छत
छतें देखती हैं, अपने कोनों किनारों से कुछ उचककर कभी उछलकर सुना है जब से घरों में मंज़िलें बढ़ी छतें छोटी हो गई.
छतें देखती हैं, अपने कोनों किनारों से कुछ उचककर कभी उछलकर सुना है जब से घरों में मंज़िलें बढ़ी छतें छोटी हो गई.
साथ ही छोटे हो गए वो सपने जो छत पर पला करते थे यहीं खेल खेलते वक़्त हम घुटनों के बल चला करते थे गर्म रातों को जुगनू देखने की आरज़ू में हम बिजली गुल होने की दुआ करते थे यहीं नानी की कहानियों के हम शहजादे हुआ करते थे.
यहीं नजर के मिलने हटने और फिर मिलके एक मुस्कुराहट में बदलने में जवां प्यार पनपते थे आशिक किताबों में छिपाकर अपनी शक्ल दिन रात माशूका का नाम जपते थे वक़्त लगता था गीले कपड़ों को तारों में लटकने में लूटते थे दिल हसीं चेहरे भीगी जुल्फ झटकने में जहां चांद हर रात डाकिया बनकर खत पहुंचाता था होता था दिन पूरा जब महबूब नजर आता था
वो छत मुझे अब वीरान नजरों से देखती है कुछ बरस हुए मुंह से लहू फेंकती है उग आए है उसपे कुछ बबूल कांटे सांसे उसकी अब चलते हुए फूलने लगती है
मैं सोचता हूं जो किसी रोज एक पतंग जिसपे लिखी हो एक मोहब्बत की गजल कहीं से कट कर गिर आए छत पर और छत की नब्ज जुड़ जाए सांस फिर से चलने लगे और प्यार फिर से पलने लगे.