कट टू कलियुग. असम का तिनसुकिया ज़िला. पिछले महीने यहां एक साथ कई गिद्धों की मौत हुई. एक धान के खेत में 36 गिद्धों की लाश बरामद हुई. इनकी मौत का कारण ज़हरीले पदार्थ का सेवन बताया जा रहा है. इस घटना के बाद आसपास के चार गांवों के लोग इकट्ठे हुए. लोगों ने मिलकर इन गिद्धों के लिए श्राद्ध रखा.
भारत में नौ प्रजाति के गिद्ध पाए जाते हैं. लेकिन 90 के दशक से इनकी आबादी तेज़ी से घट रही है. इनमें से कई विलुप्त होने की कगार पर हैं.
गिद्ध मरे हुए जानवरों को खाते हैं. ज़्यादातर लोग गिद्धों को घृणा भरी नज़रों से देखते हैं. चार्ल्स डार्विन ने भी गिद्धों को ‘डिसगस्टिंग’ कहा था. लेकिन भारत सरकार गिद्धों की घटती आबादी को लेकर चिंतित है. अगर गिद्ध खत्म हो गए, तो बहुत बड़ी मुसीबत पैदा होगी.
साइंसकारी के इस ऐपिसोड में गिद्ध की बात करेंगे. इन्हें अंग्रेज़ी में वल्चर (Vulture) कहते हैं. गिद्ध अपना खाना कैसे पचाते हैं? इन्हें पर्यावरण का सफाईकर्मी क्यों कहा जाता है? भारत में इनकी आबादी अचानक क्यों कम होने लगी? और ये हमारे लिए क्यों ज़रूरी हैं? लाश पचाने का सीक्रेट ज़्यादातर गिद्ध गंजे होते हैं. उनके सिर और गर्दन के पास कोई बाल या पर नहीं उगते. जब वो कुछ खा रहे होते हैं, तो उन्हें अंदर तक अपना सिर घुसाना होता है. गंजे होने के कारण उनके सिर पर मांस या खून नहीं अटकता. इससे गिद्ध अपना ऊपर हिस्सा साफ रख पाते हैं.
गिद्ध मरे हुए जानवरों को खाते हैं. मरने के बाद जानवरों की लाश सड़ने लगती है. उनमें कई तरह की बीमारियां पनपने लगती हैं. फिर गिद्ध उन्हें खाकर भी बीमार क्यों नहीं पड़ते? इसका राज़ उनके पेट में छुपा है.

भारत में पाए जाने वाले गिद्ध क्रिटिकली इंडेंजर्ड कैटेगरी में आते हैं.
मृत जानवर का मांस निगलने के बाद गिद्ध के पेट में ऐसिड रिलीज़ होता है. ये ऐसिड बहुत स्ट्रॉन्ग होता है. इतना स्ट्रॉन्ग कि इससे कई धातु पिघल सकती है. ये ऐसिड न सिर्फ खतरनाक बैक्टीरिया को ठिकाने लगा देता है, बल्कि इससे हड्डियां भी पच जाती हैं.
कई बार गिद्ध अपने बचाव के लिए भी इस ऐसिड का इस्तेमाल करते हैं. जब उन्हें किसी दूसरे जानवर से खतरा महसूस होता है, तो वो ऐसिड की उल्टी कर देते हैं. ये ऐसिड वाली उल्टी सामने वाले जानवर को जला सकती है. इसलिए वो डरकर गिद्ध से दूर चले जाते हैं.
इस स्ट्रॉन्ग ऐसिड से पेट में ज़्यादातर बैक्टीरिया खत्म हो जाते हैं. लेकिन कुछ फिर भी बच जाते हैं. कई स्टडीज़ में गिद्धों की आंत और मल में खतरनाक बैक्टीरिया के सैंपल्स मिले हैं. गिद्धों का इम्यून सिस्टम ऐसे बैक्टीरिया को पहचानने में माहिर होता है. और उनका शरीर इनसे आसानी से लड़ लेता है.

जब कोई जानवर मरता है, तो बैक्टीरिया उसे डीकंपोज़ करने लग जाते हैं.
पर्यावरण के सफाईकर्मी मृत जानवरों की लाश निबटाकर गिद्ध हमारी बहुत बड़ी मदद करते हैं. जिन इलाकों में गिद्ध नहीं होते, वहां लाशों का विघटन होने में चार-पांच गुना ज़्यादा वक्त लगता है. ये पड़ी हुई लाशें मनुष्य के लिए घातक साबित हो सकती हैं.
जानवरों की लाश से पीने का पानी भी दूषित हो जाता है. ग्रामीण इलाकों में पानी का इकलौता स्त्रोत भी इससे प्रभावित हो सकता है. इस दूषित जल से उन सभी का जीवन खतरे में आ सकता है, जो इसपर निर्भर हैं.

कुत्ते और चूहे बहुत बीमारियां फैलाते हैं.
जब गिद्ध जानवरों की लाश नहीं खाते, तो उसे आवारा कुत्ते या चूहे खाते हैं. इनका शरीर खतरनाक बैक्टीरिया से लड़ने में गिद्ध जितना सक्षम नहीं होता. ये जानवर बीमारियों को खत्म करने की जगह उनके वाहक (कैरियर) बन जाते हैं. ये आवारा कुत्ते और चूहे हम तक खतरनाक बीमारियां लेकर आते हैं.
जबकि जानवरों की लाश खाकर गिद्ध उन बीमारियों को खत्म कर देते हैं. उनके फैलने का डर नहीं होता. इसलिए गिद्दों को पर्यावरण का सफाईकर्मी कहा जाता है. अगर गिद्ध कम होने लगे तो क्या होगा? ये समझाने के लिए पूरी दुनिया में इंडिया का उदाहरण दिया जाता है. भारत का गिद्ध संकट भारत में 80 के दशक में गिद्धों की आबादी 4 करोड़ से ज़्यादा थी. 2009 में भारत में महज़ कुछ हज़ार बचे. 90 के दशक में हमें पहली बार गिद्धों की गिरती आबादी का अंदाज़ा लगा. जब ये और तेज़ी से कम होने लगे, तो पूरी दुनिया का ध्यान इस पर गया. इसकी वजह तलाशी जाने लगी.

भारत में पाए जाने वाले इस गिद्ध का नाम Gyps Indicus है.
वैज्ञानिकों ने कई पहलुओं की जांच की. उनके सामने कई सवाल थे. क्या फसलों में डाले जाने वाले कीटनाशक से गिद्ध मर रहे हैं? या फैक्ट्रियों से निकलने वाले प्रदूषण का कोई तत्व ज़िम्मेदार है? ये भी हो सकता है कि किसी बैक्टीरिया या वायरस का संक्रमण इन गिद्धों की जान ले रहा हो?
पूरा दशक बीत गया, लेकिन वैज्ञानिक किसी नतीजे पर नहीं पहुंच सके. 2002 तक गिद्ध की कई प्रजातियों की आबादी 99% कम हो चुकी थी. आखिरकार 2003 में इस रहस्य से परदा उठा.
गिद्धों की मौत का कारण गाय-भैंस को दी जाने वाली एक दवा थी. इस दवा का नाम है डायक्लोफेनेक. डायक्लोफेनेक एक ऐंटी-इन्फ्लेमेटरी ड्रग है. इससे बुखार, सूजन और दर्द में आराम मिलता है. पालतू जानवरों बीमार होने पर उन्हें डायक्लोफेनेक दिया जाता था. 90 के दशक में ये एक आम प्रैक्टिस बन गई.

मनुष्यों की कई दवाओं में भी डायक्लोफेनेक होता है.
जब यही पालतू जानवर मर जाते थे, तो गिद्ध उन्हें खाने लगते. उनके साथ वो शरीर में मौजूद डायक्लोफेनेक भी निगल जाते थे. गिद्ध खतरनाक बैक्टीरिया को तो निबटा देते है, लेकिन कुछ मानव-निर्मित कैमिकल्स से वो मात खा जाते हैं. डायक्लोफेनेक उन कैमिकल्स में से एक है. मृत पशुओं के शरीर में मौजूद ये डायक्लोफेनेक गिद्धों के लिए ज़हर साबित हुआ.
जब गिद्धों की आबादी कम होने लगी, तो आवारा कुत्तों और चूहों की संख्या बढ़ने लगी. ये आवारा कुत्ते तेज़ी से रेबीज़ जैसी जानलेवा बीमारियां फैलाने लगे. भारत के लिए एक नया स्वास्थ संकट पैदा हो गया.
2006 में भारत ने जानवरों की दवा में डायक्लोफेनेक पर रोक लगा दी. इसके बाद नेपाल और बांग्लादेश ने भी यही किया. जल्द ही डायक्लोफेनेक का रिप्लेसमेंट खोज लिया गया. लेकिन भारत अपनी खोई हुई गिद्दों की आबादी वापस नहीं ला सका.
दुनिया के कई हिस्सों में जानबूझकर गिद्धों को मारा जाता है. इन्हें मारने के लिए शिकारी मृत जानवरों के शरीर पर ज़हर छिड़क देते हैं. उन्हें खाकर वो मर जाते हैं. और उनका व्यापार किया जाता है.
गिद्धों की कई प्रजाति विलुप्त होने की कगार पर हैं. अगर इसे दुरुस्त नहीं किया गया, तो हम अपने पर्यावरण के सफाईकर्मी खो देंगे.