फिल्म : रमन राघव 2.0
फिल्म रिव्यू रमन राघव 2.0, सप्रेम!
"जितने हवाईजहाज़ उड़ रहे हैं आकाश में, उतने ही रावण हैं, उतनी ही सीताएं उठाई जा रही हैं"

निर्देशक : अनुराग कश्यप
अभिनय : नवाज़ुद्दीन सिद्दीकी, विक्की कौशल, सोभिता धुलिपाला, अमृता सुभाष
समय : 2 घंटे 20 मिनट
खलनायक को पकड़ लिया गया है. पकड़ क्या लिया गया है, उसने खुद ही आत्मसमर्पण कर दिया है. उजाड़ से दिखते पुलिस के 'सेफ़हाउस' पर उसके बयान लिए जा रहे हैं. वो बता रहा है कि कैसे उसे सड़क किनारे चबूतरे पर बिछे शतरंज के खेल के काले पर चलने की आदत थी अौर बीच में सफेद आने पर वो उसे कूदकर पार कर जाता था. जहां ज़मीन पर काला-सफेद ना बिछा हो, वहां वो यूं अपने दिमाग पर ज़ोर लगाकर सोचता था, अौर पूरी सड़क काले-सफेद में बदल जाती थी. लेकिन एक दिन काले पर कोई अौर इंसान आ गया. काले पर बिल्कुल भी जगह नहीं बची, खड़े होने को भी नहीं. किसी को तो हटना ही था..
यह अनुराग कश्यप की 'रमन राघव 2.0' की अोपनिंग है. फिल्म पहले ही क्षण यह स्पष्ट करती है कि यह उस मिथकीय सीरियल किलर रमन राघव की कहानी नहीं है, जिसे 1969 में 41 हत्याअों के जुर्म में पकड़ा गया अौर जो 1995 में उम्रकैद की सज़ा काटता अपनी मौत मरा. यह आज की फिल्म है. पोस्ट 2014 की फिल्म. कश्यप की नई फिल्म हमें उस दुनिया में लेकर जाती है जहां शतरंज के काले हिस्से पर भीड़ इतनी बढ़ गई है कि कुछ का कुचलना तय है. यह स्याह का अनुसंधान है. लेकिन यह स्याह किसी मानसिक रूप से विक्षिप्त सीरियल किलर के मस्तिष्क का स्याह नहीं है. यह सिस्टम का स्याह है. हमारे समय का स्याह है.
सिगरेट वाला यह प्रसंग फिल्म में कई बार दोहराया जाता है. रमन्ना के हाथ में सिगरेट है, लेकिन मचिस नहीं. उसका होना तब तक बेकार है, जब तक उसे अपने हिस्से की माचिस ना मिले. फिर राघवन उसे माचिस देता है. जोड़ीदार. सिगरेट 'स्वास्थ्य के लिए हानिकारक' है. वो विलेन है हमारी ज़िन्दगी की, ऐसा लगातार नीचे लिखा आता है स्क्रीन के. माचिस में आग है, जिससे घर का चूल्हा जलता है, दुनिया की गाड़ी चलती है. आग की सब इज़्ज़त करते हैं. आग सिस्टम है. आग हीरो है. लेकिन यह कोई नहीं सोचता कि बिना माचिस सिगरेट बेकार है. बिना आग इस ज़हर का सिरा नहीं.
रमन सिगरेट है. राघव माचिस है. फिल्म भले ही इसका राज़ क्लाईमैक्स में जाकर खोले, लेकिन दर्शक के सामने यह अदला-बदली सदा से स्पष्ट है.
एक पुलिसवाले अौर एक सीरियल किलर की इस कहानी में कश्यप ने दोनों की भूमिकाएं बदल दी हैं. यहां सीरियल किलर पुलिसवाले के पीछे है. जैसे प्रेमी के मोहपाश में बंधा भटक रहा है अपने हिस्से का अंधेरा लिए. कश्यप ने इसे अपनी 'अभी तक की सबसे खतरनाक प्रेम कहानी' कहा है. लेकिन इसे समझने के लिए आपको इसका समयकाल समझना होगा अौर इसके संदर्भों को पढ़ना होगा. जैसा रमन्ना कहता है फिल्म के क्लाईमैक्स में, यह उस समय के बारे में है जहां वर्दी की आड़ में, धर्म की आड़ में, इंसानियत की आड़ में किए जाते जनसंहार हैं. जहां इंसानियत के नाम पर सबसे भयावह युद्ध हैं. यह सीरिया भी है. श्रीलंका भी है. यह गाज़ा भी है. अौर यह कश्मीर भी है. यह उस समय के बारे में है जहां 'सभ्य' महाशक्ति पश्विम पहले हथियार देकर आतंकी खड़े करता है, फिर उन्हीं आतंकियों को खत्म करने के नाम पर बाक़ी मुल्क को तबाह कर देता है.
आठ चैप्टर अौर एक प्रोलॉग में विभाजित अनुराग कश्यप की 'रमन राघव 2.0' उस आधुनिक मुम्बई शहर के बारे में है जहां आकाश में निरंतर उड़ते हवाईजहाज़ हैं अौर नीचे ज़मीन पर झोपड़पट्टी में निरंतर होती हत्याएं हैं. अौर यह शहर की सामान्य दिनचर्या है. दीवारों पर भगवान की तस्वीरें हैं. किसी ने खड़िया से 786 लिख दिया है. अखबारों में खबरें हैं, यह 'मोदी नीति' वाला हिन्दुस्तान है. रमन्ना कहता है, रावण ने अौरत की चाह में पुष्पक विमान बनाया था अौर उसी पर सवार हो वो माता सीता को उठाकर ले गया था. ब्राह्मण था रावण, कहता है रमन्ना. धर्म उसके साथ था. रमन्ना खुद को भगवान का सीसीटीवी कैमरा कहता है. आसमान पर हवाईजहाज़ की उड़ान लगातार बढ़ रही है. सिस्टम के लिए यही 'विकास' है. सीता की तलाश में भेस बदलकर निकलते रावणों की तादाद भी निरंतर बढ़ रही है. यह आज के 'विकास' की असल सच्चाई है.
फिल्म का सबसे दहला देने वाला हिस्सा वहां है जहां हमारे समय का ये स्याह अंधेरा समाज द्वारा प्रदान सबसे सुरक्षित पनाहगाह 'परिवार' के भीतर घुसता है. यहां हिंसा को कश्यप ने रोज़मर्रा के साथ पिरोया है. हत्यारा रमन्ना प्याज़ के साथ चिकन पका रहा है अपनी बहन के परिवार के लिए. ठीक उनकी संभावित हत्याअों के मध्य. 'जान से मारने' से भी ज़्यादा हृदयविदारक है 'जान के मारना'. उम्दा मराठी अभिनेत्री अमृता सुभाष यहां चमत्कार करती हैं. उनके एक पलटवार से इस पवित्र परिवार संस्था के धुर्रे बिखर जाते हैं. अौर जिस क्षण वो अपने भाई को घर से बाहर कर रोती हैं, जैसे फट पड़ती हैं, देखनेवाले के रौंगटे खड़े हो जाते हैं. लेकिन यही दृश्य है जिसके चलते बाकी फिल्म का डिज़ाइनर तनाव भोथरा लगने लगता है. फिल्म का यह दूसरा चैप्टर अपने आप में एक मुकम्मक फिल्म है, जो बाकी फिल्म को छोटा कर देता है.
फिल्म का संगीत अौर फिल्म में संगीत का इस्तेमाल 'अक्स' की, अौर कश्यप की ही पुरानी 'नो स्मोकिंग' की याद दिलाता है. 'रमन राघव 2.0' देखते हुए फिल्म के सह-लेखक वासन बाला की 'पैडलर्स' बहुत याद आती है. खासकर पुलिसवाले राघवन के किरदार में विक्की कौशल का किरदार पैडलर्स के 'रंजीत' गुलशन देवैय्या की याद दिलाता है. उसकी 'मर्दाना असुरक्षाएं' अौर 'अोढ़ी हुई क्रूरताअों' की वजह से. अौर जिस तरह चरम हिंसा के दृश्यों में राम सम्पत बैकग्राउंड में सितार का इस्तेमाल करते हैं, जैकस अॉडिआर्ड की शानदार 'धीपन' याद आती है. नवाज़ के अभिनय के बारे में तो फिर पूरी किताब लिखी जा सकती है. उन्हें परदे पर अपने मन की भूमिकाएं करते देखना हमारे दौर का एक बड़ा सुख है.
कश्यप की 'बॉम्बे वेलवेट' ऊंची छलांग लगाकर अपने घेरे से बाहर निकलने की कोशिश थी. वो मुंह के बल गिरे. या उनके चाहनेवाले कह सकते हैं कि गिराए गए. धराशायी होने के बाद जिस तरह धूल झाड़कर खड़ा होता चैम्पियन पहले अपनी territory को देख परखकर मज़बूत करता है, वही कश्यप 'रमन राघव 2.0' में कर रहे हैं. यह प्रत्याशित है. लेकिन उम्मीद करें कि किसी अगली अप्रत्याशित छलांग की तैयारी में.
https://youtu.be/xq1cEmhVa68