एक दिन पहले ही जेडीयू के कार्यकर्ताओं ने बिहार में पार्टी हेडक्वार्टर समेत कई जगह पोस्टर लगाए. इन पर लिखा था- 'टाइगर अभी जिंदा है'. ये टाइगर कोई और नहीं, नीतीश कुमार हैं जो 10वीं बार बिहार के मुख्यमंत्री पद की शपथ लेने के लिए तैयार हैं. 2010 के चुनावी नतीजों को लगभग दोहराते हुए नीतीश के नेतृत्व में NDA सिर्फ बहुमत नहीं, 200 सीटों का आंकड़ा पार करता दिखाई दे रहा है.
बिहार में NDA की आंधी में उड़ा महागठबंधन, नीतीश कुमार की जीत की 5 वजहें जानें
कुछ महीने पहले तक बिहार में भारी ‘एंटी-इंकम्बेंसी’ पर ज़ोर दिया जा रहा था, नीतीश के शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य पर चिंता जताई जा रही थी और आपराधिक घटनाओं के सहारे 'नए जंगलराज' का नैरेटिव बनाया जा रहा था. लेकिन आज आए नतीजों ने सब उलट कर रख दिया.


कुछ महीने पहले तक बिहार में भारी ‘एंटी-इंकम्बेंसी’ पर ज़ोर दिया जा रहा था, नीतीश के शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य पर चिंता जताई जा रही थी और आपराधिक घटनाओं के सहारे 'नए जंगलराज' का नैरेटिव बनाया जा रहा था. लेकिन आज आए नतीजों ने सब उलट कर रख दिया. क्या हैं नीतीश और NDA की जीत की मुख्य वजहें, कैसे बीते कुछ महीनों में NDA ने जीत की राह प्रशस्त कर ली और महागठबंधन की पार्टियों को अगले पांच साल के लिए सत्ता से पूरी तरह दूर कर दिया, समझने की कोशिश करते हैं.
स्कीम्स के सहारे हवा बदलीबीते एक साल से भी कम समय में बिहार की नीतीश सरकार ने 20 से ज्यादा लाभकारी योजनाओं की घोषणा की. इनके जरिये सरकार ने समाज के हर तबके को कवर करने का प्रयास किया. ये योजनाएं महिलाएं, युवा, बुजुर्ग, विकलांग समेत लगभग सभी बिहारवासियों को सीधे लाभ पहुंचाने वाली थीं. मिसाल के लिए, 125 यूनिट फ्री बिजली ने पूरे बिहार को कवर किया. महिलाओं को रोज़गार के लिए 10 हजार रुपये देने की योजना ने इस चुनाव में सबसे ज्यादा चर्चा का विषय बनी. विधवा, वृद्ध और विकलांग पेंशन बढ़ाई गई. बेरोजगारी भत्ता देने का दायरा बढ़ाया गया. जीविका दीदियों को सस्ता लोन देने की घोषणा हुई. ऐसी तमाम योजनाएं नीतीश सरकार ने चुनावी साल में पेश कर दीं.
इस विधानसभा चुनाव में इस बात की चर्चा खूब रही कि नीतीश कुमार लगभग 20 साल तक सत्ता रहने की वजह से एंटी इंकम्बेंसी झेल रहे हैं. लेकिन बीजेपी-जेडीयू के गठबंधन ने जिस रणनीति से योजनाओं के ज़रिये वोटरों को साधने की कोशिश की उसका नतीजा मतगणना में साफ झलक रहा है.
यहां इस बात को रेखांकित करना जरूरी है कि इन योजनाओं के पीछे बीजेपी आलाकमान को भी उतना ही श्रेय दिया जाना चाहिए जितना नीतीश कुमार को.
द 'M' फैक्टर2016 में मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने बिहार में शराबबंदी लागू की. उन्होंने कहा कि शराब की वजह से महिलाएं परेशान हैं और घरेलू हिंसा का शिकार हैं. इस कदम की घोषणा और शराब की बिक्री और राजस्व के नुकसान पर नीतीश को खूब आलोचना झेलनी पड़ी. दिल्ली से बिहार जाने वाले लगभग हर पत्रकार ने एक स्टोरी इस बात पर जरूर की कि शराबबंदी के बाद भी बिहार में शराब बिक रही है. लेकिन लगभग 10 साल होने को हैं, नीतीश अपने फैसले पर टस से मस नहीं होते. और नीतीश के इस एक कदम ने महिलाओं के उनके पीछे लामबंद होने की शुरुआत कर दी थी.
लेकिन चुनावी साल में जिस तरह से नीतीश सरकार ने महिलाओं के लिए योजनाओं की झड़ी लगाई, उससे जीत की आधी पटकथा तय हो गई थी. चुनाव से ठीक पहले नीतीश सरकार ने 'मुख्यमंत्री महिला रोजगार योजना' का ऐलान किया. रिपोर्ट्स के मुताबिक 75 लाख महिलाओं को इस योजना के तहत 10 हजार रुपये दिए गए. कहा जा रहा है कि 10 हजार रुपये वाली इस स्कीम ने बड़े स्तर पर महिलाओं NDA के पक्ष में ला ख़ड़ा किया.
इसके अलावा जीविका दीदियों के लिए सस्ता लोन, सरकारी नौकरियों में महिलाओं को 35 फीसदी आरक्षण, पंचायतों और नगर निकायों में महिलाओं को 50 फीसदी आरक्षण, आंगनबाड़ी सेविकाओं का वेतन बढ़ाना, महिला केंद्रित वे योजनाएं हैं जिनके जरिये नीतीश कुमार ने आधी आबादी का भरोसा जीता.
इस चुनाव में इतिहास बनाते हुए बिहार की 71 फीसदी से ज्यादा महिला मतदाताओं ने वोटिंग की. जो पुरुष मतदाताओं के मुकाबले करीब 9 प्रतिशत ज्यादा है. यानी ये कहना गलत नहीं होगा कि बिहार की महिलाओं ने घर से निकलकर नीतीश कुमार को एक बार फिर मुख्यमंत्री बनाने के बीड़ा अपने कंधों पर उठाया.
बेदाग नीतीश कुमारइस चुनाव ने यह बात पक्की कर दी है कि मौजूदा दौर में बिहार में नीतीश कुमार से बड़ा कोई दूसरा नेता नहीं है. लालू युग का अंत हो चुका है. उन्होंने अपने बेटे तेजस्वी यादव को कमान सौंपी, बुरी तरफ फेल हुए. इस दफा नीतीश के NDA में शामिल होने के बाद से ये आरोप लग रहे थे कि बीजेपी उन्हें पद से हटा देगी और अपना मुख्यमंत्री बना देगी. लेकिन बीजेपी यह बात बाखूबी समझ रही थी कि नीतीश के बिना चुनाव जीतना आसान नहीं है. यही वजह है कि अमित शाह भले ही बीच-बीच में घुड़गी देते रहे हों, लेकिन चुनाव नीतीश के ही नेतृत्व में लड़ा गया और जीता गया.
इसकी एक और बड़ी वजह थी नीतीश की बेदाग छवि. पिछले दस साल में नीतीश कुमार ने 4 बार पलटी मारी. बावजूद इसके उनकी छवि पर एक भी दाग नहीं लगा. विरोधियों ने 'पलटूराम' भले ही कहा, लेकिन किसी भी खेमे ने उनकी निजी प्रतिष्ठा पर चोट करने की कोशिश नहीं की. यहां तक प्रशांत किशोर ने नीतीश की पार्टी के नेताओं पर तो खूब आरोप लगाए, लेकिन नीतीश को ‘बेदाग’ घोषित किया. दी लल्लनटॉप के इंटरव्यू में उन्होंने कहा कि नीतीश के साथ के लोग भ्रष्टाचारी हैं, लेकिन नीतीश कुमार नहीं.
बीच-बीच में नीतीश के शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य पर भी सवाल उठाए गए. तेजस्वी यादव की X टाइमलाइन पर नीतीश के स्वास्थ्य पर निशाने साधने वाली पोस्ट्स की झड़ी लगी हुई है. लेकिन इन आरोपों ने नीतीश की छवि को नुकसान कम पहुंचाया, सहानुभूति ज्यादा पैदा की. नतीजा, नीतीश एक बार फिर मुख्यमंत्री बनने जा रहे हैं.
जंगलराज का नैरेटिवएक तरफ लालू के मुख्यमंत्री काल को बिहार के सामाजिक उत्थान का दौर माना जाता है, दूसरी तरफ उसी समय को राज्य में अपराध का 'अराजक दौर' भी कहा जाता है. लालू के विरोधी इसे ‘जंगलराज’ बताते आए हैं. इस जंगलराज के नैरेटिव को बीजेपी और JDU 20 साल बाद भी भुनाने में सफल रही. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, अमित शाह, जेपी नड्डा समेत बिहार के तमाम नेताओं ने बिहार में जहां भी रैली कि 'जंगलराज' शब्द का बार-बार इस्तेमाल किया और दोहराया कि अगर महागठबंधन जीत गया तो बिहार में एक बार फिर 'जंगलराज'आ जाएगा.
दूसरी तरफ नीतीश कुमार की सुशासन बाबू की छवि पेश की गई. तेजस्वी यादव ने खूब नीतीश की इस छवि को तोड़ने की खूब कोशिश की. बीते महीनों में हुई आपराधिक घटनाओं पर खूब निशाना साधा. लेकिन सफल नहीं हुए. उल्टा NDA जंगलराज का डर दिखाने में कामयाब रहा.
जातियों को साधने वाला गठबंधन2020 में चिराग पासवान की पार्टी ने NDA से अलग होकर चुनाव लड़ा था. उन्होंने 134 सीटों पर चुनाव लड़ा. जेडीयू को भारी नुकसान हुआ. नीतीश की पार्टी 43 सीटों पर आ गई. दावा किया जाता है कि चिराग ने ऐसा बीजेपी के कहने पर किया था. ये बात जेडीयू के नेता भी दबी ज़बान में कह चुके हैं. लेकिन इस बार ऐसा नहीं हुआ. गठबंधन को साधकर चुनाव में लैंडस्लाइड जीत कैसे हासिल की जाती है, ये NDA से सीखने की जरूरत है.
NDA ने अलग-अलग पार्टियों के सहारे बिहार की अलग-अलग जातियों को भी साधा. बिहार में ब्राह्मण-बनिया-भूमिहार बीजेपी का वोटर माना जाता है. कुर्मी-कोइरी और अति पिछड़े नीतीश के कोर वोटर हैं. 5 प्रतिशत वाले पासवान और जाटव के अलावा अन्य अनुसूचित जातिओं के लिए चिराग पासवान आगे रहते हैं. माझी का वोटबैंक भले ही ना हो, लेकिन वो खुद को महादलितों का झंडाबरदार जरूर बताते हैं. ऐसे ही कुशवाहा समाज के लिए उपेंद्र कुशवाहा भी हैं.
इन सब पार्टियों का अलग-अलग वोटबैंक हैं या हिस्सेदारी है. लेकिन BJP और JDU के अलावा चिराग पासवान की LJP(RV), जीतन राम मांझी की HAM और उपेंद्र कुशवाहा की RLSP जब एक साथ NDA की छतरी तले आती हैं, तो नतीजा आज आए बिहार चुनाव के नतीजों जैसा होता है.
सीट बंटवारे में जो भसड़ महागठबंधन में मची थी, कुछ वैसा ही हाल NDA में भी था. चिराग के रूठने का एक पूरा दौर चला. सीटों के ऐलान के बाद भी मांझी और उपेंद्र कुशवाहा ने सार्वजनिक तौर पर नाराज़गी जाहिर की. लेकिन बीजेपी ने सबको मनाया. चिराग को मनाने के लिए गृह राज्य मंत्री नित्यानंद राय 24 घंटे में चार बार उनके घर गए. लेकिन यहां ईगो को किनारे रखकर चुनाव जीतने पर फोकस किया गया. सबको मनाया गया. नतीजे भी उनके पक्ष में आए.
इसके अलावा बीजेपी ने जिस तरह से अपनी पार्टी को अंतिम दौर में जमीन पर उतारा, उसे भी नज़रअंदाज नहीं किया जा सकता. केंद्रीय मंत्रियों से लेकर संगठन मंत्रियों तक ने बिहार में डेरा जमाया. बीजेपी ने हारते हुए हरियाणा को जिताने वाले प्रभारी सतीश पूनीया को भी बिहार भेजा. दूसरे राज्यों से आने वाले उनके जैसे तमाम संगठन के नेता और कार्यकर्ताओं ने बिहार की सड़कें नांपीं.
वरिष्ठ पत्रकार राजदीप सरदेसाई कहते हैं कि बिहार बीजेपी के प्रभारी विनोद तावड़े और चुनाव प्रभारी धर्मेंद्र प्रधान ने राज्य के गांव-गांव की धूल फांकी है. नतीजा- बीजेपी 90 से ज्यादा सीटों पर जीत की ओर बढ़ रही है.
वीडियो: नीतीश-बीजेपी पर खुल गईं बड़ी बातें, तेजस्वी यादव का गेम कहां पलट गया?












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