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फ़िल्म रिव्यू : शादी में ज़रूर आना

राजकुमार राव और कृति खरबंदा की फ़िल्म.

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फोटो - thelallantop
वो दौर फिर से लौट आया है जब फ़िल्में 'शादी होगी या नहीं होगी' जैसे सवाल पर अटकी होती थीं. फ़िल्म बनती ही इसलिए थी कि उसमें किसी की शादी हो सके. फ़िल्म का एकमात्र उद्देश्य फ़िल्म से जुड़े किसी कैरेक्टर की शादी करवाना होता था. इसे के इर्द-गिर्द ड्रामा रचा जाता था और शादी होते ही फ़िल्म खतम. छोटे शहर की सेटिंग. यकीन करने वाले किरदार, बोले जा सकने वाले डायलॉग और फ़िल्म तैयार.



राजकुमार राव की बरेली की बर्फ़ी के बाद फिर शादी-केन्द्रित फ़िल्म आई है 'शादी में ज़रूर आना'. कानपुर की कहानी. लड़की इलाहाबाद में जाकर पढ़ रही है. लड़के की नई-नई सरकारी नौकरी लगी है. दोनों की अरेंज मैरिज होने वाली होती है. शादी से पहले ही प्यार भी करने लगते हैं लेकिन फिर एक लेकिन आ जाता है. बड़ा सा लेकिन. इतना बड़ा सा कि लड़की शादी वाली रात, शादी होने से पहले भाग जाती है. लड़का एकदम सकपका जाता है. उसे समझ में नहीं आता कि करे तो क्या करे. लेकिन फिर वो कुछ करता है. लड़की भी कुछ करती है. यही करने-कराने की कहानी है 'शादी में ज़रूर आना'.


 
फ़िल्म टुकड़ों में बहुत अच्छी है. बेसिक चीज़ों का ख़याल रखा गया है. लखनऊ को भरपूर दिखाया गया है. मां रात को सोने से पहले जब बिस्तर पर बैठती है और हाथ में कोल्ड क्रीम लगाने वाली होती है तो सबसे पहले बिंदी निकाल कर पास बनी अलमारी पर चिपका देती है. यहीं आप फ़िल्म में थोड़ा सा घुल जाते हैं. लेकिन फिर कुछ चीज़ें हैं जो फ़िल्म को थोड़ा मज़ाकिया सा कुछ बना देती हैं. मसलन कई जगहों पर ड्रामा के नाम पर ऐसा खेल रचा गया है कि लगता है स्टार प्लस पर किसी डेली सोप को देखने के लिए टिकट खरीदा है. कैमरा मूवमेंट यूं हैं कि आप फ़िल्म नहीं टीवी में घुसे हुए हैं. होता क्या है कि ऐसी चीज़ें अखरती हैं. वो तुरंत ही आपका ध्यान फ़िल्म से हटा देती हैं. और ये फ़िल्म, उसकी कहानी के लिए बहुत घातक होता है.
फ़िल्म लिखने वालों ने एक दो शब्द पकड़ लिए हैं. मसलन 'कंटाप'. अब हर कानपुर, इलाहबाद, लखनऊ से जुड़ी फ़िल्म में कंटाप और मिलते जुलते शब्द सुनाई देने लगे हैं. ये इन शब्दों का चार्म खराब कर देंगे. लिखे के ले लो.
कहानी में ढेर सारे ट्विस्ट डाले गए हैं. एकदम दबा के. इंटरवल के ठीक बाद एक ऐसा ट्विस्ट आता है जो आपको कुर्सी से खड़बड़ा के हिला के रख देता है. फ़िल्म का अंत भी एक ट्विस्ट पर ही होता है. ट्विस्ट इतने हैं कि एक समय एक बाद आप चट जाते हैं. मतलब, बदले की कहानी काफ़ी ज़्यादा फ़िल्मी हो जाती है. इतनी कि एक फ़िल्म में भी इतनी फ़िल्मी कहानी खटकने लगती है. आप ट्विस्ट से घबराने लगते हैं. फ़िल्म खतम होने को आती है और आप ट्विस्ट का इंतज़ार करने लगते हैं. ट्विस्ट की इतनी आदट लग चुकी है कि फ़िल्म ख़तम होने पर सोचने लगते हैं कि कहीं ये दोबारा न शुरू हो जाए. खैर.
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राजकुमार राव और कृति खरबंदा

राजकुमार राव. फ़िल्म में सत्तू. सत्तू यानी सत्येन्द्र. ऐक्टिंग की दुकान. फ़िल्म की कहानी थोड़ा और साथ देती तो और भी मज़ा आता. चूंकि हाल ही में बरेली की बर्फ़ी आई थी, इसलिय ये फ़िल्म और भी ज़्यादा शिथिल मालूम हुई. राजकुमार का कैरेक्टर इस फ़िल्म में भी ('बरेली की बर्फ़ी' के माफ़िक) पलटा खाता है. कुछ का कुछ बन जाता है. ये बदलाव ही मज़ा देता है. राजकुमार राव मज़ेदार हैं. कृति खरबंदा. सत्तू की आरती. फ़िल्म में एक जगह सत्तू का दोस्त उससे कहता है, "कानपुर में ऐसी लड़की और हमको पता भी नहीं?" ये अपने आप में बहुत कुछ कह जाता है. जहां ज़रुरत पड़ी है, क्यूट लगी हैं. रोते टाइम थोड़ा आउट-ऑफ़-प्लेस लगती हैं. बाकी, फ़िल्म में विपिन शर्मा, मनोज पाहवा, केके रैना और अल्का अमीन जैसे भयंकर ऐक्टिंग वाले लोग हैं. सब मज़ेदार काम करते हुए दिखते हैं.
फ़िल्म देखी जा सकती है. बहुत ज़्यादा ज़रूरी भी नहीं है. लेकिन देख ली जाए तो कुछ घटेगा भी नहीं. राजकुमार राव जिस रौ में हैं, वो देखने के लिए देखी जा सकती है. टाइम पास करना है, ज़्यादा इंटेलेक्चुअल वाली फिल्मो से दूरी रखते हैं और ड्रामा से परहेज़ नहीं है तो देख डालिए.
बाकी गोलमाल और जुड़वा 2 तो साल की सबसे कमाऊ फ़िल्म बन ही गई हैं. जय हो!


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