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एक कविता रोज़: मैं किसकी औरत हूं

आज अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस के मौके पर एक कविता रोज़ में पढ़िए सविता सिंह की यह कविता.

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फोटो - thelallantop
सविता सिंह की कविताएं स्त्री की मुक्ति के घोषणापत्र की तरह पेश आती हैं. सविता की कविताओं की पहली किताब ‘अपने जैसा जीवन’ के आगमन को हिंदीकवितासंसार में एक नई तरह की कविता के जन्म की सूचना की तरह लिया गया था. वह इस सदी का बिल्कुल शुरुआती वक्त था और कथाकार योगेंद्र आहूजा की एक कहानी ‘स्त्री-विमर्श’ के इशारे से बात करें तब कह सकते हैं कि औरतों के बारे में एक जाली और वृथा विमर्श अंसारी रोड, दरियागंज, दिल्ली से धूल की तरह उठकर हमारी भाषा को गंदला कर रहा था. इस प्रकार के स्त्री-विमर्श का एकांगीपन और छल हिंदी पर जाहिर हो चुका था. इस दृश्य में ‘कैसे मुक्त होऊं’ जैसे एक जरूरी प्रश्न के साथ एक स्त्री-कवि का संसार कैसा हो सकता है, इसकी जानकारी सविता सिंह की कविताओं ने एक बहुत ही नायाब ढंग-ढांचे में दी. केवल स्त्री की देह ही पितृसत्ता के जाल में नहीं है बल्कि उसकी मन:स्थितियां, उसकी भाषा, उसकी सामाजिकता, उसकी दार्शनिकता, उसकी अर्थ-व्यवस्था, उसकी जीवेषणा, उसका सब कुछ पितृसत्ता के जाल में है... इस सत्य की अभिव्यक्ति के लिए सविता सिंह का काम मौजूदा स्त्री-भाषा से नहीं चला. कविताओं की उनकी पुकार उन्हें एक नई स्त्री-भाषा के अन्वेषण तक ले गई. इस चुनाव का मार्ग बहुत जटिल था और मानचित्र बहुत धुंधला. न समझे जाने के संकट भी इसमें बसे हुए थे. लेकिन आज ‘नींद थी और रात थी’ और ‘स्वप्न-समय’ जैसे कविता-संग्रहों तक आते-आते सविता हिंदी कविता में मौजूद स्त्री-स्वर को एक नया सौंदर्यशास्त्र सौंप चुकी हैं. आज अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस है. इस अवसर पर इससे बेहतर क्या होगा कि एक कविता रोज़ में सविता सिंह की एक कविता में आए स्त्री-प्रश्नों को पढ़ा जाए. पढ़िए :

मैं किसकी औरत हूं

मैं किसकी औरत हूं कौन है मेरा परमेश्वर किसके पांव दबाती हूं किसका दिया खाती हूं किसकी मार सहती हूं... ऐसे ही थे सवाल उसके बैठी थी जो मेरे सामने वाली सीट पर रेलगाड़ी में मेरे साथ सफर करती उम्र होगी कोई सत्तर-पचहत्तर साल आंखे धंस गई थीं उसकी मांस शरीर से झूल रहा था चेहरे पर थे दु:ख के पठार थी अनेक फटकारों की खाइयां सोच कर बहुत मैंने कहा उससे ‘मैं किसी की औरत नहीं हूं मैं अपनी औरत हूं अपना खाती हूं जब जी चाहता है तब खाती हूं मैं किसी की मार नहीं सहती और मेरा परमेश्वर कोई नहीं’ उसकी आंखों में भर आई एक असहज खामोशी आह! कैसे कटेगा इस औरत का जीवन! संशय में पड़ गई वह समझते हुए सभी कुछ मैंने उसकी आंखों को अपने अकेलेपन के गर्व से भरना चाहा फिर हंस कर कहा : ‘मेरा जीवन तुम्हारा ही जीवन है मेरी यात्रा तुम्हारी ही यात्रा लेकिन कुछ घटित हुआ जिसे तुम नहीं जानतीं— हम सब जानते हैं अब कि कोई किसी का नहीं होता सब अपने होते हैं अपने आप में लथपथ अपने होने के हक से लकदक’ यात्रा लेकिन यही समाप्त नहीं हुई है अभी पार करनी हैं कई खाइयां फटकारों की दुख के एक दो और समुद्र पठार यातनाओं के अभी और दो चार जब आखिर आएगी वह औरत जिसे देख तुम और भी विस्मित होओगी भयभीत भी शायद रोओगी उसके जीवन के लिए फिर हो सशंकित कैसे कटेगा इस औरत का जीवन फिर से कहोगी तुम लेकिन वह हंसेगी मेरी ही तरह फिर कहेगी— ‘उन्मुक्त हूं देखो और यह आसमान समुद्र यह और उसकी लहरें हवा यह और इसमें बसी प्रकृति की गंध सब मेरी हैं ओर मैं हूं अपने पूर्वजों के श्राप और अभिलाषाओं से दूर पूर्णतया अपनी!’ ***