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'मैं शायद कल कोर्ट मार्शल देखने भी न आऊं, इट्स क्रुअल, रियली क्रुअल'

स्वदेश दीपक के बहुचर्चित नाटक 'कोर्ट-मार्शल' के प्रथम मंचन से पहले और उस दौरान के संस्मरण

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दर्पण
28 दिसंबर 2017 (Updated: 28 दिसंबर 2017, 07:14 AM IST) कॉमेंट्स
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ये सर-रियल था. बहुत सर-रियल. 
2 जून, 2006 - गर्मियों की एक सुबह एक लेखक सैर के लिए निकलता है और फिर कभी वापस नहीं आता. इस लेखक के बारे में कहा जाता है कि वो इससे पहले भी लंबे समय तक (1991 से 1997 तक) डिप्रेशन का शिकार रहा था. ग्यारह वर्ष से अधिक हो चुके हैं, लेखक की अभी तक तलाश की जा रही है. लेखक का नाम - स्वदेश दीपक.
स्वदेश दीपक. जिनके नाटक, कहानियों और उपन्यास के बारे में कहा जाता है कि वो हत्या और आत्महत्या के बिना पूरी ही नहीं हो सकती थीं. बंदूक हर अभिनेता की जेब में होनी ही होनी थी. मतलब, अनुराग कश्यप जिस विधा के निर्देशक हैं, लगभग उसी विधा के कहानीकार/नाटककार कहे जा सकते हैं स्वदेश दीपक. इस तरह की कहानियों का बीज तो उनके ज़ेहन में तभी पड़ गया था जब पार्टिशन के दौरान उन्होंने अपने पिता और उनके कुछ दोस्तों को लगातार 7 दिन और रात के लिए लुटेरों से लड़ते देखा. सबके पास बंदूके और असलहे थे. तब स्वदेश दीपक की उम्र कुल 4-5 वर्ष ही रही होगी.
उन्हीं स्वदेश दीपक के तीन नाटकों का संग्रह जग्गरनॉट प्रकाशन ने निकाला है - कोर्ट मार्शल और अन्य नाटक
,
जिसमें सम्मिलित तीन नाटक क्रमशः - 'कोर्ट मार्शल','नाटक बाल भगवान - धार्मिक पाखंड के खिलाफ़ एक आवाज़' और 'सबसे उदास कविता' हैं.
6 अगस्त 1942 को जन्मे स्वदेश दीपक द्वारा लिखित नाटक,'कोर्ट मार्शल' उनका प्रतिनिधि नाटक कहा जा सकता है. अरविन्द गौड़ इस नाटक की लगभग पांच सौ से भी ज़्यादा प्रस्तुतियां दे चुके हैं. 'कोर्ट मार्शल' के सबसे पहले निर्देशक होने का श्रेय रंजीत को जाता है. रंजित, पियूष मिश्रा और नाटक के प्रथम मंचन के दौरान जिन जिन लोगों से स्वदेश दीपक का मिलना हुआ और पूरे घटनाक्रम का अत्यंत रोचक ब्यौरा हम आपको यहां पढ़वा रहे हैं. इसे खुद स्वदेश दीपक ने लिखा है, और यह ऊपर बताई गई पुस्तक, 'कोर्ट मार्शल और अन्य नाटक' का एक एक्सर्पट (अंश) है. इस नाटक का यह पहला मंचन 1 जनवरी, 1991 को श्रीराम सेंटर, नई दिल्ली में हुआ था.

'कोर्ट मार्शल' का प्रथम मंचन

अक्टूबर, ’90 के तीसरे हफ्ते, साहित्य कला परिषद, दिल्ली के सचिव सुरेन्द्र माथुर का पत्र प्राप्त हुआ. नाटक, 'कोर्ट मार्शल' का प्रथम मंचन रंजीत कपूर के निर्देशन में करने का निर्णय परिषद ने किया है. रंजीत मुझसे बातचीत करना चाहते हैं. दिल्ली पहुंच जाऊं.
रंजीत के नाम-ख्याति से परिचय तो है, लेकिन उसका काम देखने का अवसर आज तक न मिला था. किसी अपरिचित से मिलने, पहली बार साथ-साथ काम करने का तनाव तो था, कहीं एक हौसला देनेवाला सुख-संतोष भी कि लीक से हटकर काम करनेवाला रंजीत भयावह-क्रूर नाटक, 'कोर्ट मार्शल' का मंचन करेगा. दिल्ली पहुंचा.
रंजीत से मुलाकात बैकेट के किसी नाटक के दृश्य जैसी रही. परिषद के स्वागत-कक्ष में प्रवेश किया. कुर्ता-जींसधारी कोई आदमी कुर्सी पर बैठा कुछ पढ़ता हुआ. पास बैठ गया. कुछ देर बाद कोई सांझा परिचित अंदर आया. हम दोनों को अपने-अपने सोच-संसार में गुम देखा और परिचय करवाया – आप दोनों जानते नहीं एक-दूसरे को! आप स्वदेश दीपक. आप रंजीत कपूर. शायद इस एब्सर्ड दृश्य ने हम दोनों के बीच एक डोर बांध दी.
'कोर्ट मार्शल' के बारे में पहली बातचीत रंजीत के घर हुई. मुझे साफ-सही महसूस हुआ कि खुलने में वह कहीं झिझक रहा है. बताया कि 'कोर्ट मार्शल' का आलेख पढ़ने के लिए डॉ. जयदेव तनेजा ने दिया था. निर्णायकों का मत था कि इस नाटक के मंचन के लिए रंजीत ही बिल्कुल उपयुक्त निर्देशक हो सकता है. तब तक न डॉ. तनेजा और न ही रंजीत को इल्म था कि इस नाटक का लेखक मैं हूं. रंजीत को नाटक का विषय बहुत रेलेवेंट और चैलेंज देनेवाला लगा. जब सुरेन्द्र माथुर से कहा कि लेखक से मिलना चाहेगा, तब मालूम हुआ उसे कि नाटक स्वदेश दीपक का है. शायद कुछ लोगों से बात की होगी. दोस्तों (मेरे भी) ने डराया कि स्वदेश दीपक तो एकदम कठिन आदमी है, उसके साथ काम करना! वगैरह-वगैरह.
स्वदेश दीपक
स्वदेश दीपक
रंजीत ने यह तथ्य बताया तो अंग्रेज़ी का एक वाक्य याद आया – गॉड सेव मी फ्रॉम माई फ्रैंड्ज़. आई कैन डील विद माई एनिमीज़ माई-सैल्फ़. (ईश्वर मुझे मेरे दोस्तों से बचाना, दुश्मनों से तो मैं ख़ुद निपट लूंगा.)
मेरे यह कहने पर कि समझदार सुझाव साथ-साथ काम करने की हमेशा पहली शर्त होती है, वह थोड़ा ‘मुक्त’ हुआ. बताया कि वह हिंदी के पहले मौलिक नाटक का निर्देशन करने जा रहा है. आज तक जितने नाटक मंचित किए हैं, एडाप्टेशंज़ थे. हैरान हुआ. उसने वजह बताई. टी.वी. सीरियल के प्रचार-रथ पर सवार एक ‘प्रतिबद्ध’ लेखक ने उसे अरसा पहले नाटक दिया था, मंचित करने के लिए. उसने हां कह-कर दी. फिर उसे बिन-बताए वही नाटक एक अपने जैसे ‘प्रतिबद्ध’ निर्देशक को दे दिया. इस अनैतिक अनुभव के बाद रंजीत ने हिंदी नाटक का निर्देशन-मंचन किया ही नहीं. कागज़ों से उठाकर मंच तक ले जाने की यात्र में लेखक-निर्देशक का ईमानदार साथ सबसे पहली ज़रूरत होती है नाट्य-जगत की.
'कोर्ट मार्शल' का सबसे सशक्त हिस्सा रंजीत के लिए था – विषय की ताकत, जिसे मिथ के संबल-सहारे की ज़रूरत नहीं पड़ी. उसके मुताबिक किसी मिथक अथवा इतिहास से पात्र उठाकर नाटक लिखना सबसे आसान है. चाहे वह मिथ हमारे काल से जुड़े, न जुड़े. सही कहा. हमारे यहां यूजीन ओनील कहां, जो ग्रीक मिथ उठाए और पूरा का पूरा उतार दे उन्नीसवीं सदी के अमेरिकन समाज पर – मार्निंग बिकम्ज़ एलेक्ट्रा. हिंदी के दुर्भाग्य के अलावा क्या कहा जाए कि सबसे लंबी लिस्ट मिथ-मांगे नाटकों की ही है. मैंने छेड़ा – महाभारत से मिथ उठाकर लिखने की ‘लेखन इंडस्ट्री’ खुल चुकी है – उपन्यास, काव्य और टेली-सीरियल भी!
मेरे नाटक में खिड़कियों के इस्तेमाल को लेकर रंजीत असंतुष्ट-परेशान था. बताया कि खिड़कियां न केवल प्रतीक हैं सच के खुलने का, ग्रीक-कोरस की सीमाओं को तोड़ने की कोशिश भी – कथा-क्रिया पर कमेंटरी नहीं, झूठ जो घट रहा है उस पर आक्रोश. रंजीत की ज़िद थी कि इस नाटक को किसी प्रतीक, किसी स्टाइलिस्टिक सहारे की ज़रूरत नहीं है. इससे दर्शक का ध्यान मूल मुद्दे से हट जाने का खतरा बना रहेगा. मैं पूरा का पूरा नहीं माना, लेकिन उसे छूट दे दी अपने पटियाला के दरवेश-दोस्त लालीजी का गुरु-वाक्य बताकर – निर्देशक के हाथ में जब नाटक पहुंच जाए तो लेखक को ‘मर’ जाना चाहिए. 'कोर्ट मार्शल' के मंचन की तारीख 1 जनवरी, 1991 तय हुई. रिहर्सल शुरू हुई दिसंबर, ’90 के आखिरी हफ्ते में. दोबारा दिल्ली पहुंचा. हरि कश्यप कर्नल सूरत सिंह के रोल की प्रॉक्सी कर रहा था. रंजीत ने बताया कि एस.एम. ज़हीर यह रोल करेंगे. बंबई हैं किसी फिल्म की शूटिंग के सिलसिले में, 28 दिसंबर तक लौट आएंगे. तब आ गई जहीर भाई की तार, शूटिंग देर से शुरू हुई, देर से खत्म होगी, नहीं पहुंच पाएंगे. तब पहले मंचन से मात्र 4 दिन पहले यह रोल दिया गया पीयूष मिश्रा को.
पीयूष मिश्रा दी लल्लनटॉप के अड्डे पर (सांकेतिक चित्र)
पीयूष मिश्रा दी लल्लनटॉप के अड्डे पर (सांकेतिक चित्र)
दरम्याने कद-काठ के पीयूष मिश्रा को देखा. निभा पाएगा कड़ियल मर्द सूरत सिंह का रोल? फिर देखी उसकी आंखों में एक ठंडी घातक चमक. उसने एकालाप किया – शब्द स-शरीर होने शुरू होने. हां, कर लेगा पीयूष अपना कायाकल्प मंच पर.
31 दिसंबर. केंद्रीय पात्र कातिल रामचंदर पर सबसे बड़ा प्रतिबंध कि उसके पास अपने बचाव में बोलने को एक भी संवाद नहीं. और मात्र एक छोटे-से दृश्य से उसे बदलनी है दर्शकों की सहानुभूति-धारा और जघन्य अपराध-हत्या को बिल्कुल नया मोड़ देना है. गवाही के समय अनुशासित रुदन. अनिल चौधरी रोया. रंजीत ने समझाया कि किसी घायल जानवर की तरह रोना है, आदमी की तरह नहीं, जैसा कि नाटक के आलेख में लेखक ने बताया है. अनिल का रोना बीच में टूट जाता था. बच्चा जब रो रहा हो तो मां के उठाने पर एकदम चुप नहीं होता, और ज़ोर से रोना शुरू कर देता है, रंजीत ने सलाह दी. अनिल शायद इस मनोवैज्ञानिक तथ्य को समझा नहीं. रंजीत उठा. दरवाज़े के पास गया. तभी मधुमालती रिहर्सल के कमरे में आई. वहां की विस्फोटक शांति को उसने महसूसा, दबे पांव चली, मेरे नज़दीक बैठ गई. “कभी सुना है रात के अंधेरे में कुत्ते को लगातार रोते?” रंजीत ने पूछा. अनिल चुप. हम सब चुप. और दरवाज़े के पास खड़े रंजीत ने रोना शुरू किया. पहले गले से निकली आवाज़, फिर नीचे सरकी और घायल हो चुकी आत्मा ने किया लंबा-काला आर्तनाद. हम सबने, कमने में रखी मेज़-कुर्सियों ने सांस लेनी बंद कर दी. रंजीत चुप हुआ. अनिल से यह दृश्य करने के लिए कहा. उसने बताया कि पिछले एक घंटे से इस दृश्य को लगातार करते हुए गला बिल्कुल सूख चुका है. अब तो शायद आवाज़ ही न निकले. रंजीत ने क्षण-भर उसे देखा, उसकी शारीरिक सीमाओं को समझा, हौसला दिया – रो अनिल, रो. तुम्हें किसने कहा गले से रोने के लिए. तुम्हारे हत्यारे होने का गुनाह बख्शेगा, तुम्हारा रोना. रोकर बदल दो इस हत्या को सामाजिक वध में.
कोर्ट मार्शल की सफलता का अंदाज़ा इसी बात से लगाया जा सकता है कि इसका नाट्य मंचन सैकड़ों नहीं हज़ारों बार और देश-विदेश में हो चुका है
'कोर्ट मार्शल' की सफलता का अंदाज़ा इसी बात से लगाया जा सकता है कि इसका नाट्य मंचन सैकड़ों नहीं हज़ारों बार और देश-विदेश में हो चुका है (फ़ोटो साभार - डेल्ही इवेंट्स डॉट कॉम)

अनिल ने लंबी सांस ली. हिचकी आवाज़ में बदली. जैसे-जैसे वह नीचे झुका वैसे-वैसे आवाज़ की प्रबलता बड़ी. आवाज़ गले से नहीं, पेट के गढ़े से निकलनी शुरू हो गई. वह बैठा. सचमुच के आंसुओं से उसके मुंह के नीचे के फर्श का हिस्सा गीला हो गया. शायद हम सब भी इसके बाद रोए. कुछ खुलकर, कुछ जुकाम का बहाना बना रूमाल से मुंह पोंछकर.
मधुमालती झटके से उठी, ठहरी. मेरे पूछने पर कि क्या जा रही है, बताया – बहुत रो चुकी हूं. घर में रंजीत साहब जब इस दृश्य का संयोजन-रिहर्सल करते हैं, गई रात तक, तब भी रोना रोके नहीं रुकता. मैं शायद कल नाटक देखने भी न आऊं. इट्स क्रुअल, रियली क्रुअल.
हां, इस क्रुअल नाटक (थिएटर ऑफ क्रुअल्टी नहीं) की क्रूरता को करुण रस में बदलने का जादू शायद रंजीत कपूर ही कर सकता था. अत्याचारी वातावरण को मानवीय संवेगों में अनुवादित कर देने की क्षमता. यह दृश्य रंजीत का है, मेरा नहीं, बित्कुल नहीं. इस दृश्य के बाद बाकी बचे हिस्से की रिहर्सल करने का किसी का भी मन नहीं था.
रंजीत ने 1 जनवरी को सवेरे दस बजे पहुंचने के लिए सब कलाकारों को कहा. किसी एक ने बताया – आज तो नए साल के जश्न की रात है. सारी दिल्ली रंगीन होगी. सवेरे दस बजे कैसे पहुंचेंगे. रंजीत ने छेड़ा – रात जितनी भी रंगीन होगी सुबह उतनी ही संगीन होगी. कल मना लेना नया साल, चाहे खुशी में, चाहे ग़म में. क्योंकि 'कोर्ट मार्शल' या तो भयानक असफल होगा या भरपूर सफल. दोनों हालात में जश्न मना लेना. हम सब नीचे सड़क पर आए. गलियारे सुनसान. इस सन्ना चुकी रात में दिसंबर की निर्दय हवा धड़धड़ाकर चलती हुई. सड़क खाली. रंजीत ने मेरी तरफ देखा. बिन-बांहों का स्वेटर देखा – आपको गरम कपड़े साथ लाने चाहिए थे. उसे मेरी इस खानाबदोशी का पता नहीं कि ठहरता कहीं और हूं और सोता कहीं और. इसलिए कपड़े होते हुए भी नहीं होते.
अरविंद जैन पहुंचा. स्कूटर पर. साथ ले जाने के लिए. अपनी उकाबी आंखें पूरी की पूरी खोलीं. मुझे देखा, कागज़ी-से पैहरन को देखा, पहली बार गुस्सा खाया मुझ पर – भाई साहब, नाटक का रामचंदर मरे, न मरे, आपको ज़रूर कुछ हो जाएगा. अगर बीमार पड़ गए तो अंबाला जाकर गीता भाभी को क्या जवाब दूंगा. कोट तो लाए थे न. पहना क्यों नहीं? रिहर्सल-कमरे का तनाव सड़क पर मेरे साथ-साथ नीचे आया था. जलकर जवाब दिया – आई हेट दैट ब्लडी कोट. अरविंद मेरे दंतकथा-क्रोध से वाकिफ है – जानता है दिसंबर की हवा से भी भिड़ जाऊंगा.
रंजीत ने सलाह दी – तिपहिया कर लें. स्कूटर पर सर्दी लग जाएगी.
“देखते जाओ रंजीत भाई! अभी लेता हूं स्टे सर्दी के खिलाफ!” उसने जादूपिटारी स्कूटर-डिक्की खोली, बंदर टोपी निकाली, पूरी खोलकर मुझे सिर से गले तक ओढ़ा दी. संतुष्ट नहीं हुआ. चमड़े के दस्ताने उतारे, मेरे हाथों में पहनाए, “अब बैठ जाएं पीछे. कुछ नहीं होने का.”
अगली सुबह राजेंद्र कौल से मुलाकात हुई, मेरा बहुत प्यारा दोस्त और सबसे सख्त आलोचक. मेरा सकपकाया चेहरा देख कारण पूछा.
– पता नहीं आज शाम पहला मंचन...
– डोंट बी स्टूपिड. ठीक होगा. बिल्कुल ठीक. तुमने रंजीत के नाटक नहीं देखे. मैंने देखे हैं. हीज़ ए डायरेक्टर विद गोल्डन टच. वैसे तुम ट्रैंक्विलाईज़र खा लो. कहीं शाम तक अस्पताल में...
लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ. मेरे सारे डर निराधार निकले.



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