अन्नपूर्णा देवी का जन्म 1927 में मैहर घराने के संस्थापक बाबा अलाउद्दीन खान के यहाँ तत्कालीन मैहर स्टेट (मध्य प्रदेश) में हुआ था. उनके पिता मैहर के महाराजा के मुख्य दरबारी संगीतज्ञ थे. तड़के सुबह से देर रात तक उनके आसपास संगीत का ही कारोबार था. तब के मैहर, विशेषतः उनके घर की फ़िज़ाओं में मौशिकी घुली हुई थी. शुरू में बाबा अन्नपूर्णा को संगीत सिखाने के हक़ में नहीं थे क्योंकि संगीत की वजह से उनकी बड़ी बेटी को दकियानूस मुस्लिम पति के घर कई दिक्कतों का सामना करना पड़ा था. मगर देवी की दिलचस्पी और मेधा को देखते हुए अपना इरादा बदलना पड़ा.
अलाउद्दीन ने अन्नपूर्णा को सबसे पहले ध्रुपद और सितार में प्रशिक्षित किया. लेकिन बाद में उन्होंने देवी को सुरबहार पर ही ध्यान केंद्रित करने का निर्देश दिया. सुरबहार सितार जैसा ही तार का वाद्ययन्त्र है, मगर थोड़ा भारी और बजाने में कठिन होता है. देवी को 1977 में पद्म भूषण और 1991 में संगीत नाटक अकादमी अवार्ड से सम्मानित किया गया था. मगर मैं कहूंगा कि ये सम्मान भी भारतीय संगीत में उनके योगदान को रेसिप्रोकेट नहीं कर सकते.

अन्नापूर्णा देवी के शिष्यों की फ़ेहरिस्त भी काफी लंबी रही है.
हालांकि बहुत सारे शास्त्रीय संगीत के प्रेमियों और जानकारों के लिए दुखद रहा कि 1961 के बाद से ही उन्होंने प्रस्तुतियां देना बंद कर दिया था. लेकिन वो तालीम के जरिये संगीत और सेनिया मैहर घराने की सेवा करती रहीं. किसी भारतीय शास्त्रीय संगीत के विद्वान या विद्यार्थी से पंडित रविशंकर के किसी विश्वप्रसिद्ध शिष्य का नाम पूछिये, वो शायद ही उनकी बेटी अनुष्का शंकर के अलावा किसी और का नाम ले सके. मगर अन्नपूर्णा देवी के शिष्यों की फ़ेहरिस्त में पंडित हरिप्रसाद चौरसिया, पंडित निखिल बनर्जी, उस्ताद आशीष खान देबशर्मा, उस्ताद बहादुर खान, बसंत कबरा और नित्यानंद हल्दीपुर जैसे नाम शामिल हैं.
एक बार उस्ताद अली अकबर खान ने कहा था, “तराजू के एक पलड़े पर पंडित रविशंकर, पन्नालाल घोष और मुझे रख दीजिए और दूसरे पलड़े पर अन्नपूर्णा को. फिर भी अन्नपूर्णा वाला पलड़ा भारी रहेगा.” कहते हैं कि ज्यादा बड़े स्रोता वर्ग तक पहुंचने के लिये पंडित रविशंकर और अली अकबर खान ने बाबा अलाउद्दीन ने जो सिखाया था, उस संगीत से अंशतः समझौता कर लिया था. लेकिन अन्नपूर्णा देवी के संगीत का विशुद्ध रूप वही है जो उन्होंने अपने पिता से सीखा था और उनकी एकाकी ने उनकी अंतर्दृष्टि को सहेजने में मदद की. 60 के दशक से ही वो मुम्बई के एक फ्लैट में एकांतवास में चली गईं थी. अपने विद्यार्थियों के अलावा वो किसी से नहीं मिलती थीं. उनसे सीखने के लिए उन तक पहुंचना भी बहुत मुश्किल था.उनके एक शिष्य अतुल एक दिलचस्प वाकया एक पत्रकार को बताते हैं. एक दिन देवी के शिष्य प्रसिद्ध सरोदिया बसंत काबरा राग विहाग का अभ्यास कर रहे थे. हम लोग उनके पास बैठे थे लेकिन हमें किसी गलती का भान नहीं था जब तक कि मा किचेन से नहीं चिल्लाई, “निशद का तरफ़ बेसुरा है, सुनाई नहीं देता क्या?”

दुर्भाग्यपूर्ण है कि उनकी कोई भी रिकार्डिंग उपलब्ध नहीं है.
अन्नपूर्णा देवी ग्लैमर और चकाचौंध से बहुत दूर रहती थीं. संगीत उनके लिए महत्वाकांक्षाओं की पूर्ति या लोगों को प्रभावित करने की तकनीक नहीं बल्कि अपनी चेतना के उत्थान का साधन था. दुर्भाग्यपूर्ण है कि उनकी कोई भी रिकार्डिंग उपलब्ध नहीं है. एक-दो रिकार्डिंग उनकी बताई जाती है, जिसे उनकी अनुमति के बगैर टेप कर लिया गया था, मगर उनकी भी प्रमाणिकता संदिग्ध है. अपनी नाकामयाब शादी और यूएसए में अपने इकलौते बेटे शुभेन्द्रो शंकर की असामयिक मौत के लिए भी वो आंशिक रूप से पंडित रविशंकर को दोषी मानती थीं. शुभेन्द्रो सितारवादन में एक उभरता हुआ नाम थे. 1982 में 55 साल की उम्र में उन्होंने अपने ही एक शिष्य 44 वर्षीय मनोवैज्ञानिक रूशिकुमार पंड्या का प्रस्ताव स्वीकार कर उनसे शादी कर ली. 2013 में पंड्या की मृत्यु हो गई.
हालांकि उनके बहुत सारे प्रतिभाशाली शिष्य उनके सिखावन और लीगेसी को आगे बढ़ाते रहेंगे. अन्नपूर्णा देवी का निधन भारतीय शास्त्रीय संगीत की अपूरणीय क्षति है. वो शास्त्रीय संगीत के उस स्वर्णिम दौर और अनूठे सर्कल की आखिरी सदस्या थीं.
(ये आर्टिकल दी लल्लनटॉप के लिए दीपांकर ने लिखा है. वे स्वतंत्र लेखक और टिप्पणीकार हैं )