पंजाबी दो तरह की होती हैं. दूसरी तरह की होती है दिल्ली वाली. जिसमें भाषा कमोबेश हिंदी ही होती है लेकिन एक्सेंट पंजाबी होता है. ये बात दिल्ली वाले जानते हैं. जो नहीं जानते वो ‘बृज मोहन अमर रहे’ देख सकते हैं. जिसमें फोन की कॉलर ट्यून भी – ‘ओ पाजी फ़ोन चक लो!’ है.
इस फ़िल्म को इसके अलावा और किसी वजह से देखने का प्लान बना रहे हैं तो शायद आप निराश ही हों. हां मगर ये ऑनलाइन उपलब्ध है, और अगर आपके पास
नेटफ्लिक्स का सब्सक्रिप्शन है तो देखने में दिक्कत ही क्या है? फ़िल्म को लिखा और डायरेक्ट किया है
निखिल भट्ट ने. ये निर्देशक के रूप में उनकी पहली फ़िल्म है. इस फ़िल्म को लेकर उन्होंने कहा था कि फिल्म में ‘कर्मों का फल भोगना पड़ता है’ के कॉन्सेप्ट को कॉमेडी और कॉम्प्लेक्स टाइप के व्यंग्यात्मक ह्यूमर के ज़रिए दिखाया गया है.
फ़िल्म का कांसेप्ट बहुत अच्छा है लेकिन उस कांसेप्ट की तामीर, उसका एग्जिक्यूशन उतना ही कमतर. कांसेप्ट एक लाइन का है – एक आदमी अपने ही खून के इलज़ाम में फंस जाता है.
अब जब ये ‘कांसेप्ट’, कहानी, डायलॉग स्क्रिप्ट, स्क्रीनप्ले और एडिटिंग की रास्ते गुज़रकर एक मुकम्मल फ़िल्म बन चुकता है तो सब कुछ, ‘अजीब सा कुछ’ लगने लगता है. कहानी कुछ यूं है कि एक ‘लूज़र’ है, जो अंत तक ‘लूज़र’ ही रहता है. उसका किसी ‘सुपर हीरो’ मूवी की तरह या ‘फ़ेयर एंड लवली’ के एड की तरह कोई ट्रांसफॉर्मेशन नहीं होता. कोशिश पूरी होती है उसकी, लेकिन हो नहीं पाता. और ये वाली बात फ़िल्म को रियल्टी के काफी करीब लाती है. हां तो, इस लूज़र का नाम ‘बृज मोहन गुप्ता’ है, जिसकी महिलाओं के अंडरगारमेंट्स की दुकान है. उसके सर पर बहुत क़र्ज़ है. और क़र्ज़ एक कुचक्र है. एक जगह का चुकाने के लिए दूसरी जगह से और ज़्यादा क़र्ज़ लेना पड़ता है. कुछेक साल पहले आई ‘सिमरन’ की तरह.
यूं वो एक गुंडे के चक्कर में पड़ जाता है. (ये बहुत ‘सुना-सुना’ सा लगता है न?). गुंडे का नाम रघु भाई. बृज की बीवी स्वीटी कंगाली में आटा गीला है. अगर एक खून सरकार माफ़ कर देती तो बृजेश उसका खून कर देता. एक ड्रीम सिक्वेंस में कर भी देता है. बहरहाल कर्ज़ा चुकाने के लिए, या यूं कहें कि क़र्ज़ निपटाने के लिए वो अपनी आइडेंटिटी बदलने की सोचता है लेकिन ऐसा होता नहीं दिखता, जब तक कि एक लॉटरी की तरह सारी गोटियां खुद-ब-खुद फिट बैठ जाती हैं. ये खुद-ब-खुद सेट हो गया प्लॉट शुरुआत फ़िल्म के नायक को एक मीठे पानी का तालाब सरीखा लगता है, लेकिन दरअसल वो दूर-दूर तक फैले रेगिस्तान की एक मरीचिका भर होता है. मतलब ये कि जब सब कुछ सही होता लगता है, तो ठीक उसी वक्त से असली परेशानी शुरू होने लगती है. और उसकी इस परेशानी को उसकी बीवी, उसकी एक गर्लफ्रेंड, वो गुंडा जिसने उधार दिया है – मने रघुभाई और उसकी बीवी का बॉयफ्रेंड, जज, वकील सब बढ़ाते जाते हैं.
इस फ़िल्म में किरदार ‘सूरज बडजात्या’ की फ़िल्मों के किरदार के जस्ट अपोज़िट हैं. वहां एक भी करैक्टर बुरा नहीं होता था. यहां एक भी करैक्टर अच्छा नहीं है. वहां हालात विलेन होते थे. यहां जीते जागते विलेन हालातों की तरह मुश्किल हैं. और बृजेश भी उनमें से एक है. उसकी पत्नी, उसकी गर्लफ्रेंड, उसकी पत्नी का बॉयफ्रेंड... कोई भी किरदार इत्ता सा भी सुथरा नहीं है. ‘जीत’ फ़िल्म में जैसा सॉफ्ट कार्नर सनी देओल के लिए बनता था. इस फ़िल्म में किसी के लिए लिए भी नहीं बनता. ये नई नहीं भी, तो भी एक ‘साहसिक’ बात तो कही ही जाएगी. कई फ़िल्में ऐसी हैं जो क्लाइमेक्स तक एक औसत फ़िल्म ही होती हैं लेकिन क्लाइमेक्स के चलते ‘कल्ट’ हो जाती हैं. जैसे ‘यूज़वल सस्पेक्ट’ या अभी हाल ही की ‘सैराट’ लीग (‘जिसमें सैराट’, चन्ना मेरिया’ और ‘धड़क’ शामिल हैं.) यूं इस फ़िल्म में भी कुछ नहीं तो एंडिंग थोड़ी अच्छी करके, जिसकी बहुत ज़्यादा स्पेस भी थी और ज़रूरत भी, फ़िल्म को कुछ बेहतर बनाया जा सकता था. फ़िल्म देखकर आपको एक अधूरेपन का एहसास होता है. ये अधूरापन किसी कलात्मक मूवी का अधूरापन नहीं है जो आपको सोचने पर मज़बूर करे, ये अधूरापन ‘इन्सेप्शन’ सरीखा एक जीनियस अधूरापन भी नहीं कि जिसको लेकर ‘फैन थ्योरिज़’ बनें. ये अधूरापन इरिटेट करता है.
मैं नहीं जानता कि फ़िल्म में एडिटिंग करते वक्त क्या-क्या होता है, लेकिन मैं ये ज़रूर जानता हूं कि ऐसा बिल्कुल नहीं होता है फ़िल्म में से बीच में कहीं से आधा घंटा काट दिया जाए. और फ़िल्म देख चुकने के बाद पात्रों से जुड़े अनुत्तरित प्रश्न आपको यही एहसास दिलाते हैं. ‘रियल्टी’ और ‘सिनेमेटिक लिबर्टी’ को अगर अच्छे से मिलाया जाए तो जादुई यथार्थवाद क्रियेट होता है. और इतनी बड़ी बात न भी करें तो ‘जॉनी गद्दार’ और हालिया ‘ब्लैकमेल’ तो बन ही जाती है. लेकिन अगर इसपर ध्यान न दिया जाए तो जो प्रोडक्ट बनता है उसे – ‘ब्रज मोहन अमर रहे’ कहते हैं. ‘बृज मोहन अमर रहे’ एक ब्लैक कॉमेडी है. जिसमें कॉमेडी कुछ कम कॉमेडी लगती है और ब्लैक कुछ ज़्यादा ही ब्लैक. इसे केवल ब्लैक बनाए रखते तो ठीक था. क्यूंकि कॉमेडी का अर्थ ‘बिलो-दी-बेल्ट (अश्लील) जोक्स’ नहीं होता. और होता भी है तो ‘केवल’ बिलो-दी-बेल्ट जोक्स नहीं होता. और जोक्स भी कहां बस गालियां, और उनको एक्सप्लेन करना. वो भी किसी नए तरीके से नहीं. बहुत ही भद्दे और ‘आत्ममुग्ध’ तरीके से.
अच्छा हुआ कि ये नेटफ्लिक्स में रिलीज़ हुई क्यूंकि अगर इसे बड़े पर्दे पर रिलीज़ करते तो... इतनी अच्छी ऑपरट्यूनिटी थी. फ़िल्म को ‘
फ्राइडे’ नाम की अग्नि परीक्षा से नहीं गुज़रना था. जितना चाहे उतना क्रिएटिव हो सकते थे. फिर क्या मज़बूरी थी इसमें आवश्यकता से अधिक मसालों की. कपड़े और सेट आपके ‘दम लगा के हईशा’ जैसे, डायलॉग आपके ‘क्या कूल हैं हम’ जैसे, स्टोरी आपकी ‘सिटी लाइट्स’ जैसी, सोशल इश्यू आपके ‘जॉली एलएलबी’ जैसे और क्लाइमेक्स आपका ‘सत्या’ जैसा! फ़िल्म का सबसे स्ट्रॉन्ग पार्ट है – कलाकारों की एक्टिंग
परमानेंट रूममेट्स के दोनों सीज़न देखने के बाद निधि सिंह से बहुत ज़्यादा उम्मीदें लगीं थी. और इस फ़िल्म को देखने के बाद वो उम्मीदें बिल्कुल भी कम नहीं हुई. दिल्ली-पंजाबी एक्सेंट, हाव भाव से लेकर ड्रेस अप तक सब कुछ मिलकर उनके द्वारा निभाया गया स्वीटी का किरदार खुद के साथ न्याय करता है.
यही बात अर्जुन माथुर के साथ भी लागू होती है. जो इस फ़िल्म में बृज मोहन गुप्ता बने हैं. अर्जुन माथुर यूके, दिल्ली, मुंबई और यूएस में पले बढ़े हैं. और छोटी-मोटी मगर दमदार फिल्मों में छोटे-मोटे मगर दमदार रोल कर चुके हैं. एमटीवी में जब सीरियल्स आना शुरू हुए थे, उन दिनों उन्होंने भी ऐसे ही एक सीरियल में किया था. जो चर्चित रहा था – ‘ब्रिंग ऑन दी नाईट’. इसे अलावा भी कुछ ‘क्रिटिकली एक्लेमड’ मूवीज़ उनकी किटी में हैं.
शीतल ठाकुर, सनी हिंदुजा और मानव विज के लिए वही क्लिशे लाइन – तीनों ने अपना किरदार बखूबी निभाया है. हो सकता है कि फ़िल्म विवादों में घिर जाए क्यूंकि इसमें भारत के ज्यूडिशियल सिस्टम पर भी एक छोटी उंगली उठाई गई है. जो एक दर्शक के रूप में मेरे लिए नई बात है. लेकिन अगर हमारा ज्यूडिशियल सिस्टम इसको तूल न ही दे तो अच्छा. क्यूंकि सामान्य स्थितियों में ये फ़िल्म ज़ल्द ही आई-गई होने वाली है. खैर अगर-मगर तो बहुत हो सकते हैं. जैसे कि एक घंटे चालीस मिनट की मूवी को और ज़्यादा क्रिस्प बनाया जा सकता था था. नेटफ्लिक्स की ऑरिजनल्स में हाफ टाइम जैसा तो कुछ होता नहीं इसलिए इस फ़िल्म की ये कहकर भी समीक्षा नहीं की जा सकती कि फ़िल्म हाफ टाइम से पहले कैसी थी, उसका पेस और एडिटिंग कैसी थी और हाफ टाइम के बाद कैसी? फ़िल्म के प्रोमो के लिए एक गाना यूज़ किया गया था लेकिन पूरी फ़िल्म में वो गाना नहीं है. उसकी ज़रूरत निर्माता-निर्देशक को नहीं लगी होगी. और शायद स्क्रिप्ट, स्क्रीनप्ले और डायलॉग्स की भी ज़रूरत नहीं लगी! हां मगर पुराने गीतों को बैकग्राउंड म्यूज़िक के रूप में यूज़ किया गया है. ये सुनने में अच्छे लगते हैं. मालगुड़ी डेज़ वाला म्यूज़िक भी.
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