साल 1957. 25 फरवरी को दूसरी विधानसभा के लिए वोट डाले जाने थे. सूबे के मुख्यमंत्री श्रीकृष्ण सिंह अपने करीबी सिपहसालारों के लिए सुरक्षित सीट खोजने में लगे हुए थे. उस समय की बिहार सरकार में काबीना मंत्री महेश प्रसाद सिन्हा मुजफ्फरपुर सीट से कांग्रेस के उम्मीदवार थे. सिन्हा जाति से भूमिहार थे और मुजफ्फरपुर में इस समुदाय के वोट फैसलाकुन थे. कागज़ी हिसाब-किताब में महेश प्रसाद सिन्हा अजेय थे. लेकिन जल्द ही उन्हें यह गणित उलटी दिखाई देने लगी थी. वजह थी उनके मुकाबिल आया उम्मीदवार. नाम महामाया प्रसाद सिन्हा. कभी बिहार कांग्रेस के अध्यक्ष रहे महामाया प्रसाद ने महेश प्रसाद सिन्हा के उस्ताद श्रीकृष्ण सिंह से विवाद के चलते कांग्रेस छोड़ दी थी. महामाया बाबू कायस्थ समुदाय से आते थे. मुफ्फरपुर का जातीय गणित उनके पक्ष में नहीं था. लेकिन उन्हें भरोसा था छात्रों पर जिन्हें वो अपने जिगर का टुकड़ा कहा करते.
इस कहानी की शुरुआत हुई थी 1955 की 12 अगस्त से. पटना के बीएन कॉलेज के छात्रों की स्टेट ट्रांसपोर्ट सर्विस के कर्मचारियों के साथ किराए को लेकर बकझक हो गई. गुस्साए छात्र सड़कों पर उतर आए. स्टेट ट्रांसपोर्ट की बसों को आग के हवाले कर दिया गया. महेश प्रसाद सिन्हा उस समय श्रीकृष्ण सिंह की सरकार में ट्रांसपोर्ट मिनिस्टर थे. छात्रों पर काबू पाने के लिए पुलिस ने गोली चलाई. इसमें सीवान के एक छात्र दीनानाथ पाण्डेय की मौत हो गई. इसके बाद छात्र आंदोलन और उग्र हो गया. 30,000 छात्र पटना में सचिवालय को घेरकर बैठ गए. उन्हें महेश प्रसाद इस गोलीकांड के जिम्मेदार लग रहे थे. आखिरकार पंडित नेहरू को खुद पटना आना पड़ा. छात्रों ने पटना हवाई अड्डे पर उन्हें काले झंडे दिखाए.
इस आंदोलन में छात्रों की अगुवाई कर रहे महामाया प्रसाद खुद सीवान के रहने वाले थे. उनके गांव-जवार का छात्र पुलिस की गोली का शिकार हुआ था. उन्होंने सरकार के खिलाफ मोर्चा खोल दिया. इस मुद्दे पर भाषण देते हुए वो कई दफा मंच से भावुक होकर रो पड़ते. कई दफा गुस्से में अपना कुरता फाड़ लेते. एक वाक्य उनके भाषण में तयशुदा तौर पर शामिल होता, "विद्यार्थी हमारे जिगर का टुकड़ा हैं."
महामाया प्रसाद की इन अदाओं ने छात्रों को उनका कायल बना दिया था. इसी मुद्दे को लेकर वो मुफ्फरपुर से ट्रांसपोर्ट मिनिस्टर महेश प्रसाद सिन्हा के खिलाफ चुनाव में उतर गए.
आखिर में श्री कृष्ण सिंह ने अपनी तुरुप चाल चली. प्रधानमंत्री नेहरू चुनाव प्रचार के लिए बिहार के दौरे पर आने वाले थे. श्रीकृष्ण सिंह ने उनकी एक सभा मुजफ्फरपुर में करवाने का निर्णय लिया. उन्हें उम्मीद थी कि नेहरू का करिश्मा महेश प्रसाद सिन्हा की शिकस्त रोक लेगा. नेहरू आए भी. खुली जीप में बैठकर पूरे मुफ्फरपुर में घूमे. महेश प्रसाद सिन्हा के लिए वोट मांगे. लेकिन कोई भी तरकीब काम ना आई. महामाया प्रसाद सिन्हा ने जातीय गणित को ठेंगा दिखाते हुए यह चुनाव 2804 वोट से जीत लिया.

लेकिन महामाया प्रसाद सिन्हा को जायंट किलर की शोहरत मिलने में अभी एक दशक का वक़्त था.
साल 1967. कृष्ण वल्लभ सहाय सूबे के मुख्यमंत्री थे. और उनके कट्टर सियासी प्रतिद्वंद्वी रामगढ़ के भूतपूर्व राजा कामख्या नारायण सिंह नई पार्टी बनाकर उनको चुनौती देने में लगे हुए थे. पार्टी का नाम, 'जन क्रांति दल'. केबी सहाय की सरकार पर वैसे भी संकट के बादल मंडरा रहे थे. उनकी सरकार पर भ्रष्ट्राचार के आरोप लगे हुए थे. लेकिन जैसे यह काफी नहीं था. 5 जनवरी को विधानसभा चुनाव से ठीक पहले पटना यूनिवर्सिटी के छात्र सड़कों पर थे. वजह थी फीस में बढ़ोतरी. केबी सहाय ने छात्रों के खिलाफ सख्ती से काम लिया. कई छात्र पुलिस की गोली का शिकार हुए. बिहार के कई जिलों में छात्र सड़क पर उतर गए.
मुख्यमंत्री केबी सहाय बढ़ती अलोकप्रियता को भांप रहे थे. लिहाजा उन्होंने अपने लिए सुरक्षित सीट की तलाश शुरू कर दी. पहली सीट पटना पश्चिम विधानसभा. और दूसरी गिरडीह. दोनों जगह से केबी सहाय का इतिहास जुड़ा हुआ था. पटना पश्चिम सीट ने विधानसभा पहुंचकर वो मुख्यमंत्री बने थे और गिरडीह सीट से 1952 में पहली मर्तबा विधायक और फिर मंत्री बने थे. केबी सहाय ने दोनों सीटों से पर्चा भर दिया.
पटना पश्चिम केबी सहाय के लिए सुरक्षित सीट मानी जा रही थी. गिरडीह से वो 1957 में एक दफा चुनाव हार चुके थे. लेकिन इस बार पटना वेस्ट से भी मुकाबला आसान नहीं था. उनके मुकाबिल जन क्रांति दल ने सजातीय महामाया प्रसाद सिन्हा को उम्मीदवार बनाया. 'विद्यार्थी हमारे जिगर का टुकड़ा हैं' कहने वाले महामाया प्रसाद. केबी सहाय मुकाबले में कहीं थे ही नहीं. उन्हें इस मुकाबले में मिले 13,305 वोट. जबकि हार का अंतर था 20,729 वोट. महामाया प्रसाद ने केबी सहाय को धूल चटा दी थी.
अंक-2: प्रफेसरी के सवाल पर सरकार निपट गई!
1967 का चुनाव केबी सहाय के साथ-साथ कांग्रेस के लिए भी बुरा सपना साबित हुई. कांग्रेस को केवल 128 सीटें मिली और वह बहुमत से 42 सीट पीछे रह गई. वहीं डॉ. राम मनोहर लोहिया के आह्वान पर एकजुट विपक्षी दलों ने बहुमत हासिल कर लिया था. इनमें लोहिया की पार्टी संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी (संसोपा) को 68, प्रजा सोशलिस्ट पार्टी को 16, जन क्रांति दल को 28, जनसंघ को 25, सीपीआई को 24 एवं सीपीएम को 4 सीटें मिली थी. क्योंकि कांग्रेस सबसे बड़ी पार्टी थी लिहाजा राज्यपाल एम.ए.एस. आयंगर ने कांग्रेस को सरकार बनाने का न्यौता भेजा. तब तक महेश प्रसाद सिन्हा कांग्रेस विधायक दल के नेता चुने जा चुके थे. उनको पता था कि अगर सरकार बना भी ली तो बहुमत साबित करना मुश्किल हो जाएगा. उन्होंने इस निमंत्रण को अस्वीकार कर दिया.
दूसरी तरफ राम मनोहर लोहिया देश में कांग्रेस के खिलाफ विपक्ष का संयुक्त मोर्चा बनाने में लगे हुए थे. उनकी पहलकदमी से बिहार में विपक्ष का गठबंधन संभव हो पाया. लेकिन पेंच फंसा कि मुख्यमंत्री कौन होगा? इस गठबंधन की सबसे बड़ी पार्टी संसोपा थी. कर्पूरी ठाकुर को संसोपा के विधायक दल का नेता चुना जा चुका था. लेकिन गठबंधन के कई नेता उनके नाम के लिए तैयार नहीं थे. लिहाजा बीच का रास्ता निकाला गया. मुख्यमंत्री को चुनाव में पटखनी देने वाले को ही मुख्यमंत्री का ताज सौंप दिया दिया. कर्पूरी ठाकुर को उपमुख्यमंत्री पद दिया गया. इस तरह महामाया प्रसाद सिन्हा बिहार के चौथे मुख्यमंत्री बने.
मुख्यमंत्री बनने के बाद महामाया सरकार ने एक आदेश जारी कर दिया कि पुलिस किसी भी परिस्थिति में विद्यार्थियों पर गोली नहीं चलाएगी. इसी सरकार ने पिछली कांग्रेसी सरकारों के भ्रष्टाचार की जांच के लिए जस्टिस टी एल वेंकटराम अय्यर आयोग बनाया. इसी सरकार के उप-मुख्यमंत्री सह शिक्षा मंत्री कर्पुरी ठाकुर ने मैट्रिक पास करने के लिए अंग्रेजी विषय में पास करने की अनिवार्यता खत्म कर दी.
लेकिन इस खिचड़ी सरकार के अंतर्विरोध जल्द ही सामने आने लगे. संसोपा इस गठबंधन का सबसे बड़ा दल था लेकिन मुख्यमंत्री की कुर्सी जन क्रांति दल के पास थी. संसोपा का एक धड़ा इस बात से संतुष्ट नहीं था. इस बीच एक विवाद ने इस सरकार के पतन की नींव रख दी. परबत्ता से चुनाव जीतकर पहली दफा विधानसभा पहुंचे सतीश प्रसाद सिंह 15 विधायकों के साथ मुख्यमंत्री के आवास पर पहुंचे. उनकी शिकायत थी कि पिछड़े वर्ग से आने वाले एक योग्य उम्मीदवार को पटना मेडिकल कॉलेज में प्रोफेसर नियुक्त नहीं किया जा रहा है. उन्होंने मुख्यमंत्री महामाया प्रसाद को धमकी दी कि अगर उस उम्मीदवार को प्रोफ़ेसर नियुक्त ना किया गया तो वो सरकार के खिलाफ प्रदर्शन करेंगे.
चुनावी बिसात पर मात खाए केबी सहाय को जैसे इसी मौके इंतजार था. वो सतीश प्रसाद सिंह के पास पहुंचे और उनके सामने मुख्यमंत्री बनने का ऑफर रख दिया. अगर वो गठबंधन सरकार के 25 से 30 विधायक तोड़ लें तो कांग्रेस के समर्थन से मुख्यमंत्री बन सकते हैं. सतीश प्रसाद सिंह को इस काम में साथ मिला बीपी मंडल और भोला प्रसाद सिंह का. गठबंधन से कुल 25 विधायक टूटकर अलग हुए. नई पार्टी बनी शोषित दल.
28 जनवरी को महामाया प्रसाद सिन्हा को विधानसभा में नए सिरे से बहुमत सिद्ध करना था. कांग्रेस, शोषित दल और कुछ निर्दलीय विधायकों ने महामाया प्रसाद सिन्हा की संविद सरकार के खिलाफ वोट डाला. सरकार बहुमत सिद्ध नहीं कर पाई. महामाया प्रसाद सिन्हा को इस्तीफ़ा देना पड़ा.

अंक- 3: जब डीएम भिड़ गया सीएम से
1967 में बिहार के मुख्यमंत्री महामाया प्रसाद सिन्हा संथाल परगना क्षेत्र के दौरे पर थे और दुमका के सर्किट हाउस में उनकी वहां के डिस्ट्रिक्ट मैजिस्ट्रेट यशवंत सिन्हा से झड़प हो गई. यशवंत सिन्हा अपनी आत्मकथा रिलेंटलेस में लिखते हैं,
'वहां खड़े कुछ लोग मुख्यमंत्री से अपनी शिकायत करने लगे. हर शिकायत के बाद मुख्यमंत्री मेरी तरफ़ मुड़ते और मुझसे स्पष्टीकरण मांगते. मैं हर संभव उन्हें संतुष्ट करने की कोशिश करता. लेकिन उनके साथ आए सिंचाई मंत्री और बेगुसराय के कम्युनिस्ट नेता चंद्रशेखर सिंह का व्यवहार मेरे प्रति कुछ ज्यादा ही आक्रामक था. आखिरकार मेरा धैर्य जवाब दे गया और मैंने मुख्यमंत्री की तरफ़ देख कर कहा, 'सर मैं इस व्यवहार का आदी नहीं हूं. इसके बाद मुख्यमंत्री मुझे दूसरे कमरे में ले गए और स्थानीय एसपी और डीआईजी के सामने मुझसे कहा कि मुझे इस तरह बर्ताव नहीं करना चाहिए था. तब मैंने जवाब दिया कि आपके मंत्री को भी मेरे साथ इस तरह व्यवहार नहीं करना चाहिए था.
इस पर महामाया प्रसाद सिन्हा गर्म हो गए और उन्होंने मेज़ पर ज़ोर से हाथ मार कर कहा कि 'आपकी बिहार के मुख्यमंत्री से इस तरह बात करने की हिम्मत कैसे हुई?' आप दूसरी नौकरी की तलाश शुरू कर दीजिए.' फिर मैंने कहा, 'मैं शरीफ़ आदमी हूं और चाहता हूं कि मुझसे शराफ़त से पेश आया जाए. जहां तक दूसरी नौकरी ढूंढने की बात है, मैं एक दिन मुख्यमंत्री बन सकता हूं, लेकिन आप कभी आईएस अफ़सर नहीं बन सकते. मैंने अपने कागज़ उठाए और कमरे से बाहर निकल आया.'
शायद यशवंत सिन्हा यह नहीं जानते थे की महामाया प्रसाद सिन्हा भी ब्रिटिश काल में आईएएस के पुराने अवतार आईसीएस में सिलेक्ट हो चुके थे लेकिन स्वतंत्रता आंदोलन में शामिल होने के कारण ज्वाइन नहीं किया था. रही यशवंत सिन्हा के मुख्यमंत्री बनने की बात, तो वह बिहार में 1995 में नेता प्रतिपक्ष बने, लेकिन मुख्यमंत्री की दावेदारी से पहले ही इंद्रप्रस्थ की चौसर में नए सिरे से मुब्तिला हो गए.

अंक 4: जेपी ने मांगे तीन टिकट
महामाया प्रसाद सिन्हा 1969 का विधानसभा चुनाव जन क्रांति दल के टिकट पर अपने गृह अनुमंडल सीवान की महाराजगंज सीट से जीते थे, लेकिन 1972 के चुनाव के पहले वे इन्दिरा गांधी की कांग्रेस (आर) में शामिल हो गए और सीवान अनुमंडल की ही गोरेयाकोठी विधानसभा क्षेत्र से जीतकर एक बार फिर विधानसभा पहुंच गए. केदार पांडे और अब्दुल गफूर सरकार में उनका पुराना रुतबा कायम नहीं हुआ. छात्रों के जिगर का टुकड़ा सियासी अज्ञातवास में था. लेकिन फिर छात्र सड़कों पर उतरे. पहले पटना यूनिवर्सिटी और फिर पूरे बिहार के. जेपी के नेतृत्व में संपूर्ण क्रांति का नारा गूंजा. इस दौरान 1974 की जेपी की चर्चित पटना रैली के बाद उन्हें सर्वोदयी नेता ने घर बुलाया. महामाया बाबू पहुंच गए जेपी के कदमकुआं स्थित आवास. मंत्रणा के बाद उन्होंने छात्र आंदोलन को अपना समर्थन देने का फैसला किया.
इस बीच महामाया बाबू के जेपी से मुलाकात की खबर सुनकर इन्दिरा गांधी के कान खड़े हो गए. वे छात्रों को आंदोलित करने की महामाया बाबू की क्षमता से वाकिफ थीं और इसलिए उन्हें अपने पाले में लाने की कोशिशें शुरू कर दीं. इसी कोशिश के तहत इन्दिरा गांधी ने प्रधानमंत्री कार्यालय के रसूखदार अधिकारी यशपाल कपूर को महामाया बाबू को मनाने के लिए पटना भेज दिया लेकिन महामाया बाबू नहीं माने. वे जेपी के साथ ही खड़े रहे और इमरजेन्सी में विपक्षी नेताओं के साथ जेल भी गए.
1977 के जनवरी महीने में इन्दिरा गांधी ने इमरजेन्सी में ढील देते हुए लोकसभा चुनाव का ऐलान कर दिया. सभी विपक्षी नेता रिहा कर दिए गए. चुनाव की घोषणा होते ही जेपी की पहल पर सोशलिस्ट पार्टी, भारतीय लोकदल, कांग्रेस (संगठन), जनसंघ, सीएफडी एवं कांग्रेस से निकाले गए युवा तुर्कों (चंद्रशेखर, मोहन धारिया, कृष्णकांत आदि) ने मिलकर जनता पार्टी का गठन किया. जनता पार्टी के सभी उम्मीदवारों का भारतीय लोकदल के चुनाव चिन्ह पर चुनाव लड़ाने का फैसला किया गया. इस नए दल के सभी घटकों के लोग अलग-अलग सीटों पर दावेदारी करने लगे. कई सीटों पर तो एक से ज्यादा घटकों ने दावेदारी कर रखी थी. ऐसी ही एक सीट बिहार की राजधानी पटना की थी. इसपर जनसंघ घटक के लोगों ने अपनी दावेदारी ठोक दी और कैलाशपति मिश्र को उम्मीदवार बनाने की मंशा भी जाहिर कर दी. उधर बिहार के कायस्थ समाज में अलग ही मगजमारी चल रही थी कि यदि पटना की सीट कायस्थ समाज के उम्मीदवार को नहीं मिलेगी तो और कौन सी सीट मिलेगी! इस मामले पर पटना के वरिष्ठ पत्रकार कुमार अनुपम बताते हैं,
"जब जनता पार्टी के अलग-अलग घटकों में सीटों की छीना-झपटी चरम पर थी तब जयप्रकाश नारायण ने हस्तक्षेप किया और जनता पार्टी के नेताओं से तीन टिकटों की मांग की. तीन टिकटें उन्हें दे भी दी गईं और उनके तीनों उम्मीदवार इस प्रकार थे : छपरा से लालू प्रसाद, हाजीपुर (सुरक्षित) से रामविलास पासवान और पटना से महामाया प्रसाद सिन्हा."इस चुनाव में महामाया बाबू के जिगर के टुकड़े (यानी स्टूडेंट्स) पूरी तरह से जनता पार्टी के साथ थे इसलिए न सिर्फ महामाया बाबू जीते बल्कि पूरी हिंदी पट्टी में कांग्रेस साफ हो गई. पटना संसदीय सीट से चुनाव जीतकर महामाया बाबू संसद तो पहुंचे लेकिन शुरू से ही घटकवाद की शिकार जनता पार्टी की सरकार में उनके मंत्री बनने का नंबर नहीं लग पाया.
सांसद रहने के दौरान ही उन्हें पैरालिसिस अटैक हो गया. इसके चलते उनकी राजनीतिक सक्रियता बहुत घट गई. 1980 के चुनावों में महामाया प्रसाद सिन्हा फिर पटना से जनता पार्टी के टिकट पर मैदान में थे. मगर पिछली बार उनसे हारे सीपीआई के रामावतार शास्त्री इस बार जीत गए. ये चुनाव महामाया प्रसाद सिन्हा का आखिरी चुनाव था.
अंक 5: डॉ. सुब्रह्मण्यम स्वामी महामाया बाबू के घर क्यों गए
1983 में जनता पार्टी का राष्ट्रीय अधिवेशन पटना में हो रहा था. इस अधिवेशन में जनता पार्टी की प्रदेश इकाई ने महामाया बाबू को बुलाने की आवश्यकता नहीं समझी. अधिवेशन के अंतिम दिन जब जनता पार्टी अध्यक्ष चंद्रशेखर को इस बात की जानकारी मिली तो वे प्रदेश इकाई के नेताओं पर बहुत गुस्सा हुए और तत्काल डॉ. सुब्रह्मण्यम स्वामी को महामाया बाबू के कंकड़बाग स्थित आवास पर भेजा और प्रदेश इकाई के नेताओं के रवैये पर खेद प्रकट किया. सुब्रमण्यम स्वामी को भेजने का एक कारण यह भी था कि स्वामी और महामाया बाबू के संबंध पहले से भी बहुत अच्छे रहे थे इसलिए वही उनके गुस्से को शांत कर सकने में भी सक्षम थे. हालांकि बाद में, अधिवेशन की समाप्ति के बाद चंद्रशेखर स्वयं भी उनके आवास पर गए और पार्टी नेताओं के व्यवहार पर निराशा जताई.

बुढ़ापा, पैरालिसिस अटैक और इन सबसे बढ़कर एक राजनीतिक व्यक्ति का एकाकीपन - इन सबसे मुकाबला करते हुए हरदिल अजीज महामाया बाबू 1987 की शुरूआत में इस दुनिया को अलविदा कह गए. उनके बाद भी तमाम लोग बिहार की सत्ता के शीर्ष पर पहुंचे लेकिन उन जैसा जिंदादिल आदमी बिहार की सियासत में फिर देखने को नहीं मिला. विद्यार्थियों को अपने जिगर का टुकड़ा कहनेवाला कोई दुसरा नेता बिहार की सियासत में नहीं आया.
महामाया प्रसाद सिन्हा ने बिहार को विरासत में दो चीजें दी. पहली एक साफ़-सुथरी सरकार. मुख्यमंत्री के तौर पर उनके दौर को याद करते हुए वरिष्ठ पत्रकार सुरेंद्र किशोर कहते हैं-
"सन 1967 में बिहार में महामाया बाबू की गैर कांग्रेसी सरकार बनते ही जब राज्य सरकार के दफ्तरों में घूसखोरी बंद हो गई तो कचहरियों के कर्मचारी भी डर गए थे. उन्हें लगा कि पता नहीं, कब किसके यहां छापा पड़ जाए. 1967 की उस गैर कांग्रेसी सरकार में जो भी मंत्री बने थे, वे तपे -तपाए और ईमानदार नेता थे. दशकों से उन्होंने जनता के लिए संघर्ष किया था. लेकिन इसी महामाया सरकार के कुछ मंत्रियों ने बाद के महीनों में जब अपनी हल्की सी कमजोरियां दिखाईं तो फिर सामान्य सरकारी दफ्तरों और कचहरियों में भी पुराना नजारा दिखाई पड़ने लगा था. फिर भी मेरा मानना है कि 1967 की महामाया प्रसाद सिन्हा की सरकार बिहार की अब तक की सर्वाधिक ईमानदार सरकार रही. हालांकि वह मिलीजुली सरकार ही थी."
दूसरी विरासत जोकि हर बार बोर्ड परीक्षाओं में अखबारों की तस्वीरों की शक्ल में दिखाई देती है. परीक्षाओं में नक़ल. विद्यार्थियों को अपने जिगर का टुकड़ा कहने वाले महामाया प्रसाद सिन्हा के मुख्यमंत्री काल में विद्यार्थियों को नक़ल करने की खुली छूट मिली. इससे पहले तक ब्रिटिश परीक्षा प्रणालियों को सख्त और नक़ल से मुक्त माना जाता था. 1967 तक ऐसा ही चलता रहा. लेकिन महामाया प्रसाद के दौर में प्रशासन को ढीला कर दिया गया. इसके बाद तो नक़ल में ऐतिहासिक ऊंचाईयां देखी.