जिन अली रज़ा की पिछले दिनों मौत हुई, वो अवध के नवाब वाजिद अली शाह के आखिरी वंशज नहीं थे
क्या मीडिया ने हमें झूठ परोसा है?
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नवाब वाजिद अली शाह और उनकी पत्नी बेगम हजरत महल के वंशज होने का बहुत सारे लोगों ने दावा किया है.

शिकारगढ़ को ही मुलचा महल के नाम से जाना जाता है. ये वो जगह है जहां मुग़ल शासक शिकार के दौरान रूकते थे.
मुझे भी वहां कई जगहों पर लगे 'वॉर्निंग' वाले बोर्ड दिखे. इतना कुछ सुन और देखकर दिल्ली के मॉन्यूमेंट को एक्सप्लोर करने के अपने पैशन को मैंने अपने अंदर ही दबा लिया और ज़्यादा तहकीकात किए बगैर ही वापस लौट आई.
कुछ ही दिन बाद खबर आई कि शिकारगढ़ में रहने वाले आदमी जिसका नाम शहजादा अली रज़ा था, की डेथ हो गई है. उनकी बॉडी भी गलती से मिली थी. कई अखबारों ने दावा किया कि अवध के आखिरी नवाब की एकाकी मौत हुई है.मुलचा महल उनकी मां विलायत महल को दिया गया था. इससे पहले (1970) में वो अपने बेटा-बेटी (रज़ा-सकीना) और कुछ कुत्तों के साथ नई दिल्ली रेलवे स्टेशन के एक वेटिंग रूम में छुपकर रहती थीं.
उन्होंने प्रधानमंत्री राजीव गांधी द्वारा दिए गए DDA फ्लैट का ऑफर ठुकरा दिया था. उन्हें लगता था कि अवध के आखिरी नवाब वाज़िद अली शाह के वंशज होने के नाते ये चीज़ उनके परिवार की मर्यादा के खिलाफ थी. इसके बाद राजीव गांधी ने मजाक-मजाक में उन्हें मुलचा महल का ऑफर दिया और विलायत ने ये स्वीकार कर लिया.

राजीव गांधी ने बतौर प्रधानमंत्री विलायत महल को मुलचा महल सौंपा था.
वो वहां अपने बच्चों, कुत्तों और कुछ खानदानी चीज़ों के साथ रहने लगीं. बिना दरवाज़े-खिड़की वाले उस घर में बेसिक जरूरत की चीज़ें जैसे बिजली और पानी की व्यवस्था भी नहीं थी. ISRO वाले उन्हें अपने यहां से थोड़ा-बहुत पानी पहुंचा दिया करते थे.
1993 में उनकी मौत हो गई. मौत की वजह प्राकृतिक थी या उन्होंने आत्महत्या की थी, ये किसी को नहीं पता. कुछ सालों बाद उनकी बेटी सकीना भी चल बसी. ये बात सच है कि शहजादे अली रजा ने अपने आखिरी दिन अकेलेपन में काटे. मगर ये बात मैं दावे के साथ कह सकती हूं कि वो अवध के आखिरी जीवित शहजादे नहीं थे.
1856 में अंग्रेजों ने नवाब वाजिद अली शाह को अवध से देशनिकाला देकर कलकत्ते भेज दिया था. नवाब साहब अपने परिवार के कुछ सदस्यों और चार पत्नियों के साथ कलकत्ता चले गए. बाकी लोग अवध में ही रहे. इससे ये बात तो तय है कि उनके वंशज कलकत्ता और अवध दोनों ही जगह होंगे. लेकिन दिक्कत ये है कि जिन्हें नवाब वाजिद अली शाह के वंशज होने का दर्जा मिल चुका है वो लोग वंशज होने की बात कहने वालों के दावे को खारिज़ कर देते हैं. उनका तर्क ये है कि जो लोग नवाब के वंशज हैं उन्हें सरकार की ओर से एक तय रकम मिलती थी और उस लिस्ट में विलायत महल का नाम कहीं नहीं है.

नवाब वाजिद अली शाह को भारत का आखिरी नवाब माना जाता है.
1985 में प्रधानमंत्री को लिखे एक लेटर में नवाब और उनकी पत्नी बेगम हजरत महल की वंशज अंजुम कदर लिखती हैं, 'उनके सभी वंशजों को जो नवाब के परपोते-पोती हैं, को बंगाल सरकार की ओर से पेंशन और उत्तर प्रदेश सरकार की ओर से वजीफा मिलता है. इन पेंशनधारियों की जमात में बेगम विलायत महल का कहीं भी ज़िक्र नहीं है. 15 साल पहले जब उसने वंशज होने का दावा किया था तब लोगों को उसके बारे में पता चला.'
मैंने मंज़िलात फातिमा से बात की जो नवाब वाजिद अली शाह और बहादुर स्वतंत्रता सेनानी बेगम हजरत महल की परपोती हैं. हजरत महल 1857 में हुई आज़ादी की पहली लड़ाई की बहुत ही सफल लड़ाका थीं. उन्होंने इस लड़ाई के बाद अपने बेटे बिरजिस कदर को अवध का राजा घोषित कर दिया.
हाल ही में बेगम हजरत महल के ऊपर बनी एक फिल्म में कौकब कदर मिर्ज़ा कहते हैं, 'मुझे इस बात पर गर्व है कि मैं उस बेजोड़ महिला का परपोता हूं जिसने अपने घूंघट का पट खोल तलवार उठा लिए. उसके तलवार की खनखनाहट ने अवध में 1857 की क्रांति का जोश फूंक दिया था. जिसने खुद को दहकती आग के हवाले कर अपने जान की आहुती सिर्फ इसलिए दे दी थी ताकी भारतीय स्वतंत्रता संग्राम को एक नई दशा-दिशा मिल सके.'

बेगम हज़रत महल को 1857 की लड़ाई में उम्दा प्रदर्शन के लिए याद किया जाता है.
मैंने सोचा इस विषय में मंज़िलात से बात करना ही बेहतर रहेगा और उन्हें फोन किया. उन्होंने बताया:
'मुझे ये जानने के लिए अनगिनत फोन आ रहे हैं कि स्वर्गीय शहजादे का शाही खानदान से क्या ताल्लुक था. मुझे हास्यास्पद लगता है कि जो लोग अपनी ही गलतियों के बोझ तले जीते रहे और उसी में मर गए, आखिर किस तरह खुद को अवध के राजा और रानी का रिश्तेदार बता सकते हैं! मैं इस दावे से बिल्कुल भी सहमति नहीं रखती. बल्कि मैं तो अपने मरहूम बड़े अब्बा शहजादे अंजुम क़द्र (नवाब बिरजिस क़द्र से सबसे बड़े परपोते) के सम्मान में इसको चुनौती देना चाहूंगी. मैं अपने शाही खानदान की विरासत को ऊंचा करूंगी. मैं इस देश के दो सबसे ताकतवर खानदानों से आती हूं--अवध और मुग़ल--हालांकि मैं मुग़ल से ज्यादा अवध हूं.'

मंजिलात ने उन सभी के दावो को खारिज़ कर दिया जो खुद को अवध के नवाब का वंशज बताते हैं.
वो आगे बताती हैं कि उनके कई सारे वंशज कलकत्ता और लखनऊ में हैं जो लगातार एक-दूसरे से मिलते रहते हैं.
मंज़िलात के पिता कौकब मिर्ज़ा अलिगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी में प्रोफेसर थे. उन्होंने वाजिद अली शाह और उनकी विरासत पर दो किताबें भी लिखी हैं.
नवाबी कबाबी के लोकप्रिय इमेज के ठीक उलट वाजिद अली शाह और बेगम हजरत महल के वंशज सफल और जमीन से जुड़ी हुई ज़िंदगी जी रहे हैं. शायद यही वजह रही कि वो कभी मीडिया की नज़रों में नहीं आए. उन्होंने सारे पुराने स्टीरियोटाइप्स टोड़ दिए. उनके खानदान का कोई भी आदमी हीरा चाटकर नहीं मरा. उन्होंने अपनी खानदानी चीज़ें बेच कर अपना भरण-पोषण नहीं किया, ना ही राजा के लिबास में सड़को पर उतरे.
मंजिलात के पिता कौकब मिर्ज़ा प्रोफेसर थे. मंजिलात के बड़े भाई इरफान अली रेलवे की नौकरी से रिटायर हो गए हैं और छोटे भाई कामरान मिर्ज़ा हार्डवेयर इंजीनियरिंग कर अपना बिज़नेस चलाते हैं. उनकी बड़ी बहन तलत फातिमा धौलपुर के सरकारी लॉ कॉलेज की प्रिंसिपल रह चुकी हैं. उन्होंने 'साईबर क्राईम' नाम की एक किताब भी लिखी है जो साईबर लॉ पर लिखी गई पहली किताब है. उनकी दूसरी बहन सल्तनत फातिमा नोएडा में 'चॉकलेट एंड मोर' नाम की एक कंफेक्शनरी कंपनी चलाती हैं. मंजिलात की सबसे छोटी बहन रफत फातिमा कलकत्ता के एक सीनियर स्कूल में टीचर हैं.
मंज़िलात खुद एक केटरिंग बिज़नेस चलाती हैं जिसका नाम उनके ही नाम पर ही 'Manzilat's' है. वो अवध की सांसकृतिक विरासत को अपने काम और हंसोड़ व्यक्तित्व से संजो कर रखना चाहती हैं इसलिए उन्होंने अपनी टेकअवे (takeaway) सर्विस का नाम 'नवाबी कबाबी' रखा है. यहां पर बने गलौटी कबाब, परांठे, बिरयानी, हलीमऔर पसंदा जैसी डिशेज़ कलकत्ता में बहुत पसंद की जाती हैं.

मंज़िलात अपने यहां बनी डिश के साथ.
खुद को राजघराने का साबित करने के लिए आपको महलों में रहना और दिखावटी कपड़ो पहनना जरूरू नहीं है. आपने कितनी उनकी सभ्यता और मर्यादा के साथ नए तरह की रहन-सहन को अपनाया है ये इन चीज़ों को दिखाने के लिए काफी है. ये सब देखकर एक चीज़ तो तय है कि अवध के नवाबों की विरासत सुरक्षित हाथों है.
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