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एमआरआई से एक आदमी की मौत के बावज़ूद आपको डरने की जरूरत क्यों नहीं है?

क्या एमआरआई बहुत खतरनाक होती है?

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फोटो - thelallantop
खबर बहुत छोटी सी है - एमआरआई ने ली एक आदमी की जान!
लेकिन एफबी, व्हाट्सएप के दौर में इसके प्रभाव बड़े दूरगामी हैं. इसलिए हमने सोचा कि पहले तो आपको बताएं पूरी घटना, फिर बताएं कि कितनी मात्रा से अधिक डरना आपके लिए नुकसानदायक हो सकता है. तो खबर पूरी ये कि एक बंदे का मुंबई के नायर हॉस्पिटल में हो रहा था एमआरआई. उससे मिलने उसका रिश्तेदार राजेश मारू आया. जब राजेश मारू अंदर जा रहा था तो कंपाउंडर ने पकड़ा दिया एक सिलेंडर – ऑक्सीजन से भरा हुआ. एमआरआई ने ऑक्सीजन सिलेंडर को अंदर खींच लिया, और साथ में मारू को भी. ऑक्सीजन सिलेंडर फट गया और निकली हुई ऑक्सीजन से राजेश मारू मर गया. अब दो सवाल –
1) क्या एमआरआई बहुत खतरनाक होती है? 2) ऑक्सीजन से कोई आदमी कैसे मर सकता है जबकि  वो तो जीवन दायनी होती है?
तो आइए इन दोनों और बाकी भी ढेर सारे सवालों को ढूंढते हैं. आगे लेख में - किसी रोग के इलाज के तीन स्टेप्स होते हैं: डायग्नॉसिस, उपचार, प्रिकॉशन और फिर से डायग्नॉसिस.
# डायग्नॉसिस:
यदि हमें सही सही जानकारी नहीं होगी कि दिक्कत कहां या कहां-कहां है तो इलाज करना मुश्किल हो जाएगा. अब एक उदाहरण के माध्यम से समझें. माना किसी के पेट में बहुत ज़ोर का दर्द हो रहा है, तो ये कहना मुश्किल है कि वो किडनी फेलियर के चलते है, एपेंडिक्स के चलते या फिर मामूली सी गैस बन गई है. ऐसा ही शरीर के किसी भी हिस्से के लिए सत्य हो सकता है. शरीर के एक हिस्से से जुड़ी दसियों बीमारियां या चोटें संभव हैं. और यदि इलाज कर दिया गैस का, मगर था एपेंडिक्स तो स्थिति जानलेवा हो सकती है. इसलिए ही इलाज शुरू करने से पहले रोगी और रोग का अच्छे से डायग्नॉसिस करना ज़रुरी है.
# उपचार, प्रिकॉशन और फिर से डायग्नॉसिस:
अब यदि रोग क्या है और शरीर के किस विशेष हिस्से में है ये पता चल गया तो उसी के हिसाब से उपचार होता है. उसी हिसाब से दवाइयां दी जाती हैं, ऑपरेशन होता है. एक बार उपचार की पूरी प्रक्रिया हो चुकी तो डॉक्टर हमको सावधानियां, प्रिकॉशन और डाइट वगैरह बताता है और साथ ही साथ पैरलल में या बाद में फिर से डायग्नॉसिस किया जाता है, ये पता करने के लिए उस विशेष अंग और उस विशेष रोग की अब क्या स्थिति है जिसका उपचार हुआ था. अब आप समझ ही गए होंगे कि रोग-निदान के लिए डायग्नॉसिस की कितनी ज़्यादा ज़रूरत है. अब यदि रोग या चोट बाहरी हुई तो डायग्नॉसिस करना आसान है, इन फैक्ट कई स्थितियों में तो डायग्नॉसिस की प्रक्रिया को ही स्किप करके सीधे इलाज शुरू कर दिया जाता है. लेकिन यदि गड़बड़ अंदरूनी हुई (या बाहरी रोग/चोट में भी कई बार) डायग्नॉसिस के निम्न चार मुख्य प्रकारों में से एक का उपयोग होता है:
# 1) अनुमान
ये दुनिया का सबसे आसान, सबसे ज़्यादा प्रयोग में आने वाला डायग्नॉसिस है, लेकिन सबसे ज़्यादा खतरनाक भी. और इसका प्रयोग सबसे ज़्यादा घरेलू ‘कथित’ डॉक्टर या करते हैं. दी लल्लनटॉप ऐसे किसी भी तरह के डायग्नॉसिस को डिस्करेज करता है.
# 2) सिंटंप्स
ये अनुमान से कुछ कम खतरनाक और रियल ‘डॉक्टर्स’ द्वारा प्रयोग में आने वाला डायग्नॉसिस है, इसमें रोगी के असामान्य व्यवहार की अतीत में अन्य रोगियों के असामान्य व्यवहार से तुलना की जाती है. जैसे यदि आपको छींक आ रही है और नाक से पानी बह रहा है डॉक्टर जानता(मानता) है कि आपको ज़ुकाम हो गया है. सिंटंप्स का शाब्दिक अर्थ होता है लक्षण और सिंटंप्स पर आधारित डायग्नॉसिस की सफलता इस बात पर निर्भर करती है कि डॉक्टर कितना अनुभवी है साथ ही जिस रोग के सिंटंप्स जांचे जा रहे हैं उस रोग का डेटाबेस कितना मज़बूत है. जैसे अतीत में मलेरिया या टाइफाइड के बहुत से केसेस डेटाबेस में दर्ज हैं इसलिए इनके सिंटंप्स जानना आसान है. लक्षण या सिंटंप्स पर आधारित यह डायग्नॉसिस ज़्यादातर छोटी मोटी बिमारियों में प्रयोग किया जाता है. अब इसकी असफलता का पहला कारण तो यही गिनाया जा सकता है कि बिना डायग्नॉसिस के कैसे पता चल गया कि बिमारी छोटी-मोटी है?
# 3) चीर-फाड़
जैसा कि हमने पहले ही जाना है कि यदि बीमारी बाहरी हुई तो शायद डायग्नॉसिस की जरूरत ही न पड़े क्यूंकि वो साफ दिख रही है. लेकिन यदि बीमारी अंदरूनी हुई तो हमें अंदर की चीज़ें भी देखनी होंगी. तो उन्हें देखने ले लिए शरीर को खोलना होगा – यही चीर फाड़ है. और यदि चीर फाड़ न भी हुई तो भी एक इंजेक्शन से खून या एक बोतल में मूत्र की जांच करवाना भी इसी चीर फाड़ का एक कम-पीड़ादायक रूप है.
# 4) साइंस
बड़ी कमाल की चीज़ है ये. इसी साइंस के चलते हमें सूरज और धरती की दूरी, बिना सूरज तक पहुंचे हुए ही पता चल गई है. (और ये तो बस एक उदाहरण है, क्यूंकि यही सबसे पहले याद आया.) तो इसी तरह विज्ञान ने शरीर के अंदर भी -
a) या तो बिना चीर फाड़ के पहुंचने की तकनीकें विकसित कर ली हैं – जैसे कि रोबोट, कैमरा लगे हुए कैप्स्यूल आदि. या फिर, b) बिना अंदर पहुंचे ही अंदर की पूरी जानकरी एकत्रित करने की तकनीकें विकसित कर लीं – जैसे कि एक्सरे, कैटस्कैन, ECG, अल्ट्रासाउंड, एमआरआई आदि.
# एक्स-रे ज़्यादातर लोग जानते हैं कि एक्स-रे एक तरह की रेडियोएक्टिव तरंगें होती हैं जो किसी भी चीज़ को भेद कर जा सकती हैं. तो इसलिए ही जब शरीर से एक्स-रेज़ को गुज़ारा जाता है तो वो बाहरी त्वचा को तो भेद जाती है मगर हड्डियों को नहीं भेद पाती और परावर्तित होकर एक इमेज बना देती है. अब आप कहेंगे कि जब वो किसी भी चीज़ को भेद कर जा सकती है तो फिर हड्डियों को क्यूं नहीं. उत्तर इतना ही है कि उसकी इंटेंसिटी को बड़ा-घटा कर ऐसा निर्धारित किया जा सकता है कि वो किस-किस चीज़ को भेद पाए और किस-किस को नहीं. # कैट-स्कैन कैट-स्कैन और एक्स-रे की तकनीक में ज़्यादा अंतर नहीं, बस इतना ही कि एक्स-रे द्विआयामी है वहीं कैट-स्कैन त्रि-आयामी. अगर शरीर के किसी हिस्से का चारों ओर से एक्स-रे लिया जाए और उन्हें जोड़ कर एक त्रिआयामी चित्र बना दिया जाए तो वो हुआ कैट-स्कैन. लेकिन कैट-स्कैन और/या एक्स-रे के साइड इफेक्ट्स भी ढेर सारे हैं. एक्स-रे आख़िरकार रेडियोएक्टिव तरंगे हैं, जिनसे शरीर में जलन से लेकर शरीर की पूरी मूल संरचना बदलने तक के छोटे से लेकर बड़े साइड इफेक्ट्स तक संभव हैं. लेकिन जैसे कि हम पहले भी कह चुके हैं कि साइंस बड़ी कमाल की चीज़ है. और इसलिए उसने इजाद की है एमआरआई. # एमआरआई एमआरआई की मशीन एक आम आदमी को दिखने में कैट-स्कैन वाली मशीन की तरह ही दिखती है. क्यूंकि इसमें भी कैट-स्कैन की तरह ही त्रिआयामी चित्र बनता है. बस अंतर इतना है कि इसमें त्रि-आयामी चित्र बनाने के लिए एक्स-रे नहीं हमारे ही शरीर में मौजूद सत्तर प्रतिशत पानी का उपयोग किया जाता है. कैसे, आइये जानते हैं सबसे आसान तरीके से. एमआरआई का फुल फॉर्म होता है – मैग्नेटिक रेजोनेंस इमेजिंग यानी हिंदी में कहें तो चुम्बकीय अनुनाद प्रतिबिम्बन. अब ये दोनों ही नाम बड़े मुश्किल से हैं, लेकिन इन नामों से एमआरआई की फिज़िक्स और एमआरआई की फिज़िक्स से ये नाम याद रखना बड़ा आसान हो जाता है. देखिए चुंबकों में होते हैं दो पोल – नॉर्थ-पोल और साउथ-पोल. एक मैगनेट का नॉर्थ-पोल दूसरे मैगनेट के साउथ-पोल को खींचता है और एक मैगनेट का नॉर्थ-पोल दूसरे मैगनेट के साउथ-पोल को धक्का देता है. मतलब अगर दो चुंबक एक दूसरे के पास रख दिए जाएं तो किसी न किसी तरह से एक दूसरे से कम्युनीकेशन करेंगे ही करेंगे. अब अगर एक बड़े चुंबक के आस पास ढेर सारे छोटे छोटे चुंबक रख दिए जाएं तो क्या होगा? सभी छोटे चुंबकों का मुंह एक ही तरफ होगा. और इसे ही ‘चुम्बकीय अनुनाद’ या ‘मैग्नेटिक रेजोनेंस’ कहा जाता है.
मगर सवाल ये कि चुंबकों के इस गुण का एमआरआई में क्या उपयोग?
कुछ बातें और समझ लें फिर आपको समझ आ जाना है. हाइड्रोजन का परमाणु भी एक चुंबक ही है. बहुत छोटा चुंबक, जो हमारे शरीर में मौजूद हैं. कैसे मौजूद हैं? वो ऐसे कि शरीर में है बहुत सारा पानी और पानी में होते हैं दो परमाणु हाइड्रोजन के और एक ऑक्सीजन का.
अब अगला सवाल ये कि हाइड्रोजन का परमाणु चुंबक कैसे है?
हाइड्रोजन ही नहीं दरअसल हर परमाणु चुंबक होने का माद्दा रखता है क्यूंकि हर परमाणु में होते हैं प्रोटॉन, न्यूट्रॉन और इलेक्ट्रान जो हर परमाणु को एक चुंबक बनाते हैं. लेकिन ये प्रोटॉन, न्यूट्रॉन और इलेक्ट्रान यदि किसी परमाणु में ज़्यादा हों जाएं तो भसड़ मच जाती है. मज़ा तो तब हो जब किसी परमाणु में केवल एक ही प्रोटॉन हो - और ऐसा होता है हाइड्रोजन के परमाणु में. तो इसलिए हाइड्रोजन का परमाणु बन जाता है सबसे छोटा, सबसे सिंपल और सबसे अधिक मात्रा में पाया जाने वाला चुंबक. अब शरीर को यदि बड़े चुंबक के सामने रखा जाएगा तो शरीर में होगा हाइड्रोजन परमाणुओं का ‘चुम्बकीय अनुनाद’ या ‘मैग्नेटिक रेजोनेंस’ और अगर इसकी फोटो खींची जा सकते तो वो कहलाएगा – ‘चुम्बकीय अनुनाद प्रतिबिम्बन’ या ‘मैग्नेटिक रेजोनेंस इमेजिंग’. तो यही किया जाता है एमआरआई में.
मगर फोटो खींची कैसे जाती है आखिर?
जब हमारे शरीर के अंदर के हाइड्रोजन परमाणुओं पर बाहर से चुंबकिय प्रभाव डाला जाता है तो वो अपने स्थान पर घूमकर एक सीध पर आ जाते हैं और फिर जब ये प्रभाव समाप्त होता है तो अपनी पुरानी स्थिति में आ जाते हैं. इन प्रक्रियाओं के दौरान जो ऊर्जा निकलती है (या रेडियो तरंगे निकलती हैं) उसको माप कर या उसके बीच के अंतर को माप कर और शरीर अलग-अलग अंगों में उपस्थित अलग अलग मात्रा के हाइड्रोजन परमाणुओं के आधार पर और कंप्यूटर की हेल्प लेकर ‘अंदर क्या चल रहा है’ इसका बोले तो मस्त चित्र बन जाता है.
  अब आगे बात करते हैं एमआरआई से होने वाले साइड इफेक्ट्स की. एमआरआई का सबसे बड़ा साइड इफ़ेक्ट आर्थिक ही है. मतलब कि ये अन्य सभी तरीकों की जांचों से महंगी है, वरना तो अभी तक इसका कोई और साइड इफ़ेक्ट तो सामने नहीं ही आया है.
तो फिर राजेश मारू की मौत कैसे हुई?
सबसे महत्वपूर्ण बात उस खबर की ये कि जिसकी मृत्यु हुई वो दरअसल मरीज़ था ही नहीं, और उसका एमआरआई हो भी नहीं रहा था. और सबसे महत्वपूर्ण बात एमआरआई की ये कि चुंबक या चुंबक से प्रभावित हो जाने वाले पदार्थ (जैसे की लोहा) एमआरआई के लिए ठीक वैसे ही हैं जैसे दूध के लिए नींबू. मगर जिस तरह न दूध से शरीर को कोई नुकसान है न फटे हुए दूध से उसी तरह एमआरआई और एमआरआई के आस पास रखे चुंबक या लोहे से भी सामान्यतः शरीर को कोई नुकसान नहीं, बस रिपोर्ट सही नहीं आएगी. इसलिए ही तो यदि आप एमआरआई कक्ष जा रहे हैं तो चाबी, चश्मा, सिक्के बाहर ही उतरवा या रखवा लिए जाते हैं – केवल इसलिए कि रिपोर्ट सही आए.
तो फिर राजेश मारू की मौत कैसे हुई?
वो बंदा ऑक्सीजन सिलेंडर लेकर अंदर गया. एमआरआई चालू थी. सिलेंडर लोहे का था. एमआरआई के चुंबक ने खींच लिया. सिलेंडर फट गया. सिलेंडर के अंदर ऑक्सीजन थी. बंदे ने ऑक्सीजन सारी अपने फेफड़ों में सांस के साथ खींच ली और जब तक उसे बचाया जाता वो मर गया. मगर हमने तो पढ़ा है ऑक्सीजन जीवन-दायनी है...
तो फिर राजेश मारू की मौत कैसे हुई?
देखिए ऑक्सीजन जीवन दायनी है लेकिन अकेले नहीं. अब यही लगा लीजिए कि जो सांस हम लेते हैं उसमें, यानी वातावरण में केवल 21% ऑक्सीजन होती है और बाकी 78% नाइट्रोजन और 0.03% कार्बन डाई ऑक्साइड. यानी अति किसी चीज़ की अच्छी नहीं होती फिर वो ऑक्सीजन ही क्यूं न हो. साथ ही सुनने में आया है कि ऑक्सीजन सासों में नहीं पेट में चली गई थी.

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