सूखते तालाब की मुरग़ाबियां
'गौ-रक्षक वैसे ही गाय बचाने के लिए वहशी हुए जा रहे थे जैसे आज'
एक कविता रोज़ में आज पढ़िए सुधांशु फ़िरदौस की कविता सूखते तालाब की मुरग़ाबियां

फोटो - thelallantop
सुधांशु फिरदौस हिंदी में कइयों के महबूब कवि हैं. गणित के छात्र और अध्यापक हैं, लेकिन जीवन के गणित में कमजोर हैं. दोस्तों पर जान छिड़कते हैं. रात-बिरात भी पुकारों तो चले आते हैं. मीर के भक्त हैं और कालिदास के भी. कविताओं का एक संग्रह बहुत दिन से तैयार है, और इस साल उसके आने की संभावना उतनी ही है जितनी पिछले वर्ष रही थी. कल यानी दो जनवरी को बड्डे था, शुभकामनाएं 'बिलेटेड' देते हुए एक कविता रोज़ में पेश है उनकी कविता: सूखते तालाब की मुरग़ाबियां. कविता, बंटवारे के वक्त को, उस वक्त की राजनीति को, आज के दौर से 'रिलेट' करने और आज के परिप्रेक्ष्य में समझने की एक सफल कोशिश कही जा सकती है.
कभी-कभी किरदारों का अधूरापन तारीख़ से निकल हांफने लगता है दिल्ली के राजपथ पर और लगाने लगता है नारा : ‘हमें चाहिए आज़ादी’बैठे थे चंद लोग एक कमरे में परेशानी की लकीरें आ-जा रही थीं बेतरतीबी से उनके माथे पर न चाहते हुए भी कांप जा रहे थे सबके हाथ-पैर हालात लाख सिर पीटने पर भी बिहार से पटोहार तक हुए जा रहे थे बद से बदतर पता नहीं उनके भीतर खीझ थी या हताशा या शायद बंटवारे के बाद सब कुछ ठीक हो जाने की रूहानी उम्मीद पर वे ख़ुद चाह कर भी नहीं कर पा रहे थे यक़ीन सब तरफ़ से एक दबाव था जो दिल की धड़कनों को बार-बार किए दे रहा था दरहम इस दरहमी आलम में उन्हें करने थे तकसीम के मुसव्विदे पर दस्तख़त जल्द से जल्द पहनाना था इस रुके हुए फैसले को अमलीजामा दिख जाती है उनकी हड़बड़ाहट तारीख़ के पन्नों पर आज भी ख़ून के छींटों की शक्ल में *** उन्हें आज़ादी थी चुनने की अपनी सहूलियत से अपने-अपने मुल्क जिसका इश्तहार आज भी आज़ादी के ही नाम पर होता है हर अगस्त
लेकिन हम कितने आज़ाद हैं इसके लिए बस्तर या बारामूला की नज़ीर की ज़रूरत नहीं संसद मार्ग के इर्द-गिर्द किसी जुलूस पर पुलिस की चलती हुई बेझिझक लाठियों को देख बहुत आसानी से हो जाती है इसकी शिनाख़्तआज भी जब कभी कोई शख़्स इस आज़ाद मुल्क में अपनी परेशानियों से ऊब किसी चौराहे या इदारे में मांगने लगता है अपने हिस्से की आज़ादी तब फूलने लगती हैं हुक्मरानों की सांसें सब तरफ से मुंह बंद करने को ततैये की तरह निकल आते हैं आज़ादी के रखवाले देखते ही लोगों को चुन-चुन कर भेजा जाने लगता है पाकिस्तान! *** पता नहीं तब के हुक्मरान क्या सोचते थे लेकिन आज दोनों मुल्कों का कोई भी होशमंद शहरी जानता है कि कितना ज़रूरी है हिंदुस्तान की सियासत के लिए दुश्मन पाकिस्तान और पाकिस्तान की सियासत के लिए दुश्मन हिंदुस्तान बहरहाल, शेर बूढ़े हो रहे थे और उन्होंने चख लिया था ख़ून वो अपनी तन्हाई में ग़ालिबन यही सोचते थे : इंतिज़ार की भी इक उम्र होती है... इसलिए सबमें इस बात को लेकर रजामंदी थी इसलिए कोई भी नहीं चाहता था चूकना इसलिए कोई किसी और को भी चूकने नहीं देना चाहता था क्यूंकि एक के चूकते ही दूसरा चूक जाता अपने-आप
उन्हें शायद ही थी इसकी फ़िक्र या इसका कोई अंदाज़ कि आने वाली पीढ़ियां उनकी सारी होशियारी के बाद भी जब भी बंटवारे का ज़िक्र आएगा उन्हें चूका हुआ ही समझेंगीकुछ की यह ज़िद थी कि चाहे जो भी हो जाए एक पल के लिए भी नहीं रहना है यहां बहुत हुआ अब चाहे कितना भी क्यूं न हो नुक़सान हम लेकर ही रहेंगे पाकिस्तान बहुतों को लेकिन आखिर तक रही यह उम्मीद कि ऐसे भी कहीं होता है भला मुल्क का बंटवारा हवा-हवाई बातें हवा-हवाई सियासी बयान! कौन सिरफिरा अपनी माटी को छोड़ेगा? आख़िर क्या दिक्कत है यहां? फ़ज़ूल क्यूं दूर देश में भटकेगा इंसान? पता नहीं क्या फ़र्क़ पड़ जाएगा जो कोई रहे हिंदुस्तान! जो कोई रहे पाकिस्तान! कुछ की आपसी अदावत ने उन्हें कई बार हमप्याला होने पर भी नहीं होने दिया हमख़्याल कुछ के गुरूर का फैलाव इस ज़मीन के दायरे से भी ज्यादा था कुछ का गुरूर लाखों की ज़िंदगी से भी भारी कुछ तो दिल में एक मुद्दत से ही पाले बैठे थे रंजिश जैसे ही मौसम ने थोड़ा रंग बदला रंग बदलने में उन्होंने यकायक गिरगिटों को भी कर दिया शर्मिंदा
देखते ही देखते अमन-ओ-चैन के तालाब में खोल दी गई नफ़रत की बोरी और मुरग़ाबियां मरी हुई मछलियों की गंध से हलकान हो भागने लगीं इधर-उधर उन मुरग़ाबियों के क़िस्से बहुत कम दर्ज हैं तवारीख में*** अफ़वाहों का बाज़ार गर्म था
ग़नीमत है तब टनों में था कम्प्यूटर का वज़न नहीं उठाया था इंसान ने उसे अपने हाथ में और न ही इंसानियत को लिया था उसने अपनी ज़द में झूठ बनाने और फैलाने में इसके इस्तेमाल को तब तक पहचाना नहीं गया थालेकिन भीड़ उस समय भी उतने ही शातिर ढंग से काम कर रही थी भीड़ आज भी उतने ही शातिर ढंग से काम कर रही है सेनाएं तब भी थीं सेनाएं अब भी हैं किसी के पास रामसेना तो किसी के पास ख़ाकसार नफ़रती बोलों से हर वक़्त में हुई है दोस्ती मिस्मार घाघ निजी तिजारती ज़र-ज़मीन के झगड़ों को रातों-रात मज़हबी फ़सादों में बदल काट रहे थे चांदी निज़ाम तब भी अक्सरियत के साथ ही था निज़ाम अब भी अक्सरियत के साथ ही है लेकिन जम्हूरियत में कौन करता है यह ख़्याल कि अक्सरियत में भी होती है एक अक़ल्लियत फिर उस अक़ल्लियत में भी होती है एक और अक़ल्लियत आदमी अपने किनारे पर अकेला ही होता है उस अकेले आदमी के किसी ख़्याल के लिए जम्हूरियत में पता नहीं कौन-सी जगह मुअय्यन है धर्म के भ्रष्ट होने को लेकर उतनी ही शिद्दत से तब भी वबाल था जितनी शिद्दत से आज मज़हब बात-बात पर वैसे ही ख़तरे में पड़ रहा था जैसे आज गौ-रक्षक वैसे ही गाय बचाने के लिए वहशी हुए जा रहे थे जैसे आज अफ़वाहें वैसे ही फैलती थीं जैसे आज नफ़रतें वैसे ही असर करती थीं जैसे आज
अफ़वाहों से और नफ़रतें नफ़रतों से और अफ़वाहें अफ़वाह-नफ़रत नफ़रत-अफ़वाहदेखते-देखते आदमी-आदमी नहीं हो जाता है अफ़वाह और नफ़रत का कारख़ाना ख़ुदग़रज़ी की ज़मीन से शुरुआत होती इस ज़मीन पर बोए जाते अफ़वाह के बीज फिर डाली जाती नफ़रत की खाद फिर हिंदू-मुसलमान मंदिर-मस्जिद हिंदी-उर्दू सब चले आते ***
नहीं छोड़ते-छोड़ते आख़िरकार एक रोज़ उसको भी छोड़ना पड़ा पटना उसे ठीक से याद नहीं कि किस गांव किस कस्बे में उसने कितने दिन और कितनी रातें बिताईं पहुंचने से पहले ढाका सफ़र में इतने लोग मिले और ग़मी का मातम भी इतना मना कि रोते-रोते पथरा गई आंखें कोई छपरा से निकला तो कलकत्ता पहुंच पता नहीं कैसे बाल-बाल बचता हुआ यहां दिखा कोई बिहारशरीफ से भरा-पूरा निकला तो खोकर भागा चिटगांव से अपना पूरा परिवार कितने बहरवासी तो बहरवास से ही फिर बहरवासी बन गए एक बार अपनी माटी को छूने की उनकी ख़्वाहिश ख़्वाहिश ही रह गई कोई सब कुछ छोड़ आ रहा था भागलपुर से तो किसी को बहुत मुश्किल से छोड़ना पड़ा था बेनीबाद लेकिन यह सब देख-सुन भी उसके दुःख का रंग रहा गाढ़ा का गाढ़ा उसकी आंखों के सामने औरतों-बच्चों की लाशों से भरे बार-बार आ जाते थे वे इनारे जिनके आगे डर से भागते हुए रुक किसी ने नहीं पढ़ा फ़ातिहा...उसने बहुत चाहा कि ढाल ले अपने भीतर ढाका की नई आबोहवा यहां तक कि कोशिश कर उसने बांग्ला भी सीख ली उसने तो अपनाया ढाका को लेकिन उसे अपना नहीं सका ढाका जबकि उसके पुरखे आते-जाते रहे थे दिनाजपुर और माल्दा उसने उस दिन जाना कि बहुत फ़र्क़ होता है हिज्रत कर आने और तिजारत के लिए आने में सियासती नुस्ख़े हिसाब के नुस्ख़ों की तरह नहीं होते बदलते रहते हैं नज़र के सामने मौक़ा-बेमौक़ा ऐसे ही एक नुस्ख़े के रद्दोबदल से आख़िरकार छूट ही गया एक रोज़ ढाका ढाका से निकल जो लुटा-पिटा पहुंचा कराची ढूंढ़ता रहा समंदर किनारे वहां भी सालों-साल अपना अज़ीमाबाद वही गंगा वही बांसघाट आदमी आदमी नहीं गोया सूखते तालाब में उपरा रही मछली था जिसे जल्द से जल्द भेजना था बाज़ार ढोर-बकरियों की तरह रातों-रात हांक डाले गए थे इंसान किसी के आंगन में अभी भी झूल रहा था सावन किसी के बाग़ में अभी-अभी तो पका था आम किसी ने मिट्टी उठाई तो किसी ने मिल्कियत किसी का बस चलता तो सिर पर ही उठा लेता जतन से रोपा गया धान का खेत किसी ने पुरखों की कब्र छूटने का मनाया भर उम्र सोग़ कहां गए वे लोग जिनकी दुहाई हर सियासी पाप के पहले आज भी देते रहते हैं हुक्मरान
सियासत तब भी देखती थी हिंदू-मुसलमान सियासत अब भी देखती है हिंदू-मुसलमान लगाओ नारे थोड़े और ज़ोर से मजलिसों में तक़सीम के क्या हुआ जो तुमने पा लिया है अपना पाकिस्तान क्या हुआ जो हमने पा लिया है अपना हिंदुस्तान क्या अब नहीं होता कहीं कोई दंगा? क्या अब नहीं होता कहीं कोई कत्लेआम? क्या अब नहीं सोता भूखा कहीं कोई इंसान!*** कोई ढूंढ़ता रहा लाहौर में लखनऊ की तहज़ीब कोई ढूंढ़ता रहा इस्लामाबाद में मलीहाबाद के आम कोई ताउम्र हर मुशायरे में गाता रहा हाय मेरा अमरोहा! कोई हर रात मीर के दीवान को सीने से लगाए लाहौर की गलियों में पत्तों को गिरते देख याद करता रहा अपना अंबाला किसी की आंखें डबडबा जाती थीं अपने बिछड़े डिबाई को याद कर कोई अपनी नज़्मों में संजोता रहा नालंदा तो कोई सासाराम
पता नहीं मुजफ्फरपुर का कोई मुहाजिर लाहौर या कराची में फिर बोल पाया होगा कि नहीं अपनी मादरी ज़बान बज्जिका***
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