ज़ुल्म फिर ज़ुल्म है, बढ़ता है तो मिट जाता है
एक कविता रोज़ में देखिए, साहिर लुधियानवी की नज़्म ख़ून फिर ख़ून है.
ज़ुल्म फिर ज़ुल्म है, बढ़ता है तो मिट जाता है
ख़ून फिर ख़ून है टपकेगा तो जम जाएगा
तुमने जिस ख़ून को मक़्तल में दबाना चाहा
आज वह कूचा-ओ-बाज़ार में आ निकला है
कहीं शोला, कहीं नारा, कहीं पत्थर बनकर
ख़ून चलता है तो रूकता नहीं संगीनों से
सर उठाता है तो दबता नहीं आईनों से.