The Lallantop

टॉपमटॉप कलमकारी की मिसाल महाश्वेता देवी की जिंदगी के पहलू दिखातीं 10 खास बातें

एक कलम, जिसका काम पन्नों पर लिखना नहीं, बल्कि हाथों को जमीनी संघर्ष के लिए तैयार करना भी था.

post-main-image
फोटो - thelallantop

बचपन में हम साइकिल से स्कूल जाया करते थे. दोस्तों के संग. पांच किलोमीटर की दूरी. ये दूरी आराम से कट जाया करती थी. गाते-बतियाते हुए. रस्ते में कुछ सौ-दो सौ पेड़ों का झुरमुट पड़ता था. दोपहर के दो बजे छुट्टी हुआ करती. उस वक्त सूरज की तपिश अपने चरम पर होती. शरीर का एक-एक कतरा पिघलने को तैयार. ऐसे समय में वो झुरमुट की छाया किसी वरदान की तरह लगती थी. हम सोचा करते, अगर ये जंगल न हो तो क्या होगा. और सिहर कर सिमट जाते. अपने दिमाग को सोचने से रोकने की कोशिश करने लगते.

जल, जंगल, जमीन. महज एक नारा नहीं. एक युग है. संघर्ष, बलिदान, जूझने की आदत से भरा-पूरा, सच्चा वाला, अहंकार से परे, दुनियावी झमेलों से कोसों दूर. इसके आगोश में सुकून है. जो खरीदा नहीं जा सकता. किसी भी कीमत पर. अंग्रेज, क्या लेकर आए थे और क्या देकर चले गए. 'लालच'. अंग्रेज हुकूमत करने के शौक़ीन थे. संभव की हद से पार जाकर भी. उनकी हुकूमत खत्म हुई मगर उनके निशां बचे रह गए. स्वदेशी हुकूमत की शक्ल में.

14 जनवरी 1926. अंग्रेजी शासन का दौर. ढाका की जमीं. माता और पिता, दोनों साहित्यकार. महाश्वेता देवी के आने का स्वागत किया जाए. एक कलम जन्म ले रही थी जिसका काम केवल पन्नों पर परिवर्तन लिखना नहीं था बल्कि उन हाथों को जमीनी संघर्ष के लिए तैयार करना भी था. बाद में उनका परिवार पश्चिम बंगाल में आकर बस गया.

1948 में शादी. ये रिश्ता जल्दी ही टूट गया. महाश्वेता देवी आजादी के बाद के शुरुआती सालों में उत्तर प्रदेश में घूम रही थीं. रानी लक्ष्मीबाई पर रिसर्च के सिलसिले में. 1956 में पहली रचना 'झांसेर रानी' (झांसी की रानी) आई और फिर टॉपमटॉप कलमकारी का सिलसिला सा चल पड़ा. बांग्ला साहित्य धन्य हो उठा. महाश्वेता देवी का संघर्ष केवल साहित्य तक ही सीमित नहीं रहा. उनके हाथों ने कलम पकड़ी तो जरूरत पड़ने पर आंदोलन का झंडा भी थामे रखा. ताउम्र अपनी शर्तों पर जीतीं, लड़तीं, जीततीं महाश्वेता देवी की जिंदगी का हर लम्हा बार-बार जीने योग्य है. बेशक. बिना शर्त. उनके बड्डे पर पेश-ए-नजर है, उनकी जिंदगी के कुछ महत्वपूर्ण बातें:-

1. महाश्वेता देवी हमेशा कहा करती थीं, 'खाने से ज्यादा मैंने किताबें पढ़ीं हैं. लिखना मेरे लिए जिंदा रहने की तरह है.'

2. पश्चिम बंगाल का नक्सलबाड़ी जिला. जहां से नक्सल आंदोलन की कोंपलें फूटीं. इसी संघर्ष की बुनियाद पर बनी इमारत है 'हजार चौरासी की मां'. यह उपन्यास महाश्वेता देवी की कलम का दूसरा नाम बन चुका है. उनके लहू से सींचा. बेइंतहा मुहब्बत. उसी कहानी पर एक बार नाटक का मंचन हो रहा था. राजधानी दिल्ली में. महाश्वेता देवी ने मना कर दिया, देखने से. बोलीं, 'सरकार गरीब आदिवासियों को कंबल नहीं दे रही, मैं आराम से बैठकर नाटक देखूं. शोभा नहीं देता.'

3. तृणमूल कांग्रेस. ममता बनर्जी की पार्टी. पश्चिम बंगाल में सत्तासीन. ममता बनर्जी का महाश्वेता देवी से प्यारा रिश्ता रहा है. मां-बेटी की तरह. मिठास भरा. जनवरी 2014 में ममता दीदी को प्रधानमंत्री के तौर पर देखने की इच्छा भी जाहिर की थी. जब बंगाल में एक कार्टूनिस्ट को गिरफ्तार किया गया. उन्होंने उसी ममता सरकार को 'फासिस्ट' कह दिया था. बेबाक महाश्वेता देवी.

4. 2007-08 का वक्त. पश्चिम बंगाल में संघर्ष का काल. नंदीग्राम और सिंगूर का आंदोलन. आदिवासियों, किसानों का हित. महाश्वेता देवी खुलकर लेफ्ट सरकार के विरोध में खड़ी थीं. लेफ्ट का 34 सालों का एकछत्र राज एकाएक बिखर गया. 34 बरस पहले. यही महाश्वेता देवी लेफ्ट की सरकार बनवाने में अहम योगदान दे चुकी थीं.

5. पश्चिम बंगाल की कई जनजातियां उनको 'मां' का दर्जा देती हैं. आदिवासियों से मिलना और उनकी आवाज बुलंद करना उनकी प्राथमिकता में शुमार रहा. अंतिम सांस तक.

6. रिश्ते. उनकी जिंदगी में जुड़ते गए. दूसरों की कहानियां पन्नों पर उकेरने वाली महाश्वेता देवी अपनी आत्मकथा पूरा नहीं कर सकीं. 2007 में उन्होंने शुरुआत की थी. बाद में वो हिस्सा खो गया. उसके बाद आत्मकथा लिखने का काम वहीं रुक गया.

7. 2006, फ्रैंकफर्ट शहर. विश्व पुस्तक मेला. भारत दूसरी बार मेहमान बनने वाला पहला देश बना था. उद्घाटन सत्र चल रहा था. महाश्वेता देवी की आवाज में ‘मेरा जूता है जापानी’ गीत गूंज रहा था. खुशगवार आगाज.

8. ज्ञानपीठ. साहित्य अकादमी. पद्म पुरस्कार. रेमन मैग्सेसे. तमाम नामी पुरस्कार जीतने वाली महाश्वेता देवी का रहन-सहन विशिष्ट रहा. सादगी से भरा. उनका ठौर था. कोलकाता का एक छोटा-सा घर. किताबों से ढंकी दीवारों वाला. जरूरतमंदों के लिए हरदम खुला. उनका कहना था, 'मेरे लिखने की प्रेरणा वहां से आती है जहां के लोग शोषित हैं मगर फिर भी हार नहीं मानते.'

9. शुरुआती दिनों में, महाश्वेता देवी बंगाली पत्रिका सचित्र भारत में 'सुमित्रा देवी' के नाम से लिखती थीं. इनके उपन्यास 'रुदाली ' पर कल्पना लाजमी ने 'रुदाली' तथा 'हजार चौरासी की मां' पर इसी नाम से 1998 में फिल्मकार गोविन्द निहलानी ने फिल्म बनाई.

10. एक इंटरव्यू में. सवाल था, 'जो आपको मां मानते हैं, उनके लिए क्या कहेंगी?' महाश्वेता देवी ने झट से कहा, 'मैं हरामी हूं और जो मेरी तरफ देख रहे हैं वो भी हरामी हैं. ये सोसाइटी...हरामी लोगों के लिए ही है.'

दुनिया यूं ही चलती जाती है. जीवन कहीं भी ठहरता नहीं है. एक दिन महाश्वेता देवी भी चली गईं. किसी नामालूम-सी जगह में. इतना सारा हौसला छोड़कर. जब भी कहीं, किसी कमजोर की आवाज दबाई जाएगी, उस बुढ़िया की दमदार आवाज लाउडस्पीकर बनकर गूंजेगी. बेसहारे की लाठी बनकर..महाश्वेता देवी! आपका जीवन याद रहेगा. जब तक कि ये दुनिया किसी नामालूम सी जगह चली न जाए.