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गुजरात: इस कांग्रेसी मुख्यमंत्री ने पुलिस को ही गुंडागर्दी का लाइसेंस दे दिया था

एक रात पुलिस गुंडों की भीड़ लेकर आई और गुजरात के सबसे बड़े अखबार के दफ्तर पर धावा बोल दिया.

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राजीव गांधी के साथ माधव सिंह सोलंकी. सोलंकी के आरक्षण फॉर्म्युले के कारण कांग्रेस को ऐतिहासिक जीत मिली थी. मगर इस KHAM आरक्षण ने गुजरात की बैंड बजा दी.
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स्वाति
24 नवंबर 2017 (Updated: 24 नवंबर 2017, 10:52 AM IST) कॉमेंट्स
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इंदिरा गांधी ने इमरजेंसी लगाई थी. ये बात तो सब जानते हैं. मगर कांग्रेस के किसी नेता के हाथों लगाई गई ये इकलौती इमरजेंसी नहीं थी. पार्टी के एक मुख्यमंत्री ने भी ये काम किया था. सब कुछ खुलेआम हो रहा था. बिल्कुल इमरजेंसी जैसा माहौल था. मगर बिना इमरजेंसी की घोषणा किए. ऐलान किए बिना ही काम चल रहा हो तो ऐलान करने की जरूरत क्या है? ये वाकया गुजरात का है. खुलेआम गुंडागर्दी हो रही थी. पुलिस-प्रशासन सब मनमानी कर रहे थे. मगर सरकार चाहती थी कि कोई चूं भी न बोले. सवाल भी न पूछे. जो पूछने की हिम्मत करते, उनको कुचलने की कोशिश की जाती. ये दौर कांग्रेस के सिर का कलंक है. जब-जब कांग्रेस लोकतंत्र की बात करे, आजादी और प्रेस की स्वतंत्रता पर भाषण दे, तब-तब उसको ये वाकया याद दिला दिया जाना चाहिए.
इंदिरा गांधी के साथ माधव सिंह सोलंकी. सोलंकी गांधी परिवार के नजदीकी थे. दंगों के कारण जब राजीव पर उनका इस्तीफा लेने का दबाव बढ़ा, तब भी ये नजदीकी आड़े आ गई. राजीव ने खुद नहीं मांगा उनसे इस्तीफा. इशारों में बात कहलवाई.
इंदिरा गांधी के साथ माधव सिंह सोलंकी. सोलंकी गांधी परिवार के नजदीकी थे. दंगों के कारण जब राजीव पर उनका इस्तीफा लेने का दबाव बढ़ा, तब भी ये नजदीकी आड़े आ गई. राजीव ने खुद नहीं मांगा उनसे इस्तीफा. वी पी सिंह के मार्फत इशारों में बात कहलवाई.

गुंडों के मुखिया थे पुलिसवाले, खुलेआम हो रही थी गुंडागर्दी
ये 1985 की बात है. चैत्र का महीना था. तारीख थी 12 अप्रैल. जगह, गुजरात समाचार का दफ्तर. बहुत पुराना अखबार था ये. 1932 में छपना शुरू हुआ था. गुजराती भाषा में छपता था. गुजरात का सबसे बड़ा और ताकतवर अखबार था. उन दिनों गुजरात की हालत खराब थी. माधव सिंह सोलंकी की सरकार ने नई आरक्षण नीति लागू कर दी थी. पिछड़ा वर्ग के लिए आरक्षण 10 से बढ़ाकर 28 फीसदी कर दिया गया. 82 की जगह कुल 140 के करीब जातियां इस आरक्षण के दायरे में लाई गईं. चुनावी फायदे के लिए जाति को भुनाया गया. पूरे राज्य को हिंसा में झोंक दिया गया. इस आरक्षण नीति का खूब विरोध हो रहा था. दंगे. लड़ाई-फसाद. बहुत खराब स्थिति थी.
फरवरी 1985 से अक्टूबर 1986 तक गुजरात खौलता रहा. 'गुजरात समाचार' लगातार CM सोलंकी की आरक्षण नीति के खिलाफ लिख रहा था. बहुत सख्त. बहुत बेबाक. उस रात, यानी 12 अप्रैल की रात, अखबार को अपनी बेबाकी की कीमत चुकानी पड़ी. एक भीड़ घुस गई उसके अहाते में. सब तोड़-फोड़ दिया. सबसे घिनौनी बात ये थी कि इस भीड़ के मुखिया पुलिसवाले थे. वो पुलिस ही थी, जो भीड़ को अपने साथ लेकर आई थी. अखबार का कसूर क्या था? एक 'गुनाह' तो ये कि वो मुख्यमंत्री की नीतियों का विरोध कर रहा था. और दूसरा 'गुनाह' ये कि उसने पुलिस की ज्यादतियों की तस्वीर छाप दी थी. जब ये सब हो रहा था, तब गुजरात में सरकार थी कांग्रेस की. सोलंकी सरकार और गुजरात सरकार की बेशर्मी इतने पर ही खत्म नहीं हुई. घटना के दस दिन बाद, 22 अप्रैल को अखबार ने अपने एक आदमी को FIR लिखवाने के लिए थाने भेजा. थाने में पुलिसवालों ने उसे पीटा और बिना रिपोर्ट दर्ज किए उसे वापस भेज दिया. जब पुलिस ही गुंडागर्दी करे तो बचाएगा कौन?
ये मार्च 1985 की तस्वीर है. राजीव गांधी अहमदाबाद के दंगा प्रभावित इलाकों का दौरा करने गए थे. उन्होंने लोगों से शांति बनाए रखने की अपील की. अपील बेअसर रही. हिंसा जारी रही.
ये मार्च 1985 की तस्वीर है. राजीव गांधी अहमदाबाद के दंगा प्रभावित इलाकों का दौरा करने गए थे. उन्होंने लोगों से शांति बनाए रखने की अपील की. अपील बेअसर रही. हिंसा जारी रही.

सोलंकी सरकार के मुंह पर तमाचा जड़ा था अखबार ने
12 अप्रैल की रात पुलिस और उसके गुंडों ने मिलकर 'गुजरात समाचार' के दफ्तर और प्रिंटिंग प्रेस को तहस-नहस कर दिया था. ऐसा लगा कि कई महीने बाद ही अब दोबारा अखबार छप पाएगा. मगर गुजरात समाचार ने जिद ठान ली. कहा, जो भी हो जाए लेकिन अखबार बंद नहीं होगा. ऐसा ही हुआ. आठ मई को अखबार दोबारा छपकर आ गया. पहले जहां 12 पन्नों का पेपर निकलता था, वहां इस बार बस आठ पन्नों का ही निकला. पहले ज्यादा प्रतियां निकलती थीं. करीब तीन लाख के करीब. मगर प्रिटिंग मशीन टूट जाने के कारण बहुत कम प्रतियां निकल पाईं. इतना सब कुछ हुआ, लेकिन 'गुजरात समाचार' के तेवर कम नहीं हुए. उसने उसी शिद्दत के साथ माधव सिंह सोलंकी सरकार का विरोध करना जारी रखा.
अखबारों में संपादकीय अंदर के पन्नों पर होता है. अधिकतर, पेपर के बीचोबीच. मगर 8 मई, 1985 को गुजरात समाचार ने पहले पन्ने पर संपादकीय निकाला. लिखा, हम जो करते आए हैं वो करते रहेंगे. ये एक तरह से सोलंकी सरकार के मुंह पर तमाचा जड़ा था पेपर ने. लोकतंत्र का तमाचा. प्रेस की आजादी. इंदिरा गांधी की इमरजेंसी का एक किस्सा मशहूर है. तब अखबारों को इजाज़त लेकर खबर छापनी होती थी. क्या छप रहा है, ये पहले सरकार देखती थी. ज्यादातर अखबारों ने घुटने टेक दिए थे. मगर कुछ अखबारों ने हिम्मत नहीं हारी. इनमें से ही एक था इंडियन एक्सप्रेस. उसने विरोध के तौर पर संपादकीय की जगह खाली छोड़ दी थी. अभी त्रिपुरा में एक पत्रकार की हत्या हुई. वहां भी विरोध जताने के लिए अखबार यही कर रहे हैं.
इंडियन एक्सप्रेस को भी दी गई थी धमकी
'गुजरात समाचार' के अहाते में एक छोटे से अंग्रेजी अखबार 'वेस्टर्न टाइम्स' का भी दफ्तर था. वो भी पूरा तबाह हो गया. इसके कर्मचारियों को कई दिन तक तिरपाल के नीचे बैठकर काम करना पड़ा. इंडियन एक्सप्रेस और जनसत्ता को भी धमकाया गया था. ये दोनों भी लगातार सरकार की करतूतों का खुलासा कर रहे थे. धमकियों के बावजूद. बिना डरे. फिर दंगा इतना भड़का कि सेना को बुलाना पड़ा. शायद इसी वजह से इंडियन एक्सप्रेस बच गया. वरना उसके साथ भी शायद 'गुजरात समाचार' जैसा ही सुलूक किया जाता. उस वक्त इंडियन एक्सप्रेस के संपादक थे मशहूर पत्रकार जॉर्ज वर्गीज. वो एडिटर्स गिल्ड के भी अध्यक्ष थे. 'गुजरात समाचार' पर हुए हमले के बाद उन्होंने कहा:
मीडिया के काम को सबके मामले में जबरन नाक घुसाने वाले लोगों की तरह नहीं देखा जा सकता है. किसी भी सभ्य और तमीजदार समाज में मीडिया की अपनी एक जिम्मेदारी होती है. बहुत बड़ी भूमिका होती है प्रेस की. प्रेस के काम को तवज्जो दी जानी चाहिए, न कि दबाने की कोशिश की जानी चाहिए.
80 के दशक में जो पाटीदार आरक्षण का विरोध करने सड़कों पर उतरे थे, वो 2015 में आरक्षण की मांग मनवाने के लिए सड़क पर उतर आए.
80 के दशक में जो पाटीदार आरक्षण का विरोध करने सड़कों पर उतरे थे, वो 2015 में आरक्षण की मांग मनवाने के लिए सड़क पर उतर आए.

कांग्रेस को अपना ये शर्मनाक अतीत याद रखना चाहिए
गुजरात में चुनाव होने वाले हैं. बाकी पार्टियों की तरह कांग्रेस भी अपने लिए वोट मांग रही है. ऐसे में कांग्रेस के नेताओं को अपना ये शर्मनाक अतीत याद कर लेना चाहिए. ऐसा नहीं कि बस गुजरात समाचार का दफ्तर और प्रेस तोड़ा गया हो. उसके मालिकों और कर्मचारियों को जान से मारने की धमकी भी दी जा रही थी. जिस फोटोग्राफर ने पुलिस बर्बरता की तस्वीरें खिंची थीं, वो डरकर अंडरग्राउंड हो गया था. 'गुजरात समाचार' के एक पत्रकार देवेंद्र पटेल को इतनी धमकियां मिलीं कि उन्होंने अपने परिवार को कहीं दूर भेज दिया. तीन हफ्तों तक अपने ही घर में घुसने की हिम्मत नहीं कर सके वो. कर्मचारी नाइट शिफ्ट करने से डर रहे थे.
जिस समय पुलिस की अगुवाई में भीड़ ने हमला किया, उस समय करीब 40 कर्मचारी दफ्तर में मौजूद थे. जिसे जहां जगह मिली, वो वहां छिप गया. सबको अपनी जान का डर सता रहा था. कांग्रेस सरकार का कहना था कि गुजरात समाचार ने उसके बारे में जो खबर छापी है, वो गलत है. इसके जवाब में अखबार की संपादकर स्मृति शाह अपने पति श्रेयांश शाह के साथ दिल्ली आईं. राजीव गांधी से मिलने. उन्होंने राजीव से कहा:
हमारी रिपोर्ट की स्वतंत्र जांच करवाई जाए. अगर हमारी खबर और उसमें दिए गए तथ्य गलत पाए जाते हैं तो हमें दिल्ली के विजय चौक पर सरेआम फांसी दे दी जाए.
सत्ता का एक खास चरित्र होता है. सत्ता में पहुंचने पर विनम्रता उड़ जाती है. बीजेपी हो या कांग्रेस, विपक्ष में रहने वाली पार्टी लोकतंत्र की दुहाई देती है. वहीं, सत्ता में पहुंचते ही उनके तेवर बदल जाते हैं.
सत्ता का एक खास चरित्र होता है. सत्ता में पहुंचने पर विनम्रता उड़ जाती है. बीजेपी हो या कांग्रेस, विपक्ष में रहने वाली पार्टी लोकतंत्र की दुहाई देती है. वहीं, सत्ता में पहुंचते ही उनके तेवर बदल जाते हैं.

अखबार पर हमला करने का कोई बचाव नहीं हो सकता
हालांकि इससे पहले भी 'गुजरात समाचार' पर गलत तथ्य देने का आरोप लगा था. 1981 में एडिटर्स गिल्ड ने उसे चेतावनी भी दी थी. मगर 12 अप्रैल को जो घटना हुई, उसका कोई बचाव नहीं हो सकता. अखबार गलत करे तो उसकी जांच होनी चाहिए थी. दोषी पाए जाने पर सरकार उसके खिलाफ प्रेस काउंसिल में शिकायत कर सकती थी. गलत खबर छापकर माहौल खराब करने के आरोप में गुजरात समाचार पर आपराधिक मामला दर्ज करवाया जा सकता था. मगर पुलिस ऐसी गुंडागर्दी दिखाते हुए तोड़-फोड़ करे? रिपोर्ट न दर्ज की जाए? सरकार संज्ञान न ले? धमकियां दी जाएं? ये सब लोकतंत्र के लिए कलंक है. अब का दौर देखिए. असली खबरों से ज्यादा फर्जी खबरें तैरती हैं. पता ही नहीं चलता कि सही क्या है और फर्जी क्या है. इतना कुछ होता है, मगर दोषियों पर कोई कार्रवाई नहीं होती. यहां तक कि नेता और पार्टियां भी फर्जी खबरें शेयर करते हैं.
पत्रकारों की जमात भी सरकारी भाषा बोल रही थी
खैर. एक और शर्मनाक बात हुई थी तब. ऑल-इंडिया न्यूजपेपर एडिटर्स कॉन्फ्रेंस (AINEC) पत्रकारों का एक संगठन है. प्रेस और पत्रकारों की आजादी सुनिश्चित करने का दायित्व है इसका. आप इसकी वेबसाइट पर जाएंगे तो पहली लाइन मिलेगी:
आजाद समाज के अंदर ही आजाद प्रेस फल-फूल सकता है.
पाटीदार आंदोलन को दोबारा हवा देने का श्रेय हार्दिक पटेल को जाता है. आज भले ही उनके ज्यादातर साथी उनका साथ छोड़कर चले गए हों, मगर हार्दिक अब भी पाटीदारों का सबसे बड़ा चेहरा हैं.
पाटीदार आंदोलन को दोबारा हवा देने का श्रेय हार्दिक पटेल को जाता है. आज भले ही उनके ज्यादातर साथी उनका साथ छोड़कर चले गए हों, मगर हार्दिक अब भी पाटीदारों का सबसे बड़ा चेहरा हैं.

इतनी बड़ी और आदर्श बात लिखने वाले इस AINEC ने 'गुजरात समाचार' पर हुए हमले के बाद पता है क्या किया था? उसने सारा ठीकरा अखबार पर फोड़ा. कहा कि पुलिस की ज्यादतियों पर भड़काऊ रिपोर्ट करने के कारण ये घटना हुई. यानी, जो पीड़ित है उसको ही दोषी कह दिया. AINEC की जांच समिति में तीन सदस्य थे. एक थे तेज ग्रुप के विश्वबंधु गुप्ता. दूसरे, अमृत बाजार पत्रिका के तुषार कांति घोष. तीसरे, हिंदुस्तान टाइम्स ग्रुप के के.के. बिड़ला. दूसरी तरफ, नेशनल यूनियन ऑफ जर्नलिस्ट्स (NUJ) ने 'गुजरात समाचार' का साथ दिया. कहा,
अगर किसी घटना की सच्चाई न बताई जाए तो प्रेस चलाने का मतलब ही क्या है? अगर पुलिस ने ज्यादतियां न की होतीं तो प्रेस उसकी खबर नहीं करता. गुजरात समाचार ने जो खबर छापी, उसमें कुछ गलत नहीं था.
दंगों के कारण सोलंकी को देना पड़ा इस्तीफा
आरक्षण के खिलाफ शुरू हुआ ये आंदोलन सांप्रदायिक दंगों में तब्दील हो गया था. सरकारी आंकड़ों के मुताबिक कुल 182 लोग इन दंगों में मारे गए. असली संख्या इनसे कहीं ज्यादा है. मार्च 1985 में शुरू हुए ये दंगे अक्टूबर 1986 तक चलते रहे. गुजरात के बेकाबू हालात के कारण केंद्र सरकार की भी घिग्घी बंधी हुई थी. 1984 में सिख दंगा हो चुका था. अब ये दूसरा दंगा. इन्हीं कारणों से जुलाई 1985 में सोलंकी को इस्तीफा देना पड़ा.


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