'जौन! एक लड़की के दिल को दुखा कर तुम बड़े आराम से हो'
ये समय कंट्राडिक्शन से भरा हुआ है और जौन ही एक विरले शायर हैं जो इन कंट्राडिक्शन का सबसे बेहतर और सरल तर्जुमा कर पाते हैं.
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फोटो - thelallantop
वो इतने अजीब थे, इतने अजीब थे कि बस, खुद को तबाह कर लिया और मलाल भी नहीं किया.
अनुराग अनंत
वो जो ख़ुद की हुदूद में भी नहीं बंधा. वो दो तारीखों के बीच कैसे महदूद रह सकता है? किसी के जन्मदिन और बरसी पर उसे याद करने की रवायत होती है पर उसके साथ भी क्या यही दस्तूरी रवैया वाजिब होगा जिसने हर सांस रवायत की मुखालफत में जी हो. यही ख़याल था कि जिसने उनकी यौमे-पैदाइश पर लिखने से रोक दिया. कितनी अजीब लगती है ये बात और उससे भी ज्यादा अजीब लगता है किसी के जन्मदिन के एक रोज़ बाद उसे याद करना. पर जिसे आप याद कर रहे हैं वो शख्स ही अजीब हो तो इतनी अजीबियत लाज़मी ही है.
दुबले पतले शरीर, लम्बे बाल, काला चश्मा और मुसलसल तारी नशे के बीच जूझती हुई उस शख्सियत का नाम ‘एलिया’ है. युवाओं के लिए शायरी का रॉक स्टार, सूफ़ियाना रविश वालों के लिए ‘हज़रत जौन एलिया’, यारों के लिए ‘जानी जौन एलिया’ और बहुतों के लिए एक पहेली. जिसे जितना हल करने पर आओ उतनी ही उलझती जाती है. यही तआरुफ़ है, उस शायर का जिसने खुद को माचिस की तीलियों की तरह खर्च किया. लोगों ने उसकी आह से उठती आग को अदब की रोशनी कहा और वो तीरगी में तमाम होता रहा. बंद कमरों का अफ़्सुर्दा आलम, फ़र्स पर पड़ी खून की पीक, बिखरी हुई किताबों के बीच महकता हुआ दर्द, और घुटनों के बल रेंगता शायर, जो इस तरह हारा था कि हार उसे क्या हराती. उसने वो ज़िन्दगी गुजारी, जो किसी और से न गुजारी जाती. जौन खुद कहते हैं:
जो गुजारी न जा सकी हमसे,
हमने वो जिंदगी गुजारी है.
# अमरोहा की तलवार, कराची की म्यान
जौन ने दुधारी तलवार की तरह ज़िन्दगी जी है. भीतर-भीतर कटते रहे और बाहर-बाहर काटते रहे. उनको पढ़ने के बाद आप भी थोड़ा सा घायल महसूस करने लगते हैं. उनके चाक जिगर से उठे अशआर जिगर चाक कर के ही दम लेते हैं. एक खुदरंग खामोश ख़याल कब ख़ब्त में बदल जाता है आपको पता ही नहीं चलता.
इस शायराना तलवार की तखलीक अमरोहा की गलियों में हुई थी. साल 1931 के दिसंबर महीने में 14 तारीख को जाने माने विद्वान और शायर अल्लामा शफीक हसन एलिया के घर जौन एलिया ने जन्म लिया. खानदान अदीबों, आलिमों और दानिशवरों से भरा था. बड़े भाई कमाल अमरोही जाने-माने शायर और फिल्मकार हुए. पाकीज़ा याद है? इन्होंने ही बनाई थी. डायरेक्टर, प्रोड्यूसर, और राइटर तीनों यही थे. इनके एक और भाई रईस अमरोही भी जाने माने पत्रकार और शायर थे.
तो शायरी का फन इनके लहू में ही था. जब सोलह साल के थे तो देश का बंटवारा हो गया. एलिया के तरक्कीपसंद दिल को बात चुभ रही थी पर मजबूरी को आखिरी सच्चाई समझने वाले जौन एलिया ने तक्सीमी लकीरों को हाथों की लकीर मान लिया और न चाहते हुए भी 1957 में पाकिस्तान चले गए और कराची में बस गए. यहीं पर जौन एलिया ने आखिरी सांस ली और शायरी की दुनिया का एक हंगामाखेज़ आदमी अमर होने के लिए मर गया. उन्हें यूं तो किसी शै पर यकीन नहीं था पर इस बात का यकीन था कि मौत उन्हें नहीं मार पाएगी. शायद इसीलिए उन्होंने ये शेर कहा:
ये शख्स आज कुछ नहीं पर कल ये देखियो,जौन जवानी में जितने तीखे, यारबाश, बातूनी और जिंदादिल हुआ करते थे अपने आखिरी दिनों में उतने ही तनहा, कमज़ोर, चिड़चिड़े और ढले हुए तीखे तेवर के आदमी हो गए थे. उन्हें आखरियत में देखकर मानों यूं लगता था कि कोई तलवार चमक कर रफ्ता रफ्ता म्यान में समां रही हो. और हुआ भी यूं ही, अमरोहा के आकाश में निकली तलवार ‘जौन एलिया’ कराची के म्यान में 8 नवंबर 2002 को समा गई. मुसलसल नींद न आने की शिकायत करने वाला ये शायर उस रोज कराची की जमीन ओढ़कर ताहश्र सो गया.
उस की तरफ कदम ही नहीं सर भी आएंगे.
# सुलगते हुए दिल में महकता रहा अमरोहा
जौन एलिया जाने को तो साल 1957 में कराची, पाकिस्तान चले गए थे पर उनके दिल में अमरोहा और हिंदुस्तान ता-उम्र महकता रहा. वो हिंदुस्तान तो आते जाते रहे पर पाकिस्तान हिजरत करने के बाद दो ही बार अमरोहा आ सके पहली बार 1978 में और दूसरी बार 1999 में. उनकी शायरी में अमरोहा से बिछड़न का दर्द कुछ यूं बरामद होता है.
हम तो जैसे यहां के थे ही नहीं,वो सरहद के पार बैठकर अमरोहा का इश्किया अनहद गाया करते थे. उन्हें मुसलसल गंगा और यमुना की धारा आवाज़ देती थी वो उनकी सदाओं को अपनी मजबूरी की साज़ पर गुनगुना लिया करते थे. उनकी गुनगुनाहट एक गुनगुनी आहट की शक्ल में हमारे दर पर दस्तक देती है और हम उस पिछड़े यार, महबूब शायर जौन एलिया की सदाओं में डूब जाते हैं. एलिया गंगा यमुना से अपना दर्द भी ग़ज़ल में ही कहते थे.
धूप के थे सायबां के थे ही नहीं.
अब हमारा मकान किस का है,
हम तो अपने मकान के थे ही नहीं.
उस गली ने सुन के ये सब्र किया,
जाने वाले इस गली के थे ही नहीं.
मत पूछो कितना ग़मगीन हूं, गंगा जी और यमुना जी,
ज्यादा तुमको याद नहीं हूं, गंगा जी और यमुना जी.
अपने किनारों से कह दीजो आंसू तुमको रोते हैं,
अब मैं अपना सोग-नशीं हूं, गंगा जी और यमुना जी.
अब तो यहां के मौसम मुझसे ऐसी उम्मीदें रखते हैं,
जैसे हमेशा से मैं तो यहीं हूं, गंगा जी और यमुना जी.
अमरोहा में बान नदी के पास जो लड़का रहता था,
अब वो कहां है? मैं तो वही हूं, गंगा जी और यमुना जी.
# उस पर मोहब्बत क़यामत की तरह गुज़री
है मोहब्बत हयात की लज्ज़त, वर्ना कुछ लज्ज़त-ए-हयात नहीं,कहने को तो जौन एलिया ने मोहब्बत को हयात की लज्ज़त कहा पर मोहब्बत उन पर क़यामत की तरह गुज़री. शायद उन्हें गर इजाज़त होती तो वो इस सच्चाई को बयां कर देते लेकिन उन्होंने वो, मगर, खैर, कोई बात नहीं कहकर टाल दिया. मोहब्बत की पहेली उनसे सुलझी ही नहीं और इसी उलझन में पड़कर किसी की जान चली गई. वो उसे ‘फरेहा’ नाम से अपनी शायरी में बुलाते रहे. उन्होंने एक गुनाह किया और उसी गुनाह की आग में ताउम्र जलते रहे. वो उस जुर्म को कुछ यूं बयां करते हैं.
है इजाज़त तो एक बात कहूं, वो, मगर, खैर, कोई बात नहीं.
शायद मुझे किसी से मुहब्बत नहीं हुई,यही यकीन उन्होंने उस लड़की को भी दिलाया था. जो उनसे बेपनाह प्यार करती थी और फिर खून थूकते हुए, टीबी की मर्ज के साथ इस दुनिया से चली गई. जब उस लड़की को पता चला कि जौन उससे मोहब्बत का दिखावा कर रहे थे तो उसने जौन को एक ख़त लिखा.
लेकिन यकीन सबको दिलाता रहा हूं मैं.
जौन,तुम्हें ये दौर मुबारक, तुम ग़मों-आलम से दूर हो. एक लड़की के दिल को दुखाकर तुम बड़े आराम से हो. एक महकती अंगडाई के मुस्तकबिल का खून किया है तुमने. उसका दिल रखा है या उसके दिल का खून किया है तुमने.
जौन, को जब पता चला कि वो खून थूकते हुए उनकी याद में शायराना खतूत लिख रही थी तो उन्हें भीतर तक उस लड़की से मोहब्बत हो गई. वो उसे पाने के लिए तड़पने रहे. और घूम-घूम मुशायरों के मंचों से कहते रहे.
ये मुझे चैन क्यों नहीं पड़ता,उस दिन के बाद से उनके लिए ख़ुशी के कोई मायने नहीं रह गए और ज़हन में महज़ एक हसरत पलने लगी कि काश वो भी उस लड़की की तरह खून थूक सकें. जो पूरी भी हुई और वो खून थूकते हुए ही मरे. उनकी शायरी में खून थूकने का जिक्र खूब मिलता है. मसलन:
एक ही शख्स था जहान में क्या.
मेरे कमरे का क्या बयां कि यहां,या फिर,
खून थूका गया है शरारत में.
तुम खून थूकती हो ये सुनकर ख़ुशी हुई,
इस रंग इस अदा में पुरकार ही रहो.
# तन्हाई में तपता शायर
फरेहा के जाने के बाद जौन, उसके गम में यूं मुब्तला हुए कि बस उसमें ही खोते चले गए. कभी शराब का सहारा लिया कभी तन्हाई का और जैसे उस लड़की की जिंदगी अज़ाब हो गई थी अपनी भी ज़िन्दगी तबाह कर ली. शायद इसी बात को कहते हुए वो लिखते हैं:
अब मैं कोई शख़्स नहीं,इस अफ्सुर्दगी और उदासी के बीच, उर्दू पत्रिका ‘इशां’ निकालने के दौरान पत्रकार जाहिदा हिना से मुलाकात हुई. इश्क़ जैसा कुछ हुआ कि नहीं ये बात तो जौन खुद नहीं जानते थे मैं क्या कहूंगा. खैर जाहिदा से शादी हुई और तीन बच्चे भी हुए पर जौन एलिया बंधने वाले शख्स का नाम नहीं था जल्द ही शादी भी गले की जकड़न लगने लगी और 1984 आते-आते तलाक़ हो गया. इसके बाद तो जौन एलिया तन्हाई में ग़र्क होते गए, ख़फा मिजाजी बढ़ती गई. शराब में खुद को इस तरह ढूंढने लगे कि एकदम खो गए. वो शायरी से लेकर जिंदगी तक को बर्बाद, और बर्बाद करने पर उतारू दिखे. और आखिरी दौर में कराची के अपने फ़्लैट में तनहा खून थूकते हुए फौत हो गए.
उसका साया लगता हूं.
# हज़ारों ख़वाहिशें ऐसी कि हर ख्वाहिश पे दम निकले
जौन एलिया जितने अजीब थे उनकी ख्वाहिशें उससे ज्यादा अजीब थीं. वो बचपन में अब्बा से कहते थे ‘अब्बा मैं कभी बड़ा नहीं होना चाहता. पर अपने जीते जी और मरने के बाद भी वो मुसलसल बड़े और बड़े होते जा रहे हैं. उनकी ख्वाहिश थी कि जवानी में मर जाएं और उन्हें खून थूकने वाली बीमारी चाहिए थी. जिंदगी में मौत और मौत में जिंदगी जीना चाहते थे. मोहब्बत में जुदाई और जुदाई में इश्किया होना चाहते थे. वो जीते जी मरना और मरकर जीना चाहते थे. वो बर्बाद होकर मिसाल होना चाहते थे. वो चाहते थे कि उनके दहकते हुए सीने से उठता हुआ धुआं गला छीलकर आवाज़ की शक्ल में निकले और इस तरह जो भी उनसे मिले बस ख़फा हो जाए. वो अपनी अना के मरीज़ होकर जीना चाहते थे और उनके मिजाज़ में दखल देने वाले का गिरेबां फाड़ डालने की बात करते थे. वो रात-रात भार सोचकर बार-बार एक ही तयशुदा अंजाम पर पहुंचना चाहते थे कि ’अब तम्मना नहीं करेंगे’. वो दम निकाल देने वाली ख्वाहिशें इसलिए पाले बैठे थे क्योंकि वो कहना चाहते थे:
ये हैं एक जब्र, कोई इत्तेहाक नहीं,
जौन होना कोई मज़ाक नहीं.
# आईने सा आदमी
जो जी में आया बेतकल्लुफ़ कह दिया, जौन एलिया का यही अंदाज़ उन्हें आईना बना देता है. बस वही हैं, जो कह सकते हैं
क्या तकल्लुफ़ करें ये कहने में,बेमानी होते जज़्बातों के समय कोई कैसे खुश हो सकता है. इश्क के नाम पर जब लोग भावनाएं ठगकर इंटरनेट पर इस ठगी का दस्तावेज़ छोड़ जाते हों और निर्भया जैसी हजारों वारदातें होती हों. देश के मुसलसल अमीर होने की बात होती हो और लोग भूख से मर रहे हों उस दौर में कोई कैसे खुश रह सकता है और अगर कोई खुश है तो संवेदना में जीवन स्वाहा कर देने वाला आदमी उसे देखकर कैसे नहीं जलेगा.
जो भी खुश है हम उससे जलते हैं.
# जवां खून का तर्जुमा
जौन एलिया युवाओं के इतने महबूब शायर हैं कि ट्विटर की चिड़िया शायरी के नाम पर उनके ही मुंडेर पर मंडराती रहती है. वो पीढ़ी जो 90 के दशक में पैदा हुई और 25 से 30 साल के भीतर है उसने ग्लोबलाइज़ेशन के बाद तेज़ी से घूमते हुए ग्लोब को न सिर्फ देखा है बल्कि महसूसा भी है. ये समय कंट्राडिक्शन से भरा हुआ है और जौन ही एक विरले शायर हैं जो इन कंट्राडिक्शन का सबसे बेहतर और सरल तर्जुमा कर पाते हैं. उनकी हर बात पहले वाली बात को काटती हुई दिखती है और जब ऐसा होता है तो युवा के भटकते हुए मन को लगता है कि ये तो उसके मन की बात हो गई. एक तरफ बाज़ार ने इश्क को त्योहार दिए तो दूसरी तरह बेहद तन्हाई और महत्वाकांक्षा भी दी. इससे रिश्ते बेमानी से हो गए. एक तरफ मोटिवेशन की लहर में उतरता युवा दुनिया को मुट्ठी में करने को लालायित है तो दूसरी तरफ ख़ुदकुशी के आंकड़े भी बढ़ते जा रहे हैं. इस दौर में जौन एलिया युवाओं को वो सबसे असरदार तरीके से खुद को व्यक्त करने का ज़रूरी सामान मुहैया कराते हैं. इसीलिए अदब से बेख़बरी का इल्ज़ाम ढोती स्क्रॉलिंग जनरेशन के महबूब शायर जौन एलिया हो जाते हैं.
जौन के चाहने वालों को जाते-जाते उनके जन्मदिन की मुबारकबाद दिए जाता हूं. जौन साहब को तो दे नहीं सकता क्योंकि उन्हें मुझसे पहले किसी ने जो मुबारकबाद दी होगी तो उन्होंने अपने खुद्रंग अंदाज में ये शेर दे मारा था.
क्या कहा आज जन्मदिन है मेरा,
जौन तो यार मर गया कब का.
(ये आर्टिकल दी लल्लनटॉप के लिए अनुराग अनंत ने लिखा है. अनुराग फिलहाल लखनऊ में भीमराव अंबेडकर सेंट्रल यूनिवर्सिटी से मास कॉम और जर्नलिज़्म में पीएचडी कर रहे हैं.)
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