ताज तेरे लिये इक मज़हर-ए-उल्फ़त ही सही - साहिर
तुम को इस वादी-ए-रंगीं से अक़ीदत ही सही, मेरी महबूब कहीं और मिला कर मुझ से.
ताज तेरे लिये इक मज़हर-ए-उल्फ़त ही सही तुझको इस वादी-ए-रंगीं से अक़ीदत ही सही
मेरी महबूब कहीं और मिला कर मुझ से!
बज़्म-ए-शाही में ग़रीबों का गुज़र क्या मानी सब्त जिस राह में हों सतवत-ए-शाही के निशाँ उस पे उल्फ़त भरी रूहों का सफ़र क्या मानी
मेरी महबूब! पस-ए-पर्दा-ए-तशहीर-ए-वफ़ा
तू ने सतवत के निशानों को तो देखा होता