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उदित नारायण, श्याम बेनेगल और धर्मवीर भारती को एक सूत्र में जोड़ती है यह कविता

आज धर्मवीर भारती (25 दिसंबर, 1926 - 04 सितंबर, 1997) की पुण्यतिथि है. पढ़िए उनकी एक कविता.

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फोटो - thelallantop
धर्मवीर भारती एक उपन्यासकार के रूप में बहुत ज़्यादा प्रसिद्ध हैं. उनके उपन्यास 'गुनाहों का देवता' ने सफलता के नए मानक गढ़े हैं. गुनाहों का देवता के बारे में कहा जाता है कि ये एक ऐसा टीन-एज साहित्य है जिसे आसुओं के समंदर में डूबे बिना आप पढ़ ही नहीं सकते. वर्तमान समय में 'नई वाली हिंदी' के टॉर्च बियरर 'दिव्य प्रकाश दुबे' ने अपने बहुचर्चित नॉवेल 'मुसाफ़िर कैफ़े' के माध्यम से 'गुनाहों के देवता',उसके पात्रों और धर्मवीर भारती को बड़े ही रोचक ढंग से श्रद्धांजलि दी है. धर्मवीर के दूसरे उपन्यास,'सूरज का सातवां घोड़ा' पर भारत के महानतम डायरेक्टर्स में से एक,'श्याम बेनेगल' ने फ़िल्म भी बनाई है. धर्मवीर की प्रस्तुत कविता,'इनका कोई अर्थ नहीं', का एक वर्ज़न श्याम बेनेगल ने 'सूरज का सातवां घोड़ा' में भी यूज़ किया है, जिसे उदित नारायण ने गाया है. सबकी सब शामें: तो आइए पढ़ते हैं धर्मवीर भारती की कविता - क्या इनका कोई अर्थ नहीं?
ये शामें, सब की शामें जिनमें मैंने घबरा कर तुमको याद किया जिनमें प्यासी सीपी-सा भटका विकल हिया जाने किस आने वाले की प्रत्याशा में ये शामें क्या इनका कोई अर्थ नहीं? वे लम्हे वे सूनेपन के लम्हे जब मैंने अपनी परछाई से बातें की दुख से वे सारी वीणाएं फेकीं जिनमें अब कोई भी स्वर न रहे वे लम्हे क्या इनका कोई अर्थ नहीं? वे घड़ियां, वे बेहद भारी-भारी घड़ियां जब मुझको फिर एहसास हुआ अर्पित होने के अतिरिक्त कोई राह नहीं जब मैंने झुककर फिर माथे से पंथ छुआ फिर बीनी गत-पाग-नूपुर की मणियां वे घड़ियां क्या इनका कोई अर्थ नहीं? ये घड़ियां, ये शामें, ये लम्हे जो मन पर कोहरे से जमे रहे निर्मित होने के क्रम में क्या इनका कोई अर्थ नहीं? जाने क्यों कोई मुझसे कहता मन में कुछ ऐसा भी रहता जिसको छू लेने वाली हर पीड़ा जीवन में फिर जाती व्यर्थ नहीं अर्पित है पूजा के फूलों-सा जिसका मन अनजाने दुख कर जाता उसका परिमार्जन अपने से बाहर की व्यापक सच्चाई को नत-मस्तक होकर वह कर लेता सहज ग्रहण वे सब बन जाते पूजा गीतों की कड़ियां यह पीड़ा, यह कुण्ठा, ये शामें, ये घड़ियां इनमें से क्या है जिनका कोई अर्थ नहीं! कुछ भी तो व्यर्थ नहीं!

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