कमज़ोर और छिछली पटकथा के साथ. राजनीति से जुड़े एक और अध्याय में इसका प्रमाण मिलता है.
“ISIS भेजने वालों के चंगुल से बचकर”
आई गीतांजलि अपने पापा से कहती है -
“पापा, आपने मुझे जीवन भर विदेशी विचारों (वामपंथ) के बारे में पढ़ाया, हमारे हिंदू देवी-देवताओं के बारे में पढ़ाते तो शायद ये स्थिति नहीं होती”
सिनेमाघर में शोर होने लगता है. जय श्री राम के नारे लगने लगते हैं. छात्र खूब ज़ोर से हंसते हैं.
क्या फ़िल्म ये संदेश भी देती है कि ऐसा वामपंथी पिताओं की बेटियों के साथ हो सकता है? क्या धर्मावलंबी बनना किसी धार्मिक अपराध से बचाव में कारगर है?
फिर जब आख़िर में शालिनी अफ़ग़ान पुलिस के सामने बयान दर्ज कराती है तो पुलिसवाले कहते हैं -
“इंडिया भेजने में एक दिक़्क़त है. क़ानूनन आप आतंकवादी हैं. और भारत सरकार की आतंकवाद के प्रति ज़ीरो टॉलरेंस पॉलिसी है.”
ऑडिटोरियम में फिर से हल्ला. फिर से ख़ुशी. फिर से जय श्री राम.
अफ़ग़ान जेल में दाखिल होती शालिनी अपना परिचय देती है - “शालिनी, अ हिन्दू फ्रॉम केरला”.
फिर से एक सवाल - जिस समय ये फ़िल्म भारत सरकार को आतंकरोधी करार दे रही है, तो क्या ये केरल के लॉ एंड ऑर्डर को कुछ नहीं मानती है? वहाँ की सरकार क्या आतंकप्रिय है? या मक्कार सरकार है?
पूरी फ़िल्म असहज करने वाले कोड़ों की आवाज़ से भरी है. कोड़ों की आवाज़? क्यों?
कुछ दृश्य हैं, जो बेतरह असहज करते हैं. जैसे शालिनी का उसके पति और फिर ISIS के आतंकियों द्वारा रेप किया जाना. ISIS के आतंकियों द्वारा सिर कलम किया जाना और हाथ काटे जाना.
ऐसा नहीं है कि हम फ़िल्म की पृष्ठभूमि को नकार रहे हैं. नहीं. लेकिन पृष्ठभूमि अतिनाटकीय हो, तो त्रासदी छोटी लगने लगती है. जिन लड़कियों पर सच में ये हिंसा नाज़िल हुई, उनके साथ इतनी नाटकीयता क्या सही है? नहीं.
जिन्होंने छोटे-छोटे स्लीपर संगठनों का सहारा लेकर लोगों को ISIS में भर्ती कराया, क्या ये उन्हें सही दिखाती है? नहीं.
ये फ़िल्म एक ज़्यादा सुगठित तंत्र और केरल से बाहर भी चल रहे कामों को ज़्यादा छिछले तरीक़े से दिखाती है. ज़्यादा बनावटी. ज़्यादा न्याय से दूर.
इस आशा के साथ एक सितारा ही इस बेउम्मीद फ़िल्म को देना चाहिए कि ISIS में गई लड़कियों और लड़कों की और उनकी त्रासदियों की असल कहानी किसी दिन सामने आ सके.
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