आशुतोष गोवारिकर की एक फिल्म है 'स्वदेस'. उसमें एक आइकॉनिक शॉट है. इसमें मोहन भार्गव नाव में बैठा है और उसको चारों ओर से स्थानीय लोगों ने घेर रखा है. ऐसा ही एक मिलता-जुलता शॉट है, हिंदी में रिलीज़ हुई ओड़िया फिल्म 'दमन' में. आज के रिव्यू में इसी की बात करेंगे.
मूवी रिव्यू: दमन
फिल्म को ओड़िया भाषा के स्टार बाबुशान मोहंती ने अपने कंधों पर उठाया है. वो सिद्धार्थ के मन की अकुलाहट अपने तन पर बहुत सहजता से लेकर आए हैं.

मैंने शाहरुख की 'स्वदेस' की बात की. 'दमन' भी एक तरह की ‘स्वदेस’ है. वहां मोहन भार्गव अमेरिका से आता है. यहां सिद्धार्थ भुवनेश्वर से मलकानगिरी के जनबाई आता है. ये एक पिछड़ा जनजातीय नक्सल प्रभावित इलाका है. लोग डॉक्टर से कहीं ज़्यादा देसारी (तांत्रिक) पर भरोसा करते हैं. भयंकर मलेरिया फैला हुआ है. डॉक्टर की बात कोई सुनता नहीं है. सिद्धार्थ को इन्हीं सबसे जूझना है. चूंकि वो मलकानगिरी अपनी मर्ज़ी से नहीं आया है. उसे एक सरकारी स्कीम के तहत यहां भेजा गया है. इसमें पीजी करने के लिए यंग डॉक्टर्स के लिए तीन साल की रूरल सर्विस बहुत ज़रूरी है. सिद्धार्थ कई बार मलकानगिरी से भागने की कोशिश करता है. उसका कलीग कंपाउंडर रवि उसे रोकता है. लेकिन सिद्धार्थ को जाना है. पर हीरो ऐसे कैसे चला जाएगा. उसे तो अभी करना है ‘दमन’, यानी दुर्गम अंचलारे मलेरिया निराकरण (दुर्गम जगहों में मलेरिया से निवारण).
'दमन' पूरी तरह से सिद्धार्थ के इरादों की फ़िल्म है. 'दमन' की खास बात इसकी भव्यता और दिव्यता नहीं, बल्कि सत्यता है. जो है, उसे विशाल मौर्या और देबी प्रसाद लेंका ने बिना मिर्च मसाला लगाए, उसी तरह दिखाया है. कहा जाता है कि ये डॉक्टर ओमकार होता की असली कहानी है. ये फिल्म तमाम सोशल प्रॉब्लेम्स को ऐड्रेस करती है. आदिवासी लोग सरकारी सिस्टम पर भरोसा क्यों नहीं करते? क्योंकि उन्हें आज तक भरोसा कराया नहीं गया. नक्सल प्रभावित इलाके की अपनी अलग समस्याएं हैं. एक आदिवासी कहता भी है:
एक ओर नक्सल हैं और दूसरी ओर पुलिस. हम आज भी स्वतंत्र महसूस नहीं करते.
फिल्म उस भारत की तस्वीर सामने रखती है, जो हमसे अछूता है. बेसिकली ये मलेरिया निराकरण की शक्ल में एक आदिवासी फिल्म है. वहां की समस्याएं जिसके लिए सिद्धार्थ से रवि कहता है:
भुवनेश्वर और मलकानगिरी में उतना ही अंतर है, जितना इंडिया और अमेरिका में. अमेरिका से भारत अगर 50 साल पीछे है, तो मलकानगिरी 500 साल.
'दमन' में कहानी के नाम पर बस उतना ही है, जो मैंने ऊपर आपको बताया. फिल्म में आपको बहुत ट्विस्ट एंड टर्न्स देखने को नहीं मिलेंगे. कई मौकों पर ये स्लो भी लग सकती है. कुछ जगहों पर दोहराव भी लग सकता है. कुछ सीन काफ़ी लंबे खींचे गए लगते हैं. कहानी को आगे बढ़ाने के लिए जिन मोंटाज का इस्तेमाल हुआ है. उनको ट्रिम किया जा सकता था. उसकी जगह कुछ अच्छे सीन डाले जा सकते थे. खैर, कई सीक्वेंसेज बहुत मार्मिक बन पड़े हैं. जब एक महिला को लेबर पेन होने लगता है, उसे शहर के अस्पताल ले जाना है. नदी पार करने के लिए कोई नाव नहीं है. बहुत ही कमाल का सीन है. ऐक्टिंग तो बढ़िया है ही, उसका फिल्मांकन भी बेहतरीन है. एक फ्रेम जिसमें महिला ज़मीन पर पड़ी है, रवि उसके पास बैठा है और सिद्धार्थ फ्रस्ट्रेट हो रहा है. ये फ्रेम आपको अंदर तक झकझोर देता है. इसके लिए फ़िल्म के डायरेक्टर विशाल, देबी और सिनेमैटोग्राफर प्रताप राउत को निजी साधुवाद. पर दोबारा मैं वही कहूंगा, ये सीक्वेंस बहुत ज़्यादा स्ट्रेच्ड है.

प्रताप राउत ने कैमरे और लाइट के कम्पोजिशन से बहुत उम्दा काम किया है. आर्टिफ़िशियल लाइट का इस्तेमाल उन्होंने बहुत स्मार्टली किया है. फ्रेम में मौजूद लाइट सोर्स को बहुत तरीके से अपने काम में लिया है. कई जगहों पर लालटेन की रोशनी को कैमरे से क्रांति का साधन बनाया है. लो की-लाइट वाले सीक्वेंसेज भी बहुत ऐप्ट हैं. खासकर डॉक्टर सिद्धार्थ के घर के अंदर वाले कुछ दृश्यों में लाइट और कैमरे का नपातुला प्रयोग है. फिल्म में ज़्यादातर हैंडहेल्ड कैमरा यूज हुआ है. लंबे-लंबे शॉट्स लिए गए हैं. जो लोकेशन और सिचुएशन को और ज़्यादा रियल बनाते हैं. तुषारकांत जेना और अविनाश मिश्रा का साउन्ड डिज़ाइन मुझे बहुत पसंद आया. आंचलिक आवाज़ों को उन्होंने बहुत ढंग से साधा है. झींगुर से लेकर बैकग्राउन्ड में आती तमाम जानवरों की आवाज़ें बहुत वास्तविक लगती हैं. फोली का काम भी अच्छा है, पर और अच्छा हो सकता था. क्योंकि कई मौकों पर ये आप पकड़ सकते हैं कि ये आवाज़ें अलग से डाली गई हैं. संभव है ऐसा न भी हो, पर मुझे दरवाज़े खोलने के कई मौकों पर ऐसा लगा.
फिल्म को ओड़िया भाषा के स्टार बाबुशान मोहंती ने अपने कंधों पर उठाया है. वो सिद्धार्थ के मन की अकुलाहट अपने तन पर बहुत सहजता से लेकर आए हैं. रीजनल सिनेमा का रियलिज़्म उनके काम में दिखता है. रवि के रोल में दिपनवित दशमोहपात्रा ने एक सुलझे हुए अभिनेता के तौर पर काम किया है. कई मौकों पर वो मुझे बाबूशान पर भारी पड़ते नज़र आए. रवि की आंचलिक चुटिलता और संवेदनशीलता दिपनवित से बेहतर शायद ही कोई निभा पाता. बाक़ी सभी ऐक्टर्स ने भी अपने हिस्से का ठीक काम किया है.
कुलमिलाकर फिल्म स्लो और कई कम समय में खत्म किये जा सकते वाले लंबे सीक्वेंस के बावजूद अच्छी है. हिंदी में रिलीज़ हो गई है. नज़दीकी सिनेमाघरों में जाकर देख आइए.
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