ईश्वर की प्रिय सन्तान हो छुटपन से ही मां मुझसे कहती आई हैं होना तो यह था कि कबाड़ में मिले उस दीपक को धरती पर घिसते ही धुएं के पीछे से प्रकट हो जाता कोई देवदूत और मेरे आदेश का दास बन जाता हुआ यह कि पत्थर पर रगड़ खाने से कांसे की देह पीड़ा से कराह उठी ऐन उसी दिन कान के पीछे उभर आई एक हरी बेल कोई रंग होता 'माइग्रेन' का तो हरा ही होता
कितना अच्छा लगता था दीवारों पर लिखना और पौधों को पानी देना होना तो यह था कि तुम्हारी पीठ पर नक़्क़ाशीदार आयतें लिखा करती हमेशा और छाती को सींचती ही रहती उम्र भर हुआ यह कि छठी की चांद रातों में मैंने उगाए जूठे सेब तुम्हारी छाती पर और तुम्हारी पीठ से टकरा टकरा कर लौटती रहीं मेरी चीख़ें उन दिनों जंगल टेसू की तरह दहका करते थे मैं तुम्हारे पांव के अंगूठे पर टोटके बांधा करती थी एक बार उतरने दो मेरी चीख़ अपनी छाती पर किसी बरगद के कान पर उसी दिन मैं कान के पीछे वाली नस की असह्य पीड़ा का विसर्जन कर दूंगी

होना तो यह था कि तुम होते बरगद का घनापन और मैं तुम्हारी शाख़ों पर फुदकती फिरती अपनी टुकुर-टुकुर आंखों में भर लेती सब हरियाली कभी पत्तों में छुपती कभी दिखती तने के पीछे सारी छांव घूंट-घूंट पी लेती हुआ यह कि तमीज़ भूल गया एक बरगद अपने बरगद होने की छांव, हरियाली, ठौर कुछ भी नहीं मिलता धूप धूप भटकता रहा प्रेम भूखे कौर कौर दिल कुतरता रहा
कल आपने पढ़ी थी, 'साला बिहारी, चोर, चीलड़, पॉकेटमार' अगर आप भी कविता/कहानी लिखते हैं, और चाहते हैं हम उसे छापें. तो अपनी कविता/कहानी टाइप करिए, और फटाफट भेज दीजिए lallantopmail@gmail.com पर. हमें पसंद आई, तो छापेंगे.