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संसद में घुसने वालों ने भगत सिंह का नाम तो ले लिया, लेकिन क्या वो उन्हें जानते भी हैं?

भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त ने असेंबली में बम दागे थे. लेकिन उन्हें बम तक सीमित कर देने में एक बहुत बड़ी समस्या है.

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शहीद भगत सिंह बम फेंककर क्रांतिकारी नहीं बने. अपने विचारों से बने. (फोटो/पीटीआई, विकिपीडिया)

25 नवम्बर 1949. तीन बरस के बहस-मुबाहिसे के बाद संविधान सभा का काम पूरा हुआ था. ड्राफ्टिंग कमेटी के चेयरमैन डॉक्टर आम्बेडकर अपने आखिरी भाषण के लिए खड़े हुए. इसमें उन्होंने हिंदुस्तान को तीन बातों के लिए चेताया. जिसमें पहली थी विरोध के तौर-तरीकों को लेकर. दूसरी थी व्यक्ति-पूजा को लेकर. और तीसरी थी कि लोकतंत्र को राजनीति में समेट देने को लेकर. आंबेडकर जानते थे कि राजनैतिक लोकतंत्र कानून से स्थापित हो सकता है. लेकिन सामाजिक लोकतंत्र की स्थापना में लंबा समय लगेगा.

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आम्बेडकर की तीनों चेतावनियों में से पहली चेतावनी को आज फिर से दोहराए जाने की जरुरत है. वे कहते हैं,

“मेरे विचार से पहली चीज़ जो हमें करनी चाहिए, वो है अपने सामाजिक और आर्थिक लक्ष्यों को पूरा करने के लिए पूरी मजबूती से संवैधानिक तरीकों को अपनाना. इसका सीधा सा अर्थ ये है कि हमें क्रांति के खूनी तरीकों को छोड़ना होगा. इसका मतलब ये भी है कि हमें सविनय अवज्ञा, असहयोग और सत्याग्रह का रास्ता छोड़ देना चाहिए. हां, जब आर्थिक और सामाजिक लक्ष्यों को पाने के लिए संवैधानिक तरीकों का कोई रास्ता नहीं बचा था, तब असंवैधानिक तरीकों का बहुत ज्यादा महत्त्व था. लेकिन आज जब संवैधानिक तरीके हमारे पास हैं, वहां इन असंवैधानिक रास्तों को किसी भी तरीके से जायज नहीं ठहराया जा सकता. ये तरीके और कुछ नहीं, बल्कि अराजकता का व्याकरण हैं और इन्हें जितनी जल्दी छोड़ दिया जाए, हमारे लिए उतना ही बेहतर होगा.”

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कट टू 13 दिसम्बर 2023. आम्बेडकर के भाषण के 74 बरस बाद. संसद का शीतकालीन सत्र चल रहा है. लोकसभा में शून्यकाल का वक्त. बंगाल से भाजपा सांसद खगेन मुर्मू बोल रहे हैं. अचानक दर्शक दीर्घा में बैठे कुछ लोग नारे लगाने लगते हैं,

‘’तानाशाही नहीं चलेगी.''

‘’भारत माता की जय''

इन नारों के शोर के बीच दो लोग दर्शक दीर्घा से सदन में कूद गए. इन्होंने अपने जूतों में स्मोक कैनिस्टर छिपा रखे थे. ये दगे, और सदन में पीला धुआं रिसने लगा. सांसदों ने जल्द ही दोनों युवकों को काबू में कर लिया और लोकसभा सिक्योरिटी सर्विस को सौंप दिया. जब लोकसभा के अंदर यह घटना हो रही थी, उसी वक्त संसद भवन के बाहर एक पुरुष और एक महिला नारे लगाते हुए वैसा ही पीला धुआं छोड़ रहे थे. ये भी तुरंत गिरफ्तार कर लिये गए.

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आज तक से जुड़े अरविन्द ओझा की रिपोर्ट के मुताबिक सभी आरोपी सोशल मीडिया पेज 'भगत सिंह फैन क्लब' से जुड़े हुए थे. पुलिस का कहना है कि ये आरोपी क्रांतिकारी शहीद भगत सिंह से काफी प्रभावित थे और कोई ऐसा काम करना चाहते थे जिससे देश का ध्यान उनकी ओर आकर्षित हो सके. आशंका जताई जा रही है कि आरोपियों ने ये सब असेंबली बम कांड से प्रभावित होकर किया. असेंबली बम काम कौनसा? वही, जो 1929 में भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त ने किया था. 

कुछ सोशल मीडिया पोस्ट में भी इस घटना को लेकर भगत सिंह का नाम लिया जा रहा है. वरिष्ठ वकील प्रशांत भूषण ने लिखा, 

“ऐसा लगता है कि जो लोग कल संसद में गैर नुकसानदायक धुआं बम ले गए, वे गरीब, शिक्षित और बेरोजगार युवा थे, जो बेरोजगारी की खतरनाक समस्या पर ध्यान आकर्षित करने के लिए भगत सिंह की शैली में विरोध प्रदर्शन करना चाहते थे.”

भगत सिंह-बटुकेश्वर दत्त ने असेंबली में बम दागे. और आरोपियों ने स्मोक कैनिस्टर. दोनों वक्त सदन की कार्यवाही चल रही थी. ऐसे में क्या दोनों घटनाओं की तुलना हो सकती है? क्योंकि जिस सिक्योरिटी ब्रीच की बात हो रही है, वो तो भगत-बटुकेश्वर ने भी की थी. लेकिन क्या इस नज़र से असेंबली बम कांड को देखा जा सकता है? उनकी क्रांति में बंदूक और बम का स्थान क्या और कितना था? ये सवाल लेकर हम पहुंचे, इतिहासकार सैयद इरफ़ान हबीब के पास. वे भगत सिंह पर, ‘Inquilab: Bhagat Singh on Religion and Revolution’ नामक किताब भी लिख चुके हैं. वे कहते हैं,

“भगत सिंह कोई क्षणिक उन्मादी नहीं हैं, कि किसी को भी मार दो. कहीं भी बम फोड़ दो. दुर्भाग्य से उनका ऐसा विश्लेषण अधिक हुआ है. किताबें और चार्ली चैप्लिन की फ़िल्मों के बिना भगत का काम न चलता था. उनके साथियों ने कई जगह लिखा है, भगत किताबें पढ़ता नहीं बल्कि उन्हें पीता था. इन किताबों में डिकन्स, शेक्सपियर से लेकर मार्क्स और लेनिन की किताबें शामिल थीं. शहीद भगत सिंह बम फेंककर क्रांतिकारी नहीं बने. अपने विचारों से बने. वे खुद कहते हैं, 

‘’बम और पिस्तौल से क्रांति नहीं आती. 
क्रांति की तलवार विचारों की सान पर तेज होती है.”

भगत सिंह के व्यक्तित्व की सबसे बड़ी खासियत उनके विचार हैं. 23 की उम्र में वे जो कुछ लिख गए, वो उन्हें आजादी के दूसरे सिपाहियों से एकदम अलहदा करता है. वे किस किस्म की दुनिया बनाना चाहते थे, आप उनकी कही बातों से समझ सकते हैं.” 

 एस इरफ़ान हबीब की  किताब  का कवर  (फोटो/ अमेजन)

भगत सिंह के विचारों को जानने के लिए हमारे पास उनका लिखा और कहा पर्याप्त मात्रा में मौजूद है. साल 1929 के अक्टूबर में लाहौर में एक विद्यार्थी सम्मेलन हुआ - सेकंड पंजाब स्टूडेंट कॉन्फ्रेंस. इस कॉन्फ्रेंस की सदारत कर रहे थे, सुभाष चन्द्र बोस. भगत सिंह ने इस कॉन्फ्रेंस में युवाओं के नाम एक संदेश भिजवाया था. ये संदेश कॉन्फ्रेंस में पढ़ा गया था. भगत सिंह कहते हैं,

“आज, हम युवाओं को पिस्तौल और बम उठाने के लिए नहीं कह सकते. आज, छात्रों को कहीं अधिक महत्वपूर्ण जिम्मेदारी का सामना करना पड़ रहा है. आने वाले लाहौर अधिवेशन में कांग्रेस देश की आजादी के लिए भीषण संघर्ष का आह्वान करेगी. राष्ट्र के इतिहास में इस कठिन समय में युवाओं को बहुत बड़ा बोझ उठाना पड़ेगा. 

ये सच है कि स्वतंत्रता संग्राम के अग्रिम मोर्चों पर छात्रों की जान गई है. पर क्या वे एक और बार अपनी उसी दृढ़ता और आत्मविश्वास को साबित करने में झिझकेंगे? युवाओं को इस क्रांतिकारी संदेश को देश के कोने-कोने तक पहुंचाना होगा. उन्हें औद्योगिक क्षेत्रों की झुग्गी-झोपड़ियों में रहने वाले करोड़ों मज़दूरों और टूटी-फूटी झोपड़ियों में रहने वाले ग्रामीणों को जागरूक करना होगा, जिससे हम स्वतंत्र होंगे और मनुष्य द्वारा मनुष्य का शोषण असंभव हो जायेगा. 

वैसे भी पंजाब को राजनीतिक रूप से पिछड़ा माना जाता है. यह युवाओं की भी जिम्मेदारी है. शहीद यतींद्र नाथ दास से प्रेरणा लेते हुए और देश के प्रति असीम श्रद्धा के साथ उन्हें यह साबित करना होगा कि वे आजादी की इस लड़ाई में दृढ़ संकल्प के साथ लड़ सकते हैं.”   

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भगत सिंह की सिर्फ पांच तस्वीरें उपलब्ध हैं (सोर्स/ विकिमीडिया कॉमन्स)

विचारक सुदीप्त कविराज कहते हैं, 

“हमारे समाज के लिए बड़ी समस्या अनपढ़ता नहीं है. अनभिज्ञता है. आप सब कुछ नहीं जान सकते. ये बिल्कुल ठीक बात है. पर आप किसी चीज को सही तरह से जानने के बाद भी गलत करें ये बेईमानी है.'' 

अंत में भगत सिंह की बात,

निष्ठुर आलोचना और स्वतंत्र विचार, ये क्रांतिकारी सोच के दो अहम लक्षण हैं.

वीडियो: भगत सिंह, चंद्रशेखर आजाद, राजगुरु के अनसुने किस्‍से इस किताब में मिलेंगे

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