सात उचक्के. संजीव शर्मा की बनाई गई फ़िल्म. टाइटल में साफ़ है कि फ़िल्म सात ऐसे लोगों के बारे में है जो एकदम शरीफ़ नहीं कहलाये जा सकते. शराफ़त उनके आस-पास भी फटके तो अद्धा फेंक के मार देते हैं.
अब थोड़ी भूमिका बनाते हैं. हर फ्राइडे फ़िल्म रिलीज़ करने का रिवाज़ है. हर कोई कर रहा है. किये जा रहा है. फ़िल्म में एक कहानी होती है. कुछ कैरेक्टर होते हैं. कुछ गीत संगीत होता है. इंटरवल होता है. फ़िल्म दोबारा चलती है. खतम हो जाती है. कई बार ऐसा होता है कि आप फ़िल्म से कुछ लेके जाते हैं. कई बार होता है खाली हाथ जाते हैं. कई बार होता है कि आप कुछ दे के जाते हैं. अक्सर गाली देते हैं. बस. हमारे जीवन में फ़िल्म का इतना ही काम होता है. इससे ज़्यादा नहीं. इससे कम नहीं.
वापस फ़िल्म पर. सात उचक्के. डायरेक्टर का नाम पहले ही बताया जा चुका है. फिल्म में सात कमीने लड़कों की कहानी है.
पप्पी भाई कंगला हो चुका है. लॉटरी खरीद-खरीद परेशान हो चुका है. एक बेहद ख़ूबसूरत लड़की
सोना से इश्क़ करता है. वही लड़की उसकी मुसीबत का सबब है. उसकी दो मुसीबतें हैं. लड़की से कंगाली के बावजूद शादी करने का लक्ष्य और मोहल्ले में ही रहने वाले पुलिसवाले
तेजपाल से उस लड़की का बचाव. तेजपाल भी लड़की पर लट्टू है. बवाल तरीके से. पप्पी के दोस्त भी हैं. उत्ते ही कमीने. अज्जी और हग्गू. साथ ही एक और कैरेक्टर है.
जग्गी. उसके दो चेले हैं.
खप्पे और
बब्बे. पहले अलग होते हैं फिर कैसे भी मिल जाते हैं. अंत में कुल मिलाके आपस में मिलकर
दीवान साहब का खजाना लूटना चाहते हैं. साथ ही एक पागल भी है. अहम रोल है. इसके आगे कुछ बताया तो स्पॉइलर हो जायेगा. और
पुष्पा, आई हेट स्पॉइलर्स रे! फ़िल्म में काम किया है अनुपम खेर ने, दीवान साहब के रूप में. मनोज बाजपेयी बने हैं पप्पी भाई. तेजपाल बने हुए हैं के के मेनन. अन्नू कपूर ने पागल बिच्ची का रोल प्ले किया है. सोना के रोल में हैं अदिति शर्मा. और बिज्जी भाई हैं विजय राज़.

फिल्म में तीन लोग मेन हैं.
मनोज बाजपेयी यानी पप्पी भाई. पप्पी जो एन्टीक मूर्तियों की दुकान खोलना चाहता है. लेकिन पैसे से कमजोर हो चुका है. लोग घर का सामान उठाकर ले जा रहे हैं. सोना से प्यार करता है. उसे तेजपाल से बचाना चाहता है. शादी करना चाहता है. शादी के लिए पैसे चाहिए. पैसे के लिए किस्मत साथ नहीं दे रही. ऐसे में चोरी करने का फ़ैसला करता है. बजरंग बलि का भक्त है. भगवान का साथ मांगता है चोरी में भी. मनोज बाजपेयी फ़िल्मों में खप चुके हैं. गजब तरह से कैरेक्टर प्ले करते हैं. न मालूम क्या खाकर आते हैं. पप्पी भाई और मनोज बाजपेयी को अलग करना मुश्किल था.
के के मेनन. इन्स्पेक्टर तेजपाल. पप्पी इसकी आंखों की किरकिरी है. सोना के पास पप्पी को देखकर जल-भुन जाता है. एक पुराना स्कूटर चलाता है. जिसकी किक आधी ख़राब है. किसी को भी पकड़कर उससे धक्का लगवाना पड़ता है. पप्पी और उसके साथियों के कुकर्मों का पता लगते ही उनके पीछे हाथ धोकर पीछे पड़ जाता है. पप्पी और बाकी की पूरी टोली को इससे हचक के डर लगता है. गजब ऐक्टिंग. कोई लोड नहीं. ऐसा लगता है जैसे के के बचपन से इन्स्पेक्टर की ऐक्टिंग करते हुए आ रहे थे.
विजय राज़. मोहल्ले का गुंडा. सबसे काइयां. लोगों को कानूनी, गैरकानूनी सभी सलाह देने में समर्थ. हर मर्ज का इलाज. पेशे से वकील. कचहरी के सामने बैठता है. गाली देता है तो सुन के लगता है कि आदमी गाली दे तो ऐसे दे, वरना न दे तो ही बेहतर. गाली कर्णप्रिय सिर्फ विजय राज़ ही दे सकते हैं. कउव्वा बिरयानी खाने वाला लड़का डेल्ही बेली में आते ही जिस भौकाल से बातें करता है, वो यहां और भी तगड़ा दिखता है. विजय राज़ अब ऐसे रोल्स सोते हुए भी कर सकते हैं. वो शायद असल ज़िन्दगी में भी ऐसे ही हैं. शायद नहीं. फ़िल्म में इनकी दी हुई गालियों की बात ज़रूर होगी. इसके अलावा
अनुपम खेर हैं. कुल मिलाकर 2 मिनट से ज़्यादा स्क्रीन टाइम नहीं मिला है. जितनी भी देर हैं, सही हैं. अच्छे लगते हैं. लेकिन अंत में आते-आते उनका कैरेक्टर बोरिंग हो जाता है. उन्हें देखकर अनिल कपूर वाली बेटा में उनके रोल की याद आ जाती है. अदिति शर्मा भी हैं. एक सेक्सी इमेज दी गयी है. ऐसी लड़की जो गालियां बिना तुले दे देती है. दबने वाली नहीं है. दो लोगों के बीच दबी हुई है. दोनों उससे प्यार करते हैं. तेजपाल और पप्पी. वो खुद पप्पी को चाहती है. ऐसे में उसकी ज़िन्दगी घूमी हुई है. फ़िल्म बहुत कच्ची है. कहानी बहुत सादी. ऐसा लगता है जैसे दसवीं के हिंदी के सिलेबस में कोई एकांकी पढ़ी हो जिस पर इस फ़िल्म को बना दिया गया है. हालांकि ऐक्टिंग देखने में मज़ा आता है. स्क्रीन पर जितनी देर विजय राज़ रहते हैं, लोग मुस्कुराते रहते हैं. फ़िल्म में गाली-गलौज होने से दिक्कत पाल लेने वाले लोग पसीने पोंछते पाए जायेंगे. गालियां भरपूर हैं. लगभग हर वाक्य में. लेकिन उन्हें मोड़-तोड़ कर सुनाया गया है. 'लोमड़ी के' और 'मादरखोद' के रूप में. हालांकि मादरखोद का असली वर्ज़न भी सुनाई दे जाता है. शायद सेंसर बोर्ड ने फ़िल्म पास करते वक़्त गालियों की संख्या तय कर दी थी. इसके अलावा और कोई बात इस बात को नहीं एक्सप्लेन नहीं कर सकती. फ़िल्म अच्छी है या बुरी, ये सीधे नहीं कहा जा सकता. एक तरह की ऑडियंस को ये फ़िल्म मज़ेदार लगेगी. गालियों पर हंसने वाले लोग हंसेंगे. ऐसे लोग जिन्हें लगता है कि गालियां हंसी ला सकती हैं, ये फिल्म उनके लिए है. गालियों से परहेजी उस मल्टीप्लेक्स में भी न जायें जहां ये फ़िल्म लगी हुई है. ऐक्टिंग बढ़िया है. मनोज बाजपेयी और विजय राज़ ने गजब काम किया है. हंसी लाते हैं. अपने हाव-भाव और डायलॉग डिलीवरी से. फ़िल्म में वो सब कुछ जो ऐक्टर्स नहीं करते हैं, कमज़ोर है. यहां तक कि कैमरावर्क भी. एक-दो जगह पर पोस्ट-प्रोडक्शन ने मामला संभाला है. https://www.youtube.com/watch?v=eW928Xsk230